उम्मीदों का सैलाब भाग-1

उम्मीदों का सैलाब भाग-1

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रोशन बाबू किसान, ठेकेदार, मजदूर और समयानुकूल नेता रमेश बाबू की होनहार संतान हैं। रमेश बाबू कहने को तो किसान हैं पर जरूरत के हिसाब से कभी ठेकेदार तो कभी मजदूर बन जाते हैं। वैसे चुनावी माहौल में सबकुछ छोड़-छाड़ के वे नेता ही बने रहते हैं। जब से रोशन बाबू जो रमेश बाबू के दूसरे नंबर के बेटे हैं, हाई स्कूल की बोर्ड परीक्षा में फर्स्ट डिवीज़न अपने नाम किया है, रमेश बाबू फूले नहीं समाते।

वैसे तो रोशन बाबू, रमेश बाबू की पाँचवी संतान हैं पर रमेश बाबू सबसे उनका परिचय दूसरे नंबर के बेटे की ही कराते हैं। दरअसल रमेश बाबू की तीन नम्बर तक बेटियाँ ही हुईं थीं। काफी मान मनौहल के बाद भगवान ने उनकी पुकार सुनकर दो बेटों के प्रसाद से उनको नवाज़ा था। तीनों बेटियों की शादी ने रमेश बाबू की कमर तोड़ के रख दिया था। तभी से वे सीज़नल किसान, ठेकेदार मजदूर सबकुछ अपने फ़ायदे के हिसाब से बन जाते थे, जिससे घर का चूल्हा दोनों जून गरम बना रहे। तीनों बेटियों की शादी के गंगा स्नान का परिणाम आज उनको दूसरे बेटे रोशन बाबू के फर्स्ट डिवीज़न के रूप में मिला था। रमेश बाबू जो कि खुद पांचवी जमात तक पढ़े थे, कभी बेटियों को स्कूल का मुँह नहीं दिखाया। स्कूल की तरफ देखकर उनके दिल में एक हूक सी मचती थी की काश उनके कोई बेटा होता तो उसको इसी स्कूल में भेजते। पर बेटियों को कैसे स्कूल भेंजें ! यह जालिम जमाना उन्हें नोंच खसोट डालेगा। ऊपर से ताने मारने वालों की क्या कमी थी ?

अंततः दिल के हूक की शांति के लिए उन्होंने तीसरे नंबर की बेटी को स्कूल भेज ही दिया। जब से बेटी स्कूल जाने लगी है, लोग रमेश बाबू को गली नुक्कड़ चौराहे हर जगह तानों से स्वागत करते। कोई कहता- "ये आ रहे हैं लाट साहब, बेटी को कलेट्टर बनाने चले हैं", कोई कहता, "आइये आइये नवाब साहब बेटी को बेटा बनाने चले हैं।" कोई कहता, "बेटा होता तो न जाने क्या करते।" अन्ततः रमेश बाबू की बेटी ने स्कूल छोड़ ही दिया क्योंकि उसका हाल स्कूल में रमेश बाबू से भी बदत्तर बना के रखा गया था।

तभी से रमेश बाबू धर्मपत्नी संगिनी संग इलाक़े के सभी छोटे-बड़े देवी देवताओं से दरखास्त लगाने लगे कि उनकी कोख में भी पुत्ररत्न का प्रसाद डाल दें। पूजने से पत्थर पसीजे। प्रसाद दीपक बाबू और रोशन बाबू के रूप में संगिनी और रमेश को प्राप्त हुए जो अब समाज में उनके पुत्र के रूप में अपनी गिनती करा रहे हैं। रमेश बाबू ये प्रसाद पाकर फूले नहीं समाये और इन दोनों को पढ़ा लिखाकर अपना कोढ़ दूर करने का संकल्प देखने लगे थे। पर उनके सपनों को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब दीपक बाबू रंगे हाथों जुआं खेलते पकड़े गए। अब क्या था? जो अरमान सीने में अंकुरित किये थे, जब पुष्प और पल्लव से लदे, उनमे वज्रपात हो गया। रमेश बाबू के अरमान ख़ाक मिल गए। अब न तो उन्हें दीपक बाबू से उम्मीद बची, न ही अपने आप से और न ही देवी-देवताओं के प्रसाद से। अब तो रमेश बाबू की इच्छाओं की पूर्ति सिर्फ रोशन बाबू ही पूरी कर सकते हैं। वैसे तो रोशन बाबू बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे पर उन्हें डर दीपक बाबू की संगत से था। अतः रमेश को दीपक बाबू से दूर रखने के लिए उन्होंने रमेश बाबू को क़स्बाई स्कूल में दाखिला करवा दिया। पर समस्या का समाधान मिलने की बजाए उनके सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गयी। संगिनी अपने दिल के कलेजे को अपने से दूर करने को तैयार ही न थीं। रमेश बाबू ने अपने धर्मपत्नी को बड़े ही दुलार से समझाया कि देखो, अगर हमें रोशन को कुछ बनाना है तो इस नालायक बेटे दीपक से उसे दूर ही रखना होगा। तभी वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बन पाएगा।

संगिनी, "तुम का जानो एक महतारी का दरद। अभी ओकिये उम्रए केतइ है! कइसे हुंवा बनाई खइ, कउन बइठ है देखभाल का। हम तो कहित है हमउ का भेज दयौ, हमइ देखभाल करब।"

रमेश, "हाँ, ठीक है, तुम चलिन जाव, कुछ दिन देखभाल कियो जब तक वह खाना-वाना बनाना सीख नहीं ल्यात।"

संगिनी, "अरे न बाबा न, हियां तुम सारी ग्रहस्ती ताप के रख द्याहो। भइंस दूध न देइ। छुटा जइ। तुम्हा हियां कुछ करा धरा न रही।"

रमेश, "समझने की कोशिश करो भागवान ! या तो तुम चली जाओ नहीं तो दिल मसोस के उसको जाने दो। कित्ते दिन भूखा रही, सब सीख जइ। भूख आदमी को सब कुछ सिखा देती है। पेट भरने के लिए चोर चोरी के गुण सीखता है, मजदूर तपती दोपहर में फावड़ा करता है। भूख की तड़प ही कबूतर को बहेलिया की जाल में खींच लाता है। पेट भरने के लिए ही किसान धरती का सीना चीरकर बीज रोपित करता है। तो ये मान लो कि पेट भरने के लिए अपना रोशन रोटी बनाना सीख ही लेगा।

संगिनी, "वो तो ठीक है, आख़िर कित्ते दिन तक जली भूनी खई, फिर तो बनाना सिखेंन जइ ! पर एक महतारी का दिल कइसे मान जाय।"

रमेश, "तो ठीक है अपने लाडले को पल्लो से बांधके रखो ! तुम्हारे लाड़ प्यार ने ही दीपक को सर पर चढ़ा रखा है, अब वैसे ही इसको भी बना दो।"

आखिर धमकी काम आ गई। संगिनी ने दिल मसोसकर परमिशन दे दी। इस तरीके से तेरह वर्ष की कच्ची उम्र में रोशन बाबू ने पढ़ाई के लिए गृह त्याग दिया। रोशन बाबू कुशाग्र बुद्धि के थे ही। स्कूल में जो भी बताया जाता, झट से समझ लेते। 

शुरुआत में भले ही रोशन बाबू को कुछ दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा हो मसलन जली-भुनी रोटी अधपकी दाल सब्जी, लकड़ी से चूल्हा जलाने जैसा मैराथन काम, पर बाद में गाड़ी पटरी पर आ गयी। यहाँ तो रोशन बाबू अपनी जिंदगी को पढ़ाई और स्कूल का माहौल समझने में झोंक रखी थी। उधर दीपक बाबू पढ़ाई का काम छोड़छाड़ के सैर सपाटे में काटने लगे। भाई कोई पैतृक व्यवसाय तो था नहीं, बाप सीजनल किसान, मजदूर, ठेकेदार और नेता भले हों पर इतनी कुव्वत न थी कि बेटे को किसी काम में लगा सके। परिणाम दीपक बाबू दोस्त यार संग गुलछर्रे उड़ाने में दिन व्यतीत करने लगे। कभी कभार खेती के काम में हाथ बटा देते नहीं तो क्रिकेट जिंदाबाद! इनकी शरारतें दिनोंदिन बढ़ती जाती, यह रमेश बाबू के लिए एक और चिंता का विषय था। रमेश बाबू के खेती भले ही न हो पर हैं वे इलाके के रईस आदमी। ऊपर से नेता जी का तबका! नाते रिश्तेदारी में रमेश बाबू का नाम सम्मान से लिया जाता है। अतः दीपक बाबू के लिए रिश्ते की बात भी जोर पकड़ने लगी। रिश्तेदारों का तर्क होता जब बैल के कंधों पर जुवां पड़ जाता है वह सीधा हो ही जाता है। वे रमेश बाबू की इस बात का कि लड़का कोई काम धाम नहीं करता अभी तो एक का ही खर्च वहन करना पड़ता है फिर दोनों प्राणियों का बोझ आ गिरेगा। तो कुछ दिनों तक और ऐसे ही काटते हैं। दरअसल, रमेश बाबू ऐसा कहकर घर का पर्दा उजागार न करना चाहते थे। नाते रोश्तेदारी में भले ही पैसे रूतबे वाले समझे जाते रहे हों, पर सच्चाई यही थी कि छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च भेजने के बाद बमुश्किल से दोनों जून की रोटी की जुगत हो पाती थी। ये तो शुक्र है भगवान का कि रोटी के लिए खेत मे अनाज हो ही जाता है एक जून की दाल सब्जी का प्रबंध करना पड़ता है और एक जून दो दूध मठा से काम चला लेते हैं।

पर जब दीपक बाबू के मामा रिश्ता लेकर आये तो संगिनी अपने भाई की बात को काट न सकी। वैसे भी स्त्रियों को मायके से लगाव कुछ ज्यादा ही होता है। ससुराल में कितना भी बड़ा काम बिगड़ जाए मायके की शोन्धी महक उन्हें आकर्षित कर ही लेती है। मायके का मोह तो माता सती भी नहीं छोड़ पाई थी जिन्हें भगवान की अर्धांगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त था। तो मामूली औरतों की औकात ही क्या है? ऊपर से मामा जी रिश्ता भी मोटी पार्टी का लेकर आये थे। पत्नी के आगे पति की बिसात कितनी? रमेश बाबू को कहना पड़ा कि भाई तुमलोग जो समझो करो पर सतीश एक बात याद रखना की मरजात का ख्याल रहे। तुम तो घर के ही आदमी हो, तुमसे क्या पर्दा! सच सच बताओ कितना लेन देन करवा दोगे? कम से कम इतना तो हो कि ब्याह में हमारे पल्ले से फूटी कौड़ी भी खर्च न करना पड़े।

सतीश: अरे जीजाजी आप चिंता बिल्कुल भी मत करो। सबकुछ हो जाएगा, आप बात मत करो, सारी बातचीत मेरी होगी बस आप हाँ कहो।

अरे भाई अब कैसे हाँ क हूँ ? जो समझो करो। 

फिर बात पक्की, अगले सोमवार को लड़की वालों को बुलाके घर द्वार दिखा देता हूँ, फिर आगे की बात होती रहेगी।

अरे भाई घर-द्वार खेती पाती ही दिखाओगे कि लड़का भी दिखाओगे। है तो पूरा का पूरा निकम्मा ही, अरे सतीश तुम जैसे लोग इस समाज मे न होते तो ऐसे लड़को को कोई पूँछता भी नहीं।

सतीश खीस निपोर के बोले: "अरे जीजा जी, आप भी बात बात में उसको निकम्मा बोलते रहते हैं। वैसे है बहुत ही होनहार लड़का, देखना एक दिन आपका नाम ऊँचा कर देगा।"

"ये क्या ऊँचा करेगा ? भरोशा तो मुझे रोशन पर ही है।"

सतीश कुछ गंभीर होकर बोला: "हाँ रोशन से याद आया, उसका भी रिश्ता पक्का कर देते हैं, हाई स्कूल पास करने के बाद उसका भी शादी ब्याह कर देना।"

रोशन की शादी की बात सतीश के मुँह से सुनकर रमेश बाबू का मानो पारा ही चढ़ गया और बरस पड़े कि "ऐसा है सतीश तुम आपन सलाह अपने पास रक्खो। अब इज़्ज़त से निकल लेव। हम तुम्हारे बकवास बहुत सुन्न लीन।" दरअसल रमेश बाबू गुस्से में अवधी भाषा का प्रयोग अनायास ही कर देते हैं।

संगिनी बीच मे बोल पड़ी: "का तुम हमरे भाई से तनको इज़्ज़त से बात नहीं कर सकते आहिव। वा बिचारा रिश्ता लइके आवा। कुछ आपन समझत है, एक तुम हौ कि अपने शान मा सवार रहत हो।"

सतीश ने देखा बात बढ़ जाएगी, बीच बचौहल में उतर आया। उसने जीजा का पक्ष लेना उचित समझा। और बोला, "अरे दीदी जीजा जी हमका मानत हैं तभी हमसे नाराज़ होते हैं। देख लेना रोशन एक दिन सच मे नाम रोशन करेगा।"

यथा निर्धारित दिन लड़की वाले आये। मामा सतीश इस दल का नेतृत्व कर रहे थे। दल में लड़की दीपा के पिता श्याम नारायण, चाचा शीलू व मामा निरंजन शामिल थे पर बातचीत सिर्फ सतीश और मामा निरंजन के मध्य हो रही थी। उधर इन बातों से बेख़बर, रोशन अपने नए स्कूल में खूब घुल मिल गया था। पढ़ाई में खूब मन लग रहा था। पर बालमन कभी बिचलित हो जाता। माँ की याद आती, पिता का दुलार अपनी ओर आकर्षित करता, भाई के संग खेलने को जी मचल जाता। ऐसे में बेचारे के पास अकेले सिसकियां भरने के अतिरिक्त कौन सा मार्ग था ? वह खूब जी भरकर रोता और इतवार की छुट्टी का इंतजार करता। इन सव विपरीत परिस्थितियों के बाउजूद रमेश बाबू ने जो दीया जलाया था, वह मध्यम रोशनी तो करने ही लग गया था।

जब भी हम दीया जलाते हैं तो, देखते है कि उसकी लौ ऊपर उठने का प्रयास करती है। यह प्रयास ही उन्नति का प्रतीक है। ऊपर जाकर दीपक की लौ धुएं की मलिनता का त्याग करती है। उन्नति की ओर अग्रसर होने पर अज्ञान व कालिमा स्वयं से दूर भागने लगती है। रमेश बाबू का यह दिया रोशन बाबू के रूप में खूब रोशनी फैलाने लग गया था। अर्धवार्षिक परीक्षा में रोशन बाबू ने कक्षा में अपना परचम फहरा दिया था। वार्षिक परीक्षा में पहला दर्जा मारकर रमेश बाबू का नाम समाज और रिश्तेदारी में अग्रणी कर दिया। उसकी मेहनत का फल दीपक को शादी के रूप में दीपा जैसी होनहार और सुशील कन्या का सानिध्य मिलने जा रहा था।

दीपा की फ़ोटो साथ मे लायी गयी थी। दरअसल अभी रमेश बाबू के परिवार में इस चलन का प्रारदुर्भाव नहीं हुआ था कि लड़का शादी से पहले लड़की को देखे। सब कुछ बड़े बूढ़ो को करना था। श्यामनारायण जी को दीपक बाबू का घर परिवार पसंद आया। मामा निरंजन जी को दीपक का स्वभाव और चाचा को रमेश बाबू भा गए। तब फिर दिक़्क़त क्या थी ? दहेज़ पहले ही दोनों मामाओं अर्थात सतीश और निरंजन के मध्य तय हो गया था।

लड़की तस्वीर में बला की खूबसूरत थी पर दीपक बाबू को लड़की पहचानना मुश्किल हो रहा था क्योंकि लड़की तस्वीर में अकेली नहीं थी। जयमाल की स्टेज की ही भांति तस्वीर में सहेलियों की मध्य में विराजमान थी। तीनों सहेली किसी गुलदस्ते में सोभायमान उस फूल की ही तरह अपना आकर्षण बनाये हुए हैं। जिस तरह से किसी गुलदस्ते में से कौनसा फूल ज्यादा खूबसूरत है पहचान पाना कठिन है वैसे ही इस तस्वीर में कौन ज्यादा खूबसूरत है कौन कह सकता था। अंततः दीपक के सब्र का बाँध टूट गया वे सीधे माता जी के पास पहुंचे और उनसे ही जाना चाहा की इनमें से दीपा कौन है ? पर माता जी तो तस्वीर पहली बार ही देख रही थीं। अतः कयासों का दौर जारी हो गया। मामा सतीश जी का आह्वान हुआ। मामा जी विराजे और दीपा से परिचय कराया गया तो दीपक और संगिनी दीपा की सुंदरता से स्वतः मंत्रमुग्ध हो गए।

क्रमशः


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