गाँधी का गाल बनाम बोस की बंदूक

गाँधी का गाल बनाम बोस की बंदूक

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आज सुबह से ही हरचरना काफी तरोताजा महसूस कर रहे हैं। सुबह रोज की तरह जल्दी उठकर नियमित कार्यों से निवृत के पश्चात, ट्रैक्टर की अच्छे से सफाई की है। हाँ वही ट्रैक्टर, जो आधुनिक बैल हैं। पहले किसान सुबह उठकर बैलों को सानी पानी करते थे,  किसान सुबह से उठकर ट्रैक्टर की सफाई और तेल पानी का इंतजाम। हरचरना ट्रैक्टर की सफ़ाई कर ही रहे थे कि गाँव के सरपंच महोदय, तशरीफ़ ले आये। कहो हरचरना का हाल चाल हैं?

आइये-आइये सरपंच जी, राम राम।

"राम-राम भाई, और सुनाओ, इस बार तो फ़सल बहुत अच्छी रही और पैदावार भी मन मुताबिक हुआ। त्योहार आ रहे हैं। कैसे तैयारी है।

बस उसी की तैयारी में लगे हुए हैं। इस बार तो त्योहार में धूमधाम से मेला लगना चाहिए।

हाँ भाई, उम्मीद तो ऐसी ही है। इस बार फसल अच्छी हुई मतलब लोग जी खोलकर चंदा देंगे। आपका चंदा तो वैसे भी सबसे ज्यादा होना चाहिए। तुम्हारी फसल गाँव ऊपर थी और तुम्हें तो पेंसिन भी मिल रही है।

बात तो सही है, सरपंच जी। पर आप तो जानते ही हैं पैसों के भी पर होते हैं और फुर्र से उड़ जाते हैं। अभी पिछले साल ही बिटिया का व्याह किये हैं। अब क्या बताएं जी खोलकर खर्च किया। लड़के वाले सोच रहे थे कि कोई दस बारह लाख तो ख़र्च करेंगे। आप तो अपने हैं, बता देते हैं कि वह शादी पूरे बीस लाख से एक पैसा बेसी न थी। आप से क्या क्या बताएं, आपने सबकुछ देखा ही है।

अरे हाँ भाई, गाँव क्या पूरे इलाके में पहले कभी ऐसी धूमधाम से शादी न हुई होगी।

और हाँ, सरपंच जी आप हमारे लड़के को तो जानते हो न, उसी शादी में गाँव आया था। किसी से मिला विला भी न पाए उसको, कुल तीन दिन ही रुका था। अभी पढ़ाई ही कर रहा है। साल के चार-पाँच लाख तो उसकी पढ़ाई का लग ही रहा है, सरपंच जी। फ़सल अच्छी हुई, पैदावार भी मन मुताबिक़ हुआ, इस बार तो गन्ना जोरदार रहा और आलू भी अच्छे खासे हुए। पर अभी तक बेंच का पैसा नहीं मिला सरपंच जी।

अरे तो मिल जई भाई, अब तो सीधे खाता मा आवत है। तीन महीना तो होइनगें। अब तक आय जाएं का चाहित रहा।

वही तो सरपंच जी। आप तो जानते ही हैं कि भारतेंदु बाबू ने अपनी एक कहानी में कहें हैं कि "इह तिहवार तो मुनिसिपलिटी हैं"।

मतलब।

मतलब त्योहार के आ जाने से घर-द्वार वास वातारवरण की सफाई हो जाती है। नहीं तो प्रत्येक व्यक्ति अपने काम धाम में इतना व्यस्त है कि कहाँ सफ़ाई का ध्यान दे पाता है।

अरे महाराज, भले बतायवे। हम भले सरपंच बन गवा है। पर पढ़े लिखे लोगन की संगत की बातऐं कुछ और है, उनकी संगत से ही गुन आवत है। फिर तुम्हरे परिवार की कुछ अउरे बात है, हरिचरना। तुम नौकरी कीह्वे, तुम्हार बाप किहेन और तुम्हरे बाबा तो गाँधी बाबा से बात किहेन रहें। कितने फखर की बात है।

हम कुछ भी किये हों, पर असली खुशी तो ग्रामीण परिवेश में ही बसती है। तभी तो हम शहर छोड़कर गाँव आ गए और खेती बाड़ी करने लग गए।

वही तो हम देख रहे हैं हरिचरना कि जब पढ़े लिखे लोग खेती बाड़ी भी करत हैं तो केत्ती उन्नति करत हैं, तुम पूरे गाँव के लिए मिसाल हो।

अरे सरपंच जी, छोड़िये इन बातों को, त्योहार आ रहे हैं, घर की सफ़ाई करानी है, अगर कोई मिल जाता तो मदद मिल जाती है और उसका भी त्योहार का खर्च निकल जाता।

अरे तो चंदू है न। हम भेज दयाब। अच्छा राम-राम।

सरपंच जी के चले जाने के पश्चात हरिचरण दास जी जो अब गाँव आकर हरिचरना बन गए हैं और अपने मेहनत के बलबूते गाँव के सम्मानित लोगों में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं, को भूख का एहसास हुआ।

चित्तशान्ति के पश्चात भूख बलवती हो जाती है और क्षुधापूर्ति तो सिर्फ और सिर्फ श्रीमती जी के करों से ही होती है। अतः हरिचरण दास जी विमला के सन्निकट पहुँचे पर कुछ बोलते उससे पहले विमला ने अपनत्व भरे लहजे से उलाहना दिया: आ गए, मिल गया आपको समय। अरे शांत हो जाओ भाग्यवान! कुछ खाने-वाने को दो, पेट में चूहे कूद रहे हैं।

चूहे क्या ? हाथी घोड़े, कुत्ते-बिल्ली सब कूदेंगें। सुबह से पता जो नहीं था।

खाने के साथ ही सफाई की योजना बन गई। तय हुआ कि पुराने बक्सों, आलमारी इत्यादि हटाकर सम्पूर्ण घर की सफ़ाई की जाएगी।

फिर क्या था विमला टूट पड़ी सफाई पर और उनकी मदद कर रहे थे चंदू और श्रीमती चंदू, जिनका नाम श्रीमती ही था। अब क्या चलना था सफ़ाई के मैराथन पर। पुराने बक्सों को उनकी जगह से हटाया गया, अलमारियों को भीतरी सतह तक चमकाया गया। कुछ बक्सों में तो पुरानी किताबें ऐसे कब्जा जमाए बैठी थी मानो कृषक जीवन में महाजन। और किताबों के हालात ऐसे हो रहे थे कि किसी भी किताब को पलटने पर छटाक से कम धूल में मुँह में न समाहित होती थी। क्योंकि इनकी जिल्द में धूल ने अपना हक जमा दिया था, जिससे साबित हो रहा था कि इन्हें सालों से पढ़ा तो क्या छुआ तक नहीं गया था। फिर भी हरिचरण महोदय हर किताब को उलट-पुलटकर जरूर देखते थे। एक ऐसी ही किताब से लिफ़ाफ़ा सरकता हुआ उनके चरणों के समीप आ टपका। लिफ़ाफ़ा के अंदर निकले पत्र को पढ़कर हरिचरण महोदय विचारों में खो गए।

संघर्षों से लड़कर जीतना आसान होता तो कोई भी व्यक्ति फाँसी के लिए रस्सी न चुनता। यह पत्र हरिचरण जी के पिता ने अपने पिता जी को लिखा था। पत्र में पिता-पुत्र के बीच हुए उस संवाद का जिक्र था जिसके माध्यम से एक पुत्र ने अपने पिता से रोष व्यक्त किया था कि उनके मुताबिक गाँधी बाबा ने जनमानस को विश्वास दिलाया था कि भारत सबका होगा। यहाँ भाई-चारा होगा। सब खुशहाल होंगे। सबको काम होगा। कोई भूखा नहीं सोयेगा। कुटीर उद्योग लगेगें। सभी के तन पर वस्त्र होंगे। पर क्या हम ऐसा भारत बना पाए। हमें बचपन से सिखाया गया कि प्रेम दुनिया में सबसे बहुमूल्य वस्तु है। पर क्या हम भारत के मूल्य तत्व भाईचारे को बढ़ा पा रहे हैं। वे विचारों की दुनिया में खो गए। बाजार में, चौराहे में, मंदिर में, मस्जिद में हम या हमारा कोई प्यारा गया हो तो क्या हमें पूर्ण विश्वास होता है कि वह सही-सलामत वापस आ जायेगा। क्या गाँधी बाबा ने इस देश की कल्पना की थी? विचारमग्न हरचरना किताब में पत्र को दबाये चुपचाप बैठे रह जाते हैं। तभी श्रीमती विमला जी की नज़र उनपर पड़ जाती हैं। अक्सर इन परिस्थितियों में विमला की आँखों का पारा चढ़ जाया करता है, पर आज न जाने उनमें इतना संयम कहाँ से आ गया और प्यार भरे लहजे में बोली, अरे क्या हुआ महाराज ! काम में मन न लग रहा हो तो चले जाइये, आराम कर लीजिए। फिर चंदू तो काम कर ही रहा है। वह कर लेगा।

अरे कर तो रहा हूँ। अब क्या जहाज बन जाऊं।

कितना कर रहे हो, दिख रहा है। आँखों से टेसू झर रहे हैं जो साफ-साफ बता रहे हैं कि तुम कुछ पढ़ रहे थे। और थोड़ा बेरुखाई से पूछा, क्या पढ़ रहे थे ?

कुछ तो नहीं ! अरे जाओ भाग्यवान ! अपना काम करो।

झूठे कहीं के, जब झूठ बोलना न आये तो नहीं बोलना चाहिए। और दोनों की छीना-झपटी में पत्र किताब से गिर गया।

अब तो पत्र को दे देने के अतिरिक्त हरिचरण महोदय के सामने कोई विकल्प शेष न था। पत्र को एक बार फिर दोनों ने पढ़ा और श्रीमती जी ने श्रीमान जी से पूछा, आपके पिताजी के मुताबिक गाँधी बापू के द्वारा दिखाया हर रास्ता सही होना चाहिए था ?

जी नहीं भाग्यवान मैं यह कदापि नहीं कह रहा कि गाँधी के द्वारा दिखाया गया हर रास्ता सही था। क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि तत्कालीन समय में यदि गाँधी थे तो चर्चिल भी थे और डलहौजी भी, डायर भी।

तो आप गाँधी चर्चिल, डलहौजी, डायर इत्यादि को समान बता रहे हैं।

जी नहीं भाग्यवान, मेरा मतलब है कि जब आप शासक वर्ग में होते हो तो आपका व्यवहार डलहौजी डायर जैसा होने लग जाता है और जब आप शासित वर्ग में होते हो तो गाँधी बनने के अवसर प्राप्त होते हैं।

आपका मतलब शासित वर्ग में प्रत्येक को गाँधी बन जाना चाहिए।

चाहता तो यही हूँ, पर जानता हूँ कि गाँधी बनना इतना आसान नहीं है। बल्कि जब शासित वर्ग के लोगों को प्रतीत होने लगता है कि उनके साथ सरकारें ज्यादती कर रही हैं तो वे आतंकवादी बन जाते हैं। नक्सलवाद में उन्हें अपनी समस्या का समाधान नज़र आने लगता है। वे पथ भ्रष्ट हो जाते हैं।

आपके मुताबिक जब हर समस्या का समाधान शांति के पथ पर है तो लोग हिंसा के मार्ग में कदम क्यों रखते हैं ?

प्रत्येक व्यक्ति को समस्या का समाधान त्वरित गति से चाहिए होता है, जिन्हें गाँधी के रास्ते में मिलता प्रतीत नहीं होता अतः वे गाँधी की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं।

आज के युग में एक गाल पर झापड़ खाने के पश्चात दूसरा आगे बढ़ा देना आसान है क्या ? और फिर जब आपको आसानी से बंदूक प्राप्य है तो उसका इस्तेमाल क्यों न किया जाए ? आखिर सुभाष बोस ने भी तो बंदूकें थामी थी।

श्रीमती जी का यह प्रश्न हरिचरण को वास्तविक दुनिया में खींच लाता है और वे सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि 'गाँधी का गाल या बोस की बंदूक'।


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