चूल्हे से अंतरिक्ष तक महिला

चूल्हे से अंतरिक्ष तक महिला

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गोधूलि बेला है, सूर्य की किरणें खिड़कियों के माध्यम से बस में प्रवेश कर रही है। डीटीसी की बस दिल्ली की सड़क पर सरपट दौड़ी चली जा रही है। लोग अपने गंतव्य की ओर पधार रहे हैं। सभी को घर पहुंचने की जल्दी है तभी तो बस अपनी क्षमता से तीन गुना यात्रियों को ढोये जा रही है। यात्री ठेलम-ठेल बस में सवार हुए जा रहे हैं। जैसे जैसे बस आगे बढ़ती है, यात्री कम होने लगे हैं। जैसे अगला स्टॉप आता, जी धक-धक करने लगता, स्वाभाविक ही था, घर पहुंचने की जल्दी जो थी। बस में उतने ही यात्री बचे हैं, जितनी की बस में बैठने की सीटें हैं। अब अंधेरा भी अपना घर जमाना चाहता है। आँफिस और दिल्ली की यात्रा हमेशा ही थकाऊ होती है, आज मुझे थकान कुछ ज्यादा ही लग रही है। तभी मन ने कहा क्यों नही पीछे वाली सीट पर चला जाता? जाकर कुछ आराम ही कर ले। यह विचार मुझे उत्तम लगा क्योंकि मेरा स्टॉप आने में अभी भी आधे घंटे से ज्यादा लगने वाला है। जैसे ही बस की पिछली सीट की तरफ बढ़ा मुझे किताब सी चीज प्रतीत हुई, यह कॉपी थी या डायरी? यह कक्षा 4-5 में पढ़ने वाले किसी 11-12 वर्ष के बच्चे की लिखावट युक्त डायरी है।

पहला पन्ना पढ़ते से ही मुझे मेरा बचपन याद आ गया। भरा-पूरा परिवार, घर में दादा-दादी, एक बुआ व चाचा, माता-पिता के साथ मैं। दादा जी पचपन से ही मेरे प्रति ज्यादा ही लगाव रखते हैं। जब भी कभी बाजार या दुकान जाते हैं, मेरे लिए कुछ न कुछ अवश्य लाते हैं। कभी चॉकलेट तो कभी आइसक्रीम। यह देखकर माँ हमेशा ही खीझ उठतीं थीं। बिगाड़ो इसे, यह आपके लाड़ प्यार में कुछ ज्यादा ही बिगड़ा जा रहा है। पर दादी माँ हमेशा ही मुस्कुरा के कहतीं की अरे बहु ये सब इस उम्र में नहीं करेगा तो क्या हमारी उम्र में करेगा? और वो उदास हो जाती। जब से डॉक्टर ने बताया है कि उन्हें एवं दादा जी को मधुमेह हुआ है और वे उच्च रक्तचाप के भी शिकार हैं, उनका लगभग सभी प्रकार के भोजन से नाता ही तोड़ दिया गया है। अब उनके खाने में उबली हुई चीजें एवं घास फूस ही तो रह गया है। ऐसे में दादी माँ गाहे-बगाहे ऊपरवाले से दरख्वास्त करती रहती हैं कि उन्हें अब वह अपने पास क्यों नहीं बुला लेता? और मैं यह सोचने लगता कि क्या दादी माँ की प्रार्थना ऊपरवाले तक पहुंचती होगी जब कि उनकी ज्यादातर फरियाद तो उनके बहु-बेटे तक ही नहीं पहुंच पाती हैं। पिताश्री अपनी जिंदगी में बहुत व्यस्त हैं। सुबह 7 बजे उठकर सीधे गुसलखाने पहुँचते हैं जहाँ से उनकी फरमाइशें शुरू हो जाती हैं- रूपा अर्थात मेरी माँ को पुकारते हैं, ज़रा मेरा तौलिया तो देना, मेरा ब्रश कहाँ है? जूते पोलिश कर देना, हाँ आज एक मीटिंग है कपड़ों में स्त्री ज़रा ढंग से करना। वह बेचारी कभी इधर तो कभी उधर दौड़ती रहती। जब से इस घर में आयी हैं कभी चैन से नही बैठी होंगी। सुबह सबसे पहले उठना और रात में सबसे बाद में सोना तो उनकी आदत में शुमार हो गया था। सुबह उठते ही सबसे पहले मेरे लिए नाश्ता तैयार करना और उससे भी बड़ी चुनौती नाश्ता कराना होता है। आज गोलू ने परांठे नही खाये, पूरा दूध खत्म करेगा। मेरा अच्छा बेटा कभी माँ की बात नही टालता। कभी बहला कर कभी फुसलाकर तो कभी गुस्सा कर नाश्ता करातीं। पापा का टिफिन तैयार करना, दादा-दादी का नाश्ता और उनकी दवाओं को खिलाना, ये सब माँ के सुबह के कार्य होते हैं। तत्पश्चात घर की सफाई, झाड़ू पोछा, कपड़ों की सफाई इत्यादि से फ़ुरसत मिले तो दादा-दादी की फरियाद सुनाई दे, भला ऐसे में दादी माँ की फरियाद ऊपरवाले तक कैसे पहुँचती होगी? उसके पास तो और भी बहुत से काम होते होंगे! इतना ही नहीं माँ की जिम्मेदारी में मेरा गृहकार्य कराना भी शामिल था जो कि स्कूल प्रदत्त होता है।

स्कूल? हाँ स्कूल, क्या खूबसूरत इमारत है? कितना मनोरम पृष्ठभूमि है? इसमें स्कूल मैदान तो चार चाँद लगा रहा है। बच्चे आते ही लालायित हो उठते हैं। क्लासरूम? क्लासरूम की बात ही अलग है किसी पंच सितारा होटल के कमरे से कम सुसज्जित नहीं हैं। अध्यापक तो लगते ही नहीं कि इस देश के नागरिक हैं, ऐसा लगता है सीधे या तो अमेरिका से आयें हैं या बिलायत से। कोट पैंट के साथ टाई ऐसे पहनते हैं कि ग़लती से भी गले से हवा प्रवेश न कर पाए। भाई क्या फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं? इनके सामने आते ही अभिभावक की तो बोलती बंद हो जाती है। पर रही बात पढ़ाने की, यह न पूछो तो ही अच्छा है। आजकल तो स्कूल प्रवेश देते समय ही तय कर लेते हैं कि कॉपी-किताबें, पेन, स्कूल बैग, पेंट, शर्ट, जूते, मोजे, टाई इत्यादि सभी चीजें स्कूल से ही लेनी होगी। और हाँ आपका बच्चा पढ़ाई में बहुत कमजोर है तो घर पर ट्यूशन लगाना होगा। चूंकि हम मध्यम परिवार से ताल्लुक रखते हैं अतः ट्यूशन मास्टर के खर्च को वहन नही कर सकते। ऐसे में इसकी जिम्मेदारी भी माँ पर अपने आप आ गयी थी।

इन सब के बावजूद स्कूल मुझे बहुत आकर्षित करता है। इसका कारण मेरे दोस्त हो सकते हैं। हम सब धमा-चौकड़ी मचाये रहते हैं। स्कूल मैदान हमारा सर्वप्रिय स्थान होता है क्योंकि क्लास कभी समझ नही आई। हालांकि स्कूल में मेरे दोस्त कम ही बन पाए हैं, जिसका कारण मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि हो सकती है क्योंकि मेरी कक्षा में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे फर्राटेदार अंग्रेजी के लच्छेदार वर्णों के प्रयोग करते हैं जो कि मेरी खोपड़ी के ऊपर से ऐसे निकलता है कि मानो टेस्ट मैच का कोई मंझा हुआ बैटमैन किसी बाउंसर बोल को डाक किया हो। मेरे अध्यापक ने इस बात को कई बार संज्ञान में लिया तभी तो मेरे माता पिता को स्कूल बुलाया गया था। पर मेरे अभिभावक कुछ समझ पाते, इससे पहले ही उन्हें कोई अच्छा सा ट्यूटर लगाने को बोल दिया गया। परिणामतः मेरी माता जी को पिताश्री व दादी जी डॉट अलग सुननी पड़ी की क्या पढ़ाती हो, तुम एक बच्चे को नही पढ़ा सकती, तुम कर ही क्या सकती हो? मेरे खेल के समय मे भी कटौती कर दी गयी, पर इसका मेरी पढ़ाई में कोई विशेष अंतर तो आया नहीं।

मैं ये सब सोच ही रह था कि एक झटके साथ बस रुकी और कंडक्टर की आवाज मेरी कानों से टकराई- बाबू जी आज घर नहीं जाना क्या? रात बस में ही गुजारनी है? बस तो स्टॉप तक आ गयी थी पर-शायद मैं नहीं। आज मैं उन गहराइयों तक पहुंच गया जहाँ आज तक नही पहुंच था। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच गई। आज महिला डॉक्टर, इंजीनयर, पत्रकारिता, अन्तरिक्ष, प्राध्यापक और यहां तक कि राष्ट्राध्यक्ष तक अपना परचम फहरा रही हैं वहीं दूसरी ओर वे आज भी वही हैं जो कल थी। वे अपने आप को चूल्हे चौके से आगे देखती ही नहीं या समाज उन्हें देखने नहीं देता...


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