घर की फ़िक्र

घर की फ़िक्र

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माँ को गुजरे दो साल हो गए है। उसकी एक तस्वीर कमरे में लगी हुई है। मैं जब भी उस तस्वीर को देखता हूँ, जिसमे वो हमेशा की तरह अपने हर दर्द को चेहरे के हाव भाव से पता नहीं चलने देती, बेचैन हो जाता हूँ। जैसे वो मुझे कह रही हो, 'मुझे कुछ नहीं हुआ, थोड़ी बहुत तकलीफें तो चलती रहती हैं। शरीर को जितना आराम दोगे, उतना ही ज्यादा बेकार हो जाओगे।'

मुझे याद है कि माँ की बाई ओर छाती के ऊपर एक छोटी सी गांठ उभरी थी, उसने किसी के भी साथ इस बारे में बात नहीं की। एक दिन उसके दर्द को जैसे मैन महसूस किया और पूछा भी तो कहने लगी," अरे कुछ नहीं , शायद संडा निकल आया है, बरगद के पत्ते का दूध लगा रही हूँ, बाकि जोड़ों के दर्द वाली पेन किलर भी ले रही हूँ, ठीक हो जाएगा।"

मैंने भी फिर ज्यादा खोजबीन करना उचित नहीं समझा, क्योंकि माँ के चेहरे पर उनका इत्मीनान उनसे ज्यादा पूछने के लिए मजबूर नहीं करता था।

वे अपने काम मे फुर्ती से सारा दिन लगी रहती। उनकी पाठ पूजा अक्सर दोपहर में ही होती, उसका भी कारण घर के सब काम निपटा कर और फिर नहा धोकर ही ईश्वर का ध्यान करना था। दोपहर में अगरबत्ती की महक जैसे उसके घर में होने की एक पहचान बन गई थी।

उसके जोड़ों में दर्द रहता था, उसकी दवा वो ज़रूर लेती थी। खाने पीने का उसे ज्यादा शौक नहीं था। हफ्ते में दो या कई बार तीन व्रत ज़रूर रखती। कभी सोमवार, कभी पूर्णमासी, कभी सन्तोषी माँ तो कभी कोई और उसके व्रत का कारण होते। उस दिन वो हरी मिर्च और दही के साथ रोटी खाया करती थी। डॉक्टर ने गठिया में जिन चीजों का परहेज बताया था, उस पर बहस करना या समझना हमारे लिए व्यर्थ था। वो सुबह से लेकर देर रात तक बस अपने काम में व्यस्त रहती, चैन से बैठना उसकी दिनचर्या का हिस्सा नहीं था। सुबह का खाना पीना निपटता तो वो साफ सफाई और झाड़ू पोछे में व्यस्त हो जाती। उसका काम दोपहर तक निपटता और वो कुछ देर के लिए टीवी पर अपना कोई प्रोग्राम देखती या चश्मा लगाकर अखबार पढ़ती। अखबार में क्या पढ़ती इसकी कभी कोई चर्चा वो नहीं करती थी।


मुझे लगता है कि वो घर के साथ घर हो गई थी। एक आध दिन के लिए अगर उसे किसी रिश्तेदारी में जाना होता तो घर उसके दिमाग से न निकलता।

नानी या मामा का फोन आता कि बहुत दिन हुए कुछ दिन के लिए आ जाओ। माँ का हर बार एक बहाना होता,"अब घर छोड़ के निकलना मुश्किल है, जब भी समय मिलेगा आ जाऊंगी, तुम लोग मिल जाओ अगर समय मिले, वहां तो भाभी हैं ही घर सम्भालने के लिए।"

उसे पिता जी के खाने की फ़िक्र रहती, घर की साफ सफाई और मैले कपड़ों के लगे ढेर की चिंता सताए रहती। पिता जी बहुत निर्भर व्यक्ति थे, खाने पीने से लेकर पहनने ओढ़ने तक अजीब सी आदतें जो शायद माँ के लिए जिम्मेवारी होगी पर वो एक बोझ की तरह उस पर लदी रहती।

'एक दो दिन अगर घर से बाहर ढाबे पर खाना खा लेंगे तो कौन सी आफ़त आ जायेगी, वैसे भी जब कहीं घूमने जाते हैं तो कौन सा घर का ही खाना खाते हैं।" एक दिन मैंने माँ से कहा।

"आज तो ये बात कह दी, दोबारा मत कहना, अभी मैं जिंदा हूँ, जब मर जाऊँ तो अपने बाप के साथ जो जी आये करना।" माँ ने मुझे गुस्से से कहा, जैसे उसे मेरी बात बिल्कुल अच्छी नहीं लगी।

उसे इधर उधर बिखरी हुई चीजों से चिढ़ थी। खूंटी पर टँगे कपड़े, झूठे बर्तन और सुस्त लोग उसके लिए एक बीमारी थे। शायद इसीलिए उसने बचपन से ही इन बातों को लेकर हमे हमेशा टोका। हो सकता है ये एक बड़ा कारण हो जिसने मुझे भी आत्मनिर्भर रहने का गुण दिया है। चाय, मनपसंद का खाना पीना और अपने सारे काम खुद करना, ये सारी बातें शायद माँ के कारण ही मेरे भीतर भी हैं। मैंने मामा को भी बचपन से घर के बहुत सारे काम और नानी के साथ रसोई में हाथ बटाते देखा है।

आखिरकार एक दिन जब मैं पड़ोसियों के घर किसी काम से गया तो आंटी ने मुझे बताया," बेटा जरा अपनी माँ का डॉक्टर से चेकअप करवाओ, छाती की गांठ पत्थर जैसी है, मैंने भी देखा तो तुम्हारी माँ से कहा कि डॉक्टर को दिखाओ, पर वो संडा और फोड़ा कहकर टाल गई। तुम जरा भाई साहब से भी कहना और चैक करवाना, भगवान उसे तन्दरुस्त रखे।"

दोपहर का समय था, मेरे दिमाग मे आंटी की बात जैसे गूंजने लगी थी। मैंने घर आते ही पिता जी से बात की। पिता जी बोले, बेटा मैं तो कई बार कह चुका हूँ पर ये सुनती ही नहीं, तुम देख लो अगर तुमहारे साथ चली जाय।"

माँ ने शायद हमारी बात सुन ली थी। वो कमरे में आकर कहने लगी,"तुम बाप बेटा तो बस एक बात के पीछे पड़ जाते हो। "

"माँ तो प्लीज मेरे साथ चल, स्कूटर पर दो मिनट लगेंगे, ये गए और ये आये। ऐसी भी क्या ज़िद।"

मैंने कहा था दो मिनट का काम पर क्या पता था कि वक्त आपके अनुसार नहीं चलता हमें उसके अनुसार चलना पड़ता है।

डॉक्टर ने गाठ को अच्छी तरह देखा। चेकअप करने के बाद माँ को बाहर भेज दिया और मुझे अंदर बुलाया।

"देखिये आप घबराइए मत, पर एक टेस्ट करवाना पड़ेगा ताकि इनकी इस गांठ से पानी लेकर उसे टेस्ट किया जा सके, बाकी बातें टेस्ट होने के बाद। ये एक स्पेशल टेस्ट है आप यही नज़दीक की बड़ी लैब से करवा लीजिए।"

मेरा दिल अब भी सहज था, कि टेस्ट करवाना तो आजकल आम बात है,अभी करवा लेते है। क्योंकि माँ को गठिया होने कारण टेस्ट करवाना आम बात थी। पिता जी भी अक्सर अपनी शुगर टेस्ट करवाया करते थे।

टेस्ट लैब की रिपोर्ट पढ़ कर डॉक्टर ने मुझे बताया था, "कैंसर पॉजिटिव है...पर अब इलाज संभव है, शायद गठिया होने के कारण ज्यादा स्टीरॉयड और पेन किलर इसका एक कारण हो सकते हैं। ये गांठ ऑपरेशन करके निकलवानी होगी, फिर कीमोथेरेपी करवानी होगी। आप हौसला रखिये, बड़े शहर में डॉक्टर मेरी जान पहचान के हैं। मैं आपको स्लिप बना कर दे देता हूँ। आप घर जाकर राय बना लीजिएगा। इलाज थोड़ा लम्बा है,पर ...इलाज करवाने से ही हल हो पायेगा।"

मेरी जिंदगी में कैंसर, कीमोथेरेपी, शहर का बड़ा हस्पताल जैसे किसी अनचाहे मेहमान की तरह घुस गए थे और मुझे हर हालत में इनसे अपना पिंड छुड़ाना था। उससे बड़ी बात थी पिता जी को इस बाबत बताना और माँ को इस इलाज के लिए तैयार करना।

पिता जी अपने कमरे में बैठे टीवी पर समाचार सुन रहे थे। मैं घर आया और उनके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया। मैं जैसे रोना चाहता था, पर रो नहीं पा रहा था ।

"और फिर डॉक्टर की कोई बात तेरी माँ की समझ में आई या उसे भी डॉक्टरी सिखा आई।" पिता जी ने सहजता से कहा।

मैंने बिना कुछ कहे टेस्ट रिपोर्ट और डॉक्टर की स्लिप पिता जी के आगे कर दी।

पिता जी ने उन कागजों को गौर से देखा माँ को मैंने कुछ नहीं बताया था वो आते ही किचन में चाय बनाने लगी थी शायद।

"तुम्हारी माँ की ज़िद ने जो करना था कर दिया, पर कोई बात नहीं हम एक और डॉक्टर से रिपोर्ट चेक करवाएगें। आजकल सब साले अपना कमीशन खाने के चक्कर में ऑपरेशन की बात फट्ट से कर देते हैं, छोटी मोटी फुंसी फोड़े को कैंसर बता देते हैं।" पिता जी शायद खुद को और मुझे जैसे हौसला दे रहे हो कि बात इतनी बड़ी नहीं जैसा डॉक्टर बना रहे हैं।

काश हम जो सोचते है, हर बार वैसा हो पर जिंदगी आपको चौकाती है, कभी अचानक लाटरी निकलने जैसी खुशी देकर तो कभी शांति के आनन्द में अचानक धमाका कर के जो आपके दिल को कँपकँपी छेड़ दे।

ऑपरेशन में केवल माँ की गांठ ही नहीं निकली उसके बायीं ओर का पूरा स्तन निकालना पड़ा। एक डब्बे में बंद वो मांस का लोथड़ा जो हमे ऑपरेशन के बाद दिखाया गया। जिसे टेस्ट के लिए दिल्ली भेजा जाना था ताकि कैंसर की स्टेज का पता चल सके। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर ने हमे बताया था कि गांठे कई थी जी एक लड़ी के रूप में बाजू तक फैल गई थी।

ऑपरेशन के बाद माँ बेहोश किसी मासूम बच्चे की तरह अपने कमरे के बेड पर पड़ी थी। बेहोशी में बेफिक्र, शायद अब उसके दिमाग में घर और उससे जुड़े काम होश में आने तक न आएं।

ऑपरेशन के एक महीने बाद ही कीमोथेरेपी शुरू हुई। सुबह जल्द पिता जी बड़े शहर में माँ को लेकर जाते, दो घण्टे में उन्हें कीमों की दवा चढ़ाई जाती। टेस्ट रिपोर्ट से पता चल गया था कि तीसरी स्टेज है।

"तुम तो यही चाहते हो कि मैं चारपाई पर बैठ जाऊँ, ऐसे नहीं मैं मरने वाली, मुझे ज्यादा अक्ल देने की भी जरूरत नही, जाओ अपने काम से काम रखो।" कीमो करवा कर माँ लौटी तो आते ही इधर उधर पड़े कपड़े सम्भालने लगी। मैंने उसे आराम करने को कहा तो मुझ पर भड़क गई।

झाड़ू पोछा लगाने के लिए काम वाली रख दी थी। कपड़े और चौका करने के लिए भी एक कामवाली को रखा। पर माँ को किसी का भी काम पसंद नहीं था। वो झाड़ू पोछा करने वाली के सिर पर खड़ी होकर काम करवाती। जो जूस और फल पिता जी उसके लिए लाकर रखते, वो उसका हाल कैसल पूछने आये रिश्तेदारों और जान पहचान वालों को खिला देती। मुझे बड़ी कोफ्त होती थी ,खीजता पर डॉक्टर ने कहा था कि कीमो के कारण मरीज का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, उल्टियां लग जाती है ,इसलिए आप थोड़ा संयम रखियेगा।

माँ ने अपने बेड के पास ही एक बाल्टी रखवा ली थी कि रात बिरात उसे उल्टी आये तो वो उसमे कर ले। मैं सुबह उठकर अगर उस बाल्टी को उठाकर खाली करने जाता तो मेरे पीछे पड़ जाती।

"अरे तू परे हट, अभी इतनी भी मजबूर नहीं हुई, मुझे अपना गन्द खुद ही उठाने दे, मेरी बीमारी का कम से कम कुछ बोझ तो मैं उठा लूँ।"

माँ ने अंत तक अपने व्रत, घर की फ़िक्र और घर की साफ सफाई की ज़िद नहीं छोड़ी। साल भर बाद हमे जरूर छोड़ कर चली ग । उस दिन शायद उसका अंतिम दिन था, उसने मेरे हाथ से दो चम्मच दलिया खाया। उसका मुंह सूजन से भर गया था। डॉक्टर से तीन दिन पहले जब चेक करवाने गए थे तो वो यही बोला था," बेटा अब तो जो सेवा कर सकते हो, वही हमारे हाथ में है, आने वाले अड़तालीस से बहत्तर घण्टे बहुत क्रिटिकल हैं, हौसला रखो, बाकी सब भगवान की मर्जी।"

मरने से एक दिन पहले तक माँ खुद अपने कपड़े उठाकर नहाने जाती । मरने वाले दिन वो सवेरे जल्दी उठी उसने अपने बेड की दरी और चादर भी साथ उठा रखी थी, वो गुस्से में जैसे भगवान को गालियां दी रही थी। उसका पेशाब बिस्तर में ही निकल गया था।

फिर अचानक बाथरूम में जैसे कुछ गिरा। शुक्र है कुंडी नहीं लगी थी। माँ अपने शरीर के मरते हुए तंतुओं के आगे बेबस हो गयी थी।

दोपहर तक उसकी आवाज़ जाती रही। लातों से धीरे धीरे बढ़ती जकड़न जैसे उसके गले को जकड़ चुकी थी। बस दलिये के दो चम्मच खाकर उसने हाथ से मना कर दिया। वो लेट गयी। उसने मेरी ओर देखा तो उसकी आँखों में जैसे पानी चमका पर टपका नहीं। शायद पानी भी सूख गया हो। पिता जी माँ की हालत देखकर छत पर उदास टहलने लगे। जैसे हम दोनों मानसिक तौर पर तैयार हो गए थे। जैसे न चाहते हुए भी माँ की मुक्ति की एक अनचाही कामना कर रहे थे।

सूर्य अस्त हुआ तो जैसे घर की फ़िक्र कहीं दूर अंधकार में लुप्त हो गई थी ।



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