साइंटिफिक सास बनाम अफसर बहू

साइंटिफिक सास बनाम अफसर बहू

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भारतीय संस्कृति से अभिभूत समाज, कम से कम पहले दिन तो, घर आई बहू को आदर सहित, आरती की थाल सजाकर सास के नेतृत्व में व ननद की अगवानी में घर के अंदर प्रवेश कराता है। कुछ ऐसे ही सपने संजोय रहे होंगे गंगी ने भी पर गंगी के तो जैसे भाग्य ही फूट गए। जाने किस घड़ी वह पण्डित ज्ञान चुतर्वेदी के सुपुत्र ध्यान चतुर्वेदी से मिली और उसकी मीठी मीठी बातों में पिघलकर अपना दिल दे बैठी थी और आज बिना घरवालों की अनुमति लिए धनेहिया और चरना की इकलौती संतान गंगी ने पंडित ध्यानचंद्र से गान्धर्व विवाह कर लिया था। वह जैसे ही ससुराल पहुँची, विज्ञान अध्यापिका उसकी सास गायत्री देवी, समाजशास्त्री ननद गार्गी उस पर बरस पड़ीं। सास ने फटकारते हुए उससे कहा, ये चूहड़ी ! कान खोलकर सुनले ! शादी के बाद तुम्हे पति भले ही मिल गया हो और जो तुम सोचती हो कि जितना आसानी से पति मिल गया है उतना ही आसानी से सास ससुर व ननद नंदोई या देवरानी जेठानी मिल जाएंगी तो तुम गलत सोच रही हो। तुम्हारे हाथ का छुआ यहाँ न तो कोई खायेगा और न ही तुमको कोई साथ मे बैठाकर खिलायेगा। जब सब खा चूकेंगे तो तुम्हे भी तुम्हारे कमरे में खाना पहुंचा दिया जाया करेगा। अपने कमरे से रसोई की ओर कदम भी बढ़ाने की सोचा तो तुम्हारे लिए बुरा हो जाएगा।

गंगी यह धमकी सुनकर सुन्न सी पड़ गयी थी। बात बात में झगड़ा करने वाली गंगी जो सदैव से अपने अधिकारों के प्रति सजग रहती थी, आज न जाने क्यों चुप रह गयी ? गंगी स्वच्छकार चरना की दुलारी बिटिया थी, चरना अपनी जाति के हिसाब से परंपरागत पेशा नाली सफाई व गाँव के मरे हुए जानवर उठाने का कार्य करते हुए भी अपनी लाड़ली बेटी को एमए तक की पढ़ाई कराई थी और वह पढ़-लिखकर क्लास वन की नौकरी का इम्तिहान दे रही थी। पिछले साल देश की प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा का लिखित परीक्षा पास करने के बाउजूद साक्षात्कार में फेल हो गयी थी। उसे लिखित परीक्षा में अव्वल दर्जे के नम्बर मिले थे पर न जाने साक्षात्कार में इतने कम नंबर क्यों मिले? अगर औसत नंबर भी मिले होते तो सेलेक्ट हो गयी होती! वह सदैव से ही होनहार छात्रा रही है। विपरीत परिस्थितियों में भी उसने इंटरमीडिएट की परीक्षा में स्कूल टॉप किया था जबकि प्रैक्टिकल में उसे अपेक्षाकृत कम नंबर मिले थे। जहाँ एवरेज लड़कों को तीस में से पच्चीस छब्बीस नंबर मिले थे वहीं गंगी को बाईस नंबर दिए गए थे और साथ में विज्ञान अध्यापक का आशीर्वाद भी कि तुम्हे ज़्यादा नंबर की क्या आवश्कयता, तुम्हारे लिए तो देश के बड़े बड़े पद पहले से ही आरक्षित कर दिए गए हैं। गंगी के लिए प्रैक्टिकल ही नहीं थ्योरी की क्लास में भी समुचित व्यवहार कब हुआ था ? उसके दोस्त सीमित थे, अध्यापक का व्यवहार उसके लिए किसी भी प्रकार से गुरुओं वाला तो न था और न ही बाप की इतनी हैसियत की अलग से टिवशन करा देते और कहीं से पैसे का इंतज़ाम हो भी जाता तो कौन था उसे जो पढ़ाता ? वह तो अछूत की बेटी थी !

इन परिस्थितियों में भी सीएसई का साक्षात्कार देना कोई छोटी बात तो न थी। और यही वह बात थी जिसे पण्डित ध्यानू ने ताड़ लिया था कि सरकार हमें आरक्षण भले न दिया हो हम आरक्षण को विवाह बंधन में बांधकर ले आएंगे। फिर क्या था ? गंगी की पसंद, न पसन्द को पता करना और उसके इर्द गिर्द मखियों की तरह मंडराना! आखिर गंगी कब तक आँखे चुराती? आँखों से आँखे मिली, दिल में झुनझुने बजे और गंगी अपनी औकात भूल गयी! फिर अब तो उसे क्लास वन अफ़सर बनने की सुगंध भी मिलने लग गयी थी। वह अपनी पुरानी हैसियत में क्यों रहती ? आधुनिक विचारों की लड़की जाति भूल गयी और पंडित से शादी करके सदैव के लिए अछूत के तमगे को उतार फेंकने का सपना संजोए गंगी और ध्यानू विवाह बंधन में बंध गए।

शादी के बाद की शाम का मौसम अत्यंत की सुहाना हो रहा था। बादल आसमान में छाये हुए उमड़ घुमड़ कर रहे थे। हवा का बहाव बादलों को यूं घुमाव प्रदान कर रहे थे मानो दही की मटकी में मथनी छाछ बना रही हो। पानी की बूंदे भी पड़ने लगे गयी थीं और खिड़की में लगे पर्दे के बीच के स्पेस से बरसात किसी झरने से कम न प्रतीत होती थी। गंगी का मन यह अप्रतिम दृश्य देखने को सदा ही मचलता रहता था, पर आज वह विचलित थी। न तो उसे ये दृश्य मोहित कर पा रहे थे और न ही ध्यानू की बातों में आज वह मिठास प्रतीत हो रही थी जो आज से पहले उसकी जादुई आवाज में हुआ करती थी। मन उदास किये होए लगभग रुआँसी सी आवाज में ध्यानू का ध्यान आकर्षित किया। ध्यानू: क्या हुआ डिअर, तुम इतना उदास क्यों हो ?

गंगी: कुछ नहीं।

अरे कुछ तो ध्यान आप बुरा मत मानना, यह आपको समझ नहीं आएगा ! मैं तो न यहाँ की रही और न ही वहाँ की। मेरी माँ पर क्या गुजर रही होगी और बाबा की क्या हालत होगी! उनके जेहन में तो चल रहा होगा कि मैं एक पंडित से शादी करके पंडित बन गयी! पर क्या वास्तव में क्या कभी आपकी माँ की बहू बन पाऊंगी ? क्या आपकी बहन मुझे स्वीकार कर पायेगी ? अब तो मैं ना किसी की बेटी रही और न ही बहू बन पाई।

ध्यान: अरे तुम परेशान क्यों होती हो। माँ स्वभाव से कड़ी हैं पर यह मत भूलो की वे विज्ञान की अध्यापिका रहीं हैं। और गार्गी के विषय में ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है, वह समाजशास्त्री है, उसे समाज की संचरचना के बारे में बेहतर पता है।

यह सुनकर गंगी सोचने लगी कि क्या वास्तव में सास जी में जरा सी भी वैज्ञानिक सोच है और ननद में सामाजिक भाव! फिर भी उसने सोचा, धीरे धीरे इन्हें भी मुझसे लगाव हो ही जायेगा ,जब घर में कुत्ते और बिल्ली से इंसान इतना प्यार कर सकता है तो मैं तो भला इंसान हूँ। फिर वह ध्यान से बोली: क्या सासू माँ सो गईं, मैं उनसे मिल आऊँ। ध्यान यह सुनकर खुश हो गया और बोला: हाँ हाँ... जाओ जरूर मिलकर आओ, मिलने जुलने से लगाव बढ़ता है।

माँ जी लाइये पैर दबा दूं। "पैर क्यों सीधा गला ही दबा दे, बोल तो गले से ही रही हूँ, न" माँ जी आप ऐसा क्यों कह रही हैं, अब तो आप ही मेरी माँ हैं! "अच्छा- अच्छा, ठीक है, सिर्फ पैरों तक ही सीमित रहना, उनसे ऊपर छूने की सोचना मत। शायद आज भी गायत्री देवी इन लोगों को अपने पैरों तले ही रखना चाहती हैं। यह समाज की विडंबना ही है कि एक माँ बाप की लाड़ली उस घर में जो उसका अपना होता है, वहाँ अपना वजूद बनाने की जद्दोजहद करती है, घरवालों को खुश करने के लिए अपनी इच्छाओं का दमन करती है, अपना मान सम्मान सबकुछ दाँव पर झोंक देती है, फिर भी इस समाज में कुछ जाहिल होते हैं जो उन्हें ही आग का दरिया में झोंक देते हैं या इतना मजबूर कर देते हैं कि वह अपने आप को कहीं भी झोंक दे।

शादी के बाद विदाई का दिन मनहूस होता है। सारे घर में शोक की लहर होती है। घर वाले थकान से उबरने के लिए, जहां भी जगह मिलती है, वहीं लुढ़ककर सो रहते है। घर काटने को दौड़ता है और माँ बाप का बस चले तो घर को तिलांजलि दे दें। पर जिस घर से लड़की बिना बताए और वह भी एकलौती लड़की, शादी करके चली जाए, इसकी सूचना पाकर माँ बाप की जो हालत होती है, आज वही दशा धनेहिया और चरना की भी है। वैसे तो चरना का पूरा नाम हरिचरण दास था, पर समाज ने नाली साफ़ करने वाले व्यक्ति को हरिचरण क्यों रहने देता, उन्होंने उसे सिर्फ चरना बना दिया और हरिचरण को भी चरना बनने में कोई आपत्ति नहीं थी। इसीप्रकार से धनेहिया का अपना असली नाम कुछ और ही था पर वह धानेपुर गाँव से व्याहकर लाई गई थी इसलिए, यहाँ वह सब के लिए धनेहिया हो गयी। हमारे समाज में शादी के बाद लड़की न केवल माँ-बाप, भाई-बहन छोडती है और न ही केवल सरनाम बदलती है वल्कि कई जगह तो वह अपने गाँव का प्रतिनिधित्व करती है, मसलन गाँव के नाम से उसका नाम हो जाना, उसके रीति व्यवहार के आधार पर समूचे गाँव का आकलन करना इत्यादि।

इस प्रकार आज धनेहिया के गाँव का ही चीरहरण किया जाने लगा है, मानो गंगी केवल धनेहिया की पुत्री हो और चरना के व्यक्तित्व की छाप उस पर पड़ी ही न हो। बिरादरी सहानुभूति के बहाने धनेहिया को शाब्दिक अलंकारों से आभूषित करके चले जाते हैं और वह बेचारी सारा आरोप झेलकर भी उफ़ नहीं कर रही है।

धनेहिया दोहरी मार झेल रही है एक तरफ तो बेटी की याद दूसरी तरफ समाज की गाली। अंततः साहस करके उसने चरना से बात की कि क्यों न हम ही बेटी से मिल आयें, उसके लिए तो जैसे हम मर गए। पर यह मत भूलो कि मैं एक माँ हूँ और मातृत्व उतार फेंकना मेरे लिए आसान नहीं है। चरना तो यह सुनकर फूट-फूटकर रो पड़ा और घिघ्घी भरते हुए बोला तो क्या मैं एक बाप नहीं हूँ? वह भले हमें भूल जाये, मैंने उसे ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया है, उसकी हर ख्वाइश जाहिर करने से पूर्व पूरी की है। तो क्या हुआ कि वह हमें भूल गयी, वह तो आज भी मेरी ही बेटी है। चलो तैयारी करो हम उससे मिलकर आते हैं। "मिलकर आते हैं, पर कहाँ?" क्या उसके घरवाले हमें अपने घर पर घुसने देंगे? ये मत भूलो गंगी के बापू कि वे पंडित हैं, हमारी परछाईं से भी दूर भागते हैं। ना जाने मेरी बेटी के क्या हाल होंगे वहाँ?

अरे तू भी गंगी की माई! उलूल-जुलूल बकती है। अरे अब वह उनके घर की भाग्यलक्ष्मी है! जैसे वह हमारे घर में हमारी लक्ष्मी थी!

चलो ऐसा ही हो गंगी के बापू, पर क्या वहाँ हम खाली हाथ जाएंगे? कुछ न कुछ तो ले जाना होगा, समधी के लिए एक जरकन की धोती और समधन के लिए अच्छी सी कढ़ाई वाली साड़ी तो ले ही चलना पड़ेगा और जमाई बाबू को कोट पैंट तो जरूरी ही है। बिटिया! बिटिया के लिए भी तो कुछ न कुछ तो चाहिए ही, पहली बार उसके ससुराल जा रहे हैं, सोचिये कहाँ से एतना पैसा अइ ?

अरे तो का घर शादी करैं का परत तो खाली हाथ कइ देइत का ? शादी मा हमरे भारी अरमान रहें, तो वैसे न सही अइसिन सही। पर ऊँ लोग  का हमार समान स्वीकरिहें ?

कहे न करिहें ? अरे भाई हमा बिटिया स्वीकारें हैं

इधर धनेहिया और चरना दहेज में खर्च न हो पाने के अरमान को अब दूसरे माध्यम से पूर्ण कर लेना चाहते हैं और उधर गंगी की सास-ननद को खुश करने की हर कोशिश निष्फल साबित हो रही है। हालाँकि वह सास के पैरों तक अपनी पहुँच बनाने में पहले दिन से ही कामयाब रही है पर घर के सदस्य वाली भावना तो क्या नौकर वाली सहानुभूति भी पाने में नाकामयाब रही। गार्गी तो उससे सीधे मुँह बात भी नहीं करती। रसोई में वह जा नहीं सकती! कोई ढ़ंग से बात कर नहीं रहा! वह इनको कैसे प्रशन्न करे? यह चिंता उसे खाये जा रही है।

इस विषय में वह खुलकर ध्यान से बात नहीं करती और ध्यान को तो जैसे कुछ पता ही न हो। हालाँकि ध्यान उसे प्यार बहुत करता है, उसका पूरा ख्याल रखता है। बाजार से कभी मिठाई तो कभी चाट लाता रहता है। वह उसे खुश रखने की हर कोशिश करता है। एक दिन गंगी ने साहस बटोर कर ध्यान से कह बैठी: ध्यानू मुझे माँ बाबा की बहुत याद आ रही है। क्या हम वहाँ घूमने चल सकते हैं? "नहीं, तुम तो माँ के स्वभाव से परिचित हो ही गयी हो, वह सर में आसमान उठा लेंगी। फिर कुछ सोचते हुए, ऐसा करते हैं, तुम्हारे माँ बाबा को ही यहाँ बुला लेते हैं। मैं व्यवस्था किए देता हूँ।

"नहीं-नहीं बिल्कुल भी नहीं! मैं अपने माँ बाबा की इज़्ज़त नहीं उतरवा सकती। प्लीज ध्यानू ऐसा सोचना भी नहीं। क्या तुम माँ जी को जानते नहीं? और गार्गी का समाज शास्त्र किसी और दुनिया का समाजशास्त्र है। यह भी तुम बखूबी जानते हो। ऐसे में मेरे मम्मी पापा को बुलाने के बारे में आपने सोचा भी कैसे?"

अरे कोई बात नहीं, मेरी माँ जी कितना भी बुरी क्यों न हों, वो दूसरे की बेइज्जती नहीं कर सकतीं।

यह तो मैं देख ही रहीं हूँ गंगी ने मन में सोचा, और वह कुछ भी बोली नहीं। उसका मौन ध्यानू को स्वीकृति प्रतीत हुआ।

उधर चरना ने भरपूर ख़रीददारी की। मन की हर ख्वाइश को पूर्ण कर लेना चाहता है। यह तो भारतीय समाज की परंपरा है कि व्यक्ति जितना छोटा होगा उसकी नाक उतनी ही ऊँची, जिसे वह किसी भी कीमत में कटने नहीं देना चाहता। उसके लिए महाजन के पैर रगड़ने पड़े या देनदार की घुड़की और गाली-गलौज सहन करना पड़ेगा सब करेगा। धनेहिया ने समधन के लिए बूटेदार कढ़ाई वाली साड़ी पसन्द की, गार्गी के लिए मँहगे वाले पटियाला सूट तो चरना ने समधी जी के लिए शानदार धोती-कुर्ता पसंद किया। समस्या जमाई बाबू के सूट में आ गयी, चरना ताउम्र कोट पैंट खरीदना तो दूर, भरपूर नज़रों से देखा भी न था। क्या उनके द्वारा ख़रीदे गए कपड़े संबंधियों को पसंद आएंगे ?

यह शहर का प्रतिष्ठित तो नहीं, लेकिन शानदार बँगला है। जिसके सामने सात फुट ऊँची दीवार से निर्मित बाउंडरी की गई है और इसके ऊपर लोहे की काँटेदार छड़ लगाई गईं हैं, जिससे अनचाहा मेहमान घर में प्रवेश न पा सके। इसमें शाही गेट शोभा पा रहे हैं। गेट के सामने गाँव से आये दंपत्ति खड़े हैं। दंपत्ति में से जो पति है, वह दूध सी सफ़ेद धोती और हल्के गुलाबी रंग का कुर्ता और मटमैला अँगरखा डाले हुए है, फिर भी उसमें आत्मसाहस का अभाव दिखता है। सफ़ेद धोती के नीचे काले पैरों में मेहनत की छाप दूर से ही दिखती है और चप्पल से बेवाइयाँ ऐसे दिख रही हैं मानो छोटा मोटा नाला। हल्के गुलाबी रंग के ऊपर मटमैला अँगरखा चीख़ चीखकर बता रहा है कि धोती कुर्ता तो खरीद लिया गया था पर शायद अँगरखा के लिए पैसे न बचे हों तो पुराना ही डाल लिया गया है। पत्नी नई साड़ी पहनकर, आँखों में मोटा मोटा काजल लगाकर व माथे में बड़ी बिंदी सजाकर भी वह रूप लावण्य नहीं प्राप्त कर पा रही है जो शहरी महिलायें सहज ही पा जाया करती हैं। शायद यह सुंदरता इसलिए न प्राप्त कर पा रही हो मेहनत का रंग इतना पक्का हो गया कि ऊपर का रंग रोगन उससे कोसों दूर भागता हो और फिर वे पुरानी चप्पलें नए साड़ी-ब्लाऊज़ को मुँह तो चिढ़ा ही रहीं हैं।

गेट के उस पार का दृश्य चरना और धनेहिया के साहस को परास्त कर रहे हैं। बारामदे के किनारे पर करीने से सजे सोफ़े और उन पर चढ़ा जिल्द, फर्श पर पड़ा महँगा कालीन उन्हें सोचने को मजबूर कर रहे हैं कि वे अपने मटमैले पैर इस पर किस प्रकार से रखेंगे? कहीं ये गंदे हो गए तो! पर शायद दैव इन पर मेहरबान था। पंडित गायत्री देवी मंदिर गई हुईं थीं और गार्गी कॉलेज। घर पर केवल गंगी और ध्यान मौजूद थे। तभी गेट से खट-खट की आवाज़ आई, गंगी ने खिड़की से देखा तो माँ बाबा सजधजकर तैयार खड़े थे। इतना सजा धजा उन्हें गंगी ने कभी न देख था। वह संकोच में पड़ गयी, अंदर बुलाया जाए या नहीं, कहीं माँ जी आ गईं तो! उसने ध्यानू को इशारा किया। ध्यान दौड़कर गेट खोलने गया, शानदार अभिवादन किया जिसकी धनेहिया और चरना ने कल्पना भी न की थी। गंगी भी सकुचाती हुई बाहर आई। चरना के हाथ में भारी बैग देखकर सोच में पड़ गयी इसमें क्या हो सकता है? उसने ध्यान को इशारा किया, ध्यान ने चरना के हाथ से बैग लेकर वहीं किनारे रख दिया और दोनों से बैठने का आग्रह किया। 

चरना और धनेहिया ने एक दूसरे को देखा फिर अपनी दयनीय दशा को देखा और संकोच में डूब गए। आज तक जिन्हें किसी ने ऊँचे चबूतरे पर बैठने नहीं दिया, उनके लिए शानदार सोफे! धनेहिया तो वहीं कालीन पर ही बैठ गई पर चरना सोफे की तरफ धीरे धीरे पग बढ़ाए। वह बैठने जा ही रहा था कि आवाज़ आई- "ख़बरदार सोफे को छुआ भी तो" वैसे ही तमतमाई पंडित गायत्री चतुर्वेदी पूजा की थाल लिए घर में प्रवेश कीं। उनकी आवाज़ इतना तेज थी कि पूरा घर थर्रा गया। किसी को समझ नहीं आया, धनेहिया झटके से उठ खड़ी हुई। जमाई बाबू को तो 400 वाट का करंट लगा और गंगी दौड़कर घर से बाहर आ गई। तब तक पंडित गायत्री देवी भी सोफे तक आ गईं। धनेहिया को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वैसे कहीं और होती तो वह अब तक तो मुँह नोच ली होती, पर ये तो समधन हैं, इनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए? उसने आगे बढ़कर समधन के पैर छूना चाहा। गायत्री ने पैर खींच लिए और फिर चिल्लाई:-

"मेरे घर के अंदर कदम रखने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? तुम गंदी नाली के कीड़े अपना कबाड़ हमारे घर भेजकर अपनी औकात भूल गए। मैं तुम जैसे लोगों की चालाकियों से खूब वाकिफ़ हूँ, पहले मेरे लड़के को तुम्हारी महारानी ने बहला फुसलाकर पटा लिया फिर उसके पीछे पीछे तुम घुश आये, यह तुम्हारी सोचीं समझी रणनीति है।" और ऐसे ही तमाम पाण्डित्य वचन से चरना और धनेहिया को विभूषित किया। ध्यान माँ को समझाने का असफल प्रयास करता रहा। तभी शोरगुल सुनकर पंडित ज्ञान महोदय भी आ गए, मगर गायत्री का रौद्र रूप देखकर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। यह सब खेल चल ही रह था कि गार्गी भी घर मे तशरीफ़ ले आई। गार्गी के आ जाने से माँ जी का हौसला चार गुना हो गया।

गंगी तेजी के साथ अपने कमरे में गई और एक बैग लेकर आ गई और बोली, चलिए बाबा, यहाँ मेरी गलती की सजा आपको दी जा रही है। और ध्यान से मुखातिब होकर बोली: मैंने पहले ही आपसे मना किया था कि मैं अपने माँ बाबा की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकती, आपको आपकी माँ प्यारी हैं तो मुझे भी मेरे बाबा पर गर्व है। आपको आपका घर मुबारक़, मुझे नहीं चाहिए आपका प्यार जो इतना खोखला है कि माँ के सामने पानी माँगने लगे।

यह सुनकर गायत्री का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया और क्रोधित स्वर में बोली: तो आई ही क्यों थी? भिखारन कहीं की। निकल जा यहाँ से अपने फटीचर माँ बाप को लेकर।

गुस्से, आक्रोश और हताशा की अवस्था में मनुष्य अपनी शुध बुध गवाँ देता है। बड़े से बड़ा संयमी पुरुष भी गुस्से में संयम नहीं रख पाता पर न जाने श्रीमान ध्यान महोदय किस मिट्टी के बने हुए हैं। गंगी घर छोड़कर जा चुकी है, माँ जी का गुस्सा सातवें आसमान पर है और गार्गी के मन में क्या चल रहा है? ध्यान महोदय पकड़ नहीं पा रहे हैं। वैसे गंगी के जाने के बाद किसी का फायदा हुआ हो, न हुआ हो, ध्यान महोदय का नुकसान जरूर हो गया था। गंगी क्लास वन अफ़सर बनने वाली है और गृह त्याग दिया, इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है? ध्यान ने मन में ठान लिया कि वह गंगी को यहाँ लाकर रहेगा। उसने माँ जी और गार्गी को बुलाकर खुलकर बात करना चाहता है। आख़िर उन्हें गंगी से इतनी नफ़रत क्यों है? एकसवीं सदी में छुआछूत जैसा व्यवहार! माना गंगी के बापू नाली सफाई करते हैं, वे गंदे रहते हैं उन्हें न छुआ जाए, पर गंगी तो साफ़ सफाई से रहती है, उसके साथ ऐसा व्यवहार क्यों?

माँ जी सोफ़े के बीचोंबीच बैठी हैं मानो आज की मीटिंग की अध्यक्षता वही कर रहीं हैं। गार्गी भी विचारमग्न है, आज पंड़ित ज्ञान महोदय को भी बुलाया गया है। माँ जी के सामने ध्यान बैठा है। सभी गंभीर मुद्रा धारण किये हैं, प्रतीत होता है विश्वशान्ति पर चर्चा होने वाली है। बात की शुरुआत कहाँ से हो और कौन करे, यह तय नहीं हो पा रहा है। तभी ध्यान ने माँ जी पूँछा: आखिर गंगी में क्या कमी है? आप लोग उसे क्यों स्वीकार करना नहीं चाहते?

वह अछूत है! उसका बाप सफ़ाई का काम करता है। उसके पूर्वज तो मरे हुए जानवर का मांस तक खाते थे। ऐसे खानदान की बेटी को हम अपनी बहू कैसे मान सकते हैं? ये वचन हैं पंडित गायत्री चतुर्वेदी के।

ध्यान: ये तो सच नहीं है। उसके पूर्वजों की वजह से उनसे इतनी नफ़रत हो। अगर मान भी लिया जाए कि वे मांस खाते थे तो इसमें उस बेचारी की क्या गलती। आपके पूर्वजों ने उनसे यह कार्य कराया, तो वे करते थे। कोई शौक से ऐसा नहीं कर सकता है। यह पेट की भूँख है जो ऐसा कार्य कराती है।

गार्गी: हमें उनके पूर्वजों से कोई लेना देना नहीं है पर भैया आप यह मत भूलों कि इनकी वजह से हमारे लोगों को नौकरी नहीं मिल रही। सारी की सारी सीट इनको आरक्षित कर दी गईं हैं। इस वजह से सवर्ण लड़के पढ़-लिखकर बेरोजगार टहल रहे हैं।

माँ: गार्गी बिल्कुल सही कह रही है। आरक्षण समाज के लिए अभिशाप है। यह आरक्षण ही है जो समाज का बंटवारा कर रहा है। अगर इसे हटा दिया जाए तो सामाजिक समानता लाई जा सकती है।

ध्यान: माँ जी और गार्गी आप आरक्षण के विषय में क्या जानते हैं ?

गार्गी: सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति के लड़कों के लिए 15 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों के लिए साढ़े सात फ़ीसदी और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए 27 फीसदी सीटें आरक्षित कर दीं गईं हैं। और हाँ अभी अभी सरकार ने ग़रीब सवर्ण बच्चों को भी 10 फीसदी का आरक्षण प्रदान किया है।

ध्यान: बस इतना ही! अब अगर ध्यान से आरक्षण ज्ञान लेना चाहते हो तो सुनो:- आरक्षण वैसे तो कई तरह से प्रदान किया जाता है पर मुख्यतः दो प्रकार से दिया जाता है। एक वर्टिकल और दूसरा हॉरिजोंटल। हिंदी में कहें तो एक वह जिसे आप कहते हो कि 15, 7.5 और 27% आरक्षण दिया जाता है, जो पहले से ही किसी विभाग के कुल पदों में से तय कर दिया जाता है कि कितने पद किस वर्ग के लिए होंगे। जैसे किसी विभाग में अगर 100 बाबू होने हैं तो 15 बाबू अनुसूचित जाति के, 7 अनुसूचित जनजाति के व 27 बाबू अन्य पिछड़ा वर्ग के होने चाहिए।

गार्गी: तो ये दूसरा जिसे तुम हॉरिजोंटल रिजर्वेशन कह रहे हो, वह क्या है ?

ध्यान: यह कुल रिक्तयों के आधार पर दिया जाता है। जैसे मैंने कहा न कि किसी विभाग में 100 पदों में से पंद्रह, साढ़े सात और सत्ताईस पद इन वर्गों के लिए आरक्षित होंगे। मानलो उसी विभाग में किसी वर्ष 10 रिक्तियां आती हैं तो हो सकता है कि उनमें से कोई भी अनुसूचित जाति के लिए न हों। पर रिक्तयों के आधार पर हॉरिजोंटल आरक्षण के अन्तर्गत उनके हिस्से की रिक्तयां आरक्षित करनी ही पड़ेगी। जैसे केंद्र सरकार के पदों में चार फ़ीसदी का आरक्षण दिव्यांगजनों को दिया जाता है और समूह ग के पदों में 10 फीसदी का आरक्षण पूर्व सैनिकों को दिया जाता है।

गार्गी: ये लो! इन भिखमंगों के अलावा भी बहुत से लोंगों को आरक्षण दिया जाता है। मुझे तो पता ही नहीं था। मम्मा, आपको पता था क्या?

माँ: नहीं मुझे भी नहीं पता था। अच्छा तो ध्यान ये कैसे तय होता है कि किसी विभाग में इस साल कितने पद किस वर्ग से भरे जाएंगे?

ध्यान: हर विभाग में एक रोस्टर रजिस्टर होता है। वर्गों के आरक्षण के अनुपात में रजिस्टर में पहले ही चिन्हित कर लिया जाता है कि कौनसे नंबर का पद कौन से वर्ग से भरा जाएगा। जैसे पहले तीनों विंदु आरक्षित नहीं होंगे लेकिन चौथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित होगा। इसीप्रकार से सातवाँ विंदु अनुसूचित जाति के लिए फिर आठवाँ विंदु पिछड़ा वर्ग के लिए तथा चौदहवाँ विंदु अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होना चाहिए। अब अगर इन विंदुओं पर स्थापित कर्मचारी की पदोन्नति होती या वह रिटायर होता है अर्थात किसी भी प्रकार से विंदु खाली होते हैं तो उस कर्मचारी के स्थान पर उसी वर्ग के कर्मचारी से भरी जानी चाहिए।

गार्गी: तब तो यह एकदम सुव्यवस्थित है। इसका मतलब पहले तीन विंदुओं के सामने सवर्ण लड़कों का ही सेलेक्शन होना चाहिए।

ध्यान: नहीं गार्गी तुम अभी समझने में सफल नहीं हो रही ही। दरअसल पहले तीन पद किसी वर्ग के लिए आरक्षित नहीं हैं, मतलब इनमें किसी भी वर्ग का व्यक्ति जो ज्यादा नम्बर लाएगा, उसका सेलेक्शन किया जाता है, बसर्ते वह किसी तरह का फायदा न लिया हो।

गार्गी: इन वर्गों के लोग फ़ीस का फायदे तो लेते ही हैं, तो इनका सेलेक्शन इनके समक्ष कैसे किया जा सकता है ?

ध्यान: हाँ गार्गी तुम ठीक कहती हो कि ये फीस का फायदा लेते हैं, लेकिन फीस को सरकार फायदा नहीं मानती। फायदे में केवल उम्र सीमा में छूट या परीक्षा के किसी चरण में कट ऑफ में छूट को ही छूट माना जाता है।

माँ: बस इसीलिए मैं कहती हूँ कि ये लोग अपने हिस्से के पदों में तो सेलेक्ट होते ही हैं और हमारे हिस्से की भी खाते हैं।

ध्यान: माँ जी फिर आप गलत दिशा में सोंच रही हैं। पहली बात तो ये पद किसी के लिए भी आरक्षित नहीं हैं जिन्हें आप अपने पद बोल रही हैं दूसरी बात अगर कोई व्यक्ति मेहनत करके आपकी बराबरी करता है तो वह अपने हिस्से का खा रहा है ना कि दूसरे के हिस्से का।

गार्गी: तो फिर ये दिव्यांगजनों और पूर्व-सैनिकों को मिलने वाले पद किसके हिस्से से काटे जाते हैं? जब इनका कोई अलग से आरक्षण नहीं होता और पचास फीसदी आरक्षित वर्गों के लिए सुरक्षित कर दिए गए हैं तो ये लोग तो हमारे हिस्से से ही लेते होंगे!

ध्यान: जी नहीं, इनमें से जो जिस वर्ग का होता है, उसके वर्ग के पद ले जाता है। पहले तो यह स्पष्ट कर दूं कि हाल में प्रदान किये गए आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों के दस फीसदी आरक्षण को छोड़कर बाँकी पचास फीसदी पदों को इन वर्गों के लिए आरक्षित किया गया है। इनमें जिन वर्गों के पद खाली होते हैं उनके समक्ष रिक्तियाँ बनती हैं, इसके अतिरिक्त कुल रिक्तियों में चार फ़ीसदी दिव्यांगजनों को और 10 फीसदी पूर्वसैनिकों को दिया जाता है। इनका एडजस्टमेन्ट सेलेक्शन के बाद होता है। और गार्गी, तुम यह तो मानती ही हो कि सवर्ण बच्चे आरक्षित वर्गों के बच्चों से ज्यादा होशियार होते हैं और इनके नंबर भी उनसे ज्यादा आते हैं। अतः कह सकती हो कि हॉरिजोंटल (क्षैतिज) आरक्षण में सवर्णों के बच्चे ही सेलेक्ट होते हैं। तो यह 14 फीसदी का आरक्षण तो उनके लिए ही हुआ न, जिन्हें तुम अपना बोल रही हो।

गार्गी: क्यों क्या इनमें उनके बच्चे नहीं आते ?

ध्यान: आते क्यों नहीं, पर तुम्हारे अपनों से वे पिछड़ जाते हैं। इसीलिए उनके आने के मौके कम हो जाते हैं।

माँ: तो तेरी बात मान भी लिया जाए तो, पचास फीसदी के अतिरिक्त भी उनके बच्चे सेलेक्ट होकर आते हैं, मतलब हमारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित नहीं है।

ध्यान: वो कैसे?

माँ: जब इन वर्गों के बच्चों को उम्र सीमा में छूट मिलती है तो इनका चयन ज्यादा उम्र में होता है मतलब इनका रिटायरमेंट भी जल्दी होता है। तो इन वर्गों की रिक्तियाँ भी ज्यादा आएंगी।

ध्यान: माँ, सच तो यह है कि सरकारी रिकार्ड के अनुसार इन वर्गों के उपयुक्त अभ्यर्थी नहीं मिल रहे और लाखों में इन वर्गों की बकाया रिक्तियाँ हैं जिन्हें भर लिया जाए तो इन वर्गों के मेधावियों का चयन हो जाये।

गार्गी: तो सरकार इन पदों पर भर्ती क्यों नहीं कर रही ? और सिर्फ इन्ही पदों पर भर्ती करती रही तो, सवर्ण बच्चों को नौकरियाँ कैसे मिलेंगी। सारे विभागों में तो इन्ही का कब्जा हो जाएगा।

ध्यान: गार्गी, सरकार जो भी करती है बहुत सोच समझकर करती है। सरकार इन वर्गों के हितों के साथ सामान्य वर्ग के बच्चों के हितों का भी ख्याल रखती है। इसलिए, जब सामान्य चयन होता है तो उनमें पचास फीसदी से ज्यादा पद आरक्षित वर्गों को नहीं दिए जाते है, भले ही सारे पद उनके कोटे के रिक्त हुए हों। तभी तो इन वर्गों का विशेषतयः पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व पूरा नहीं हो रहा है।

माँ: प्रतिनिधित्व से क्या मतलब ?

ध्यान: प्रतिनिधित्व का मतलब उन वर्गो की पदों में हिस्सेदारी। जैसे सभी पदों में अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए सत्ताईस फीसदी का आरक्षण है तो उनके लोगों को सत्ताईस फ़ीसदी वहाँ पर होना भी चाहिए। जबकि अभी नहीं हैं।

गार्गी: ऐसा क्यों है? जबकि किसी भी नौकरी का परीक्षा परिणाम देखा जाये तो इन वर्गों के लड़कों का ही चयन होता है। प्रायः 35 से 40 फ़ीसदी तक अन्य पिछड़ा वर्ग के लड़कों का ही चयन होता है।

ध्यान: दरअसल गार्गी यह सोच का अंतर है। अन्य पिछड़ा वर्ग के हिस्से की सीट पर सामान्य वर्ग के लोग बैठे हैं क्योंकि 1993 से पहले जो नौकरी में आएं हैं जैसे जैसे रिटायर होते जाते हैं, उन पदों में इन वर्गों के लोगों को समायोजित किया जा रहा है। इस प्रकार से धीरे धीरे सभी का प्रतिनिधित्व पूरा हो जाएगा।

माँ: अच्छा ध्यान एक बात और समझ नहीं आ रही। तुम कह रहे हो कि आरक्षित वर्गों के लाखों पद खाली पड़े हैं, तो सरकारी विभागों में काम कैसे चल रहा है?

ध्यान: माँ जी अब भूख लग रही है। गार्गी आप चाय बनाओ। कुछ खाने को भी लाओ। फिर आपको समझाता हूँ कि विभागों का काम कैसे चल रहा है।

इधर आरक्षण पर विमर्श चल रहा है। उधर यहाँ से जाने के बाद गंगी ने मानो ठान लिया है कि अब वह अपनी जाति नामक चादर को उतार फेंकेगी। उसने चरना से नाली सफ़ाई के कार्य को करने से मना कर दिया। चरना के लिए पैतृक कार्य को छोड़ना असाध्य जान पड़ता है। पर बेटी की हर इच्छा की तरह इस इच्छा को भी उसने पूर्ण कर दिया। उसके पास अपनी कोई खेती नहीं है, उसे मजदूरी नहीं मिल रही है। घर की जमा-पूँजी ख़तम हुई जा रही है। उसके समक्ष दो विकल्प हैं या तो वह अपने पुराने पेशे में लौट जाए या तो शहर का रास्ता पकड़े। उसने दूसरा चुना।

नए शहर में नया माहौल मिला, चरना को रोजगार मिला। वह दीवार की चिनाई में मजदूरी करने लगा और धनेहिया घरों में झाड़ू पोंछा करने लग गई। कुल मिलाकर दो पैसे की जुगत हुई तो गंगी में भी हौसला जाग गया। सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा का परिणाम भी आ गया, जिसमे एक बार फिर गंगी सफल हुई। माँ बाबा की कमाई का कुछ हिस्सा उसने शहर की कोचिंग संस्थान को अर्पण कर दिया और साक्षात्कार के मॉक टेस्ट में प्रवेश ले लिया।

गंगी का हौसला तो नई ऊंचाइयों को छूने लग गया था और इधर ध्यान का आरक्षण पर दिया गया ज्ञान पण्डित जी के घर में कुछ सकारात्मक बदलाव का कारण बनने वाले लगने लगे गए थे। पंडित गायत्री अब गंभीर हो गईं थी, उन्हें यह चिंता खाये जा रही कि सरकारी विभागों में इतने पद रिक्त हैं तो इनका काम कैसे चल रहा होगा? इस विषय में वह गार्गी से विमर्श कर चुकीं थी पर सकारात्मक जवाब नहीं मिल पाया था और ध्यान को उनके पास बैठने की फुर्सत नहीं मिल रही थी। ध्यान रात-दिन इस चिंता में घुला जा रहा है कि गंगी को वापस कैसे लाया जाए, ऐसा भी नहीं है कि उसे गंगी से बहुत प्यार न हो फिर उसकी नौकरी से लगाव तो ज्यादा है ही। वह माँ जी गंगी के विषय में चर्चा नहीं करना चाहता, उसे लग रहा है कि सब कुछ सामान्य होने लगा है, वह घर में फिर तनाव उत्पन्न क्यों करे? लेकिन दैव योग से एक दिन माँ जी और गार्गी ने स्वयं ही उसे छेड़ दिया। गार्गी: भैया सिविल सर्विसेज के मुख्य परीक्षा में परिणाम आ गये हैं, गंगी ने भी तो परीक्षा दी थी। क्या हुआ?

ध्यान: मुझे नहीं पता, अब वह शहर में रहने लगे गयी है। वह मेरा फ़ोन भी तो रिसीव नहीं करती।

माँ: जाने दे ध्यान समय के साथ वह भी पिघल जाएगी। अब जब मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है तो वह भी मान जाएगी। मैं उससे माफ़ी मांग लूँगी। हमने उसे बहुत सताया है। पर ध्यान अभी तुम उस दिन की अधूरी बात तो बताओ, इतनी रिक्तियों के बाउजूद सरकार का काम कैसे चल रहा है?

ध्यान माँ जी की बात से उत्साहित होकर, आज उस दिन का बचा आरक्षण ज्ञान पूरा करने का मन बना लिया। उसे पता था कि आरक्षण के बारे यदि पूर्ण रूप से माँ जी और गार्गी को समझाने में कामयाब रहा तो इनके मन से उन वर्गों के प्रति पाली गई नफ़रत को मिटायया जा सकता है। अतः मन न होने पर भी उसने बताना शुरू किया। माँ जी सरकारी विभागों में कुछ पद तो ऐसे हैं जो खाली पड़े हैं, उनका आज के मशीनीकरण युग में कोई अस्तित्व नहीं है पर सरकार इन पदों को पूरी तरह से ख़तम नहीं कि अतः ये रिक्त पड़े हैं। इनसे सरकार के काम में बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। हाँ, कुछ महत्वपूर्ण पद भी रिक्त हैं जिनसे सरकारी विभागों का कार्य प्रभावित हो रहा है। विशेषकर समूह क के पद। इनमें भी अधिकाँश पद ऐसे हैं जो अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं और इन पदों के समक्ष उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं।

गार्गी: जब इन वर्गों में उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिल रहे तो क्या इन पदों को सामान्य वर्ग से नहीं भरा जा सकता।

ध्यान: भरा जा सकता है। उसके लिए नियम है, जब सरकार को आरक्षित पदों के समक्ष उन वर्गों के उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिलते, इनको भरने के लिए सरकार इन पदों को वी-आरक्षित कर देती है। फिर इनको सामान्य वर्ग से भी भरा जा सकता है।

माँ: यह वी-आरक्षण क्या है?

ध्यान: वीआरक्षण को अंग्रेजी में डी रिजरवेशन कहा जाता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो, जिन पदों के समक्ष आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार आने चाहिए, उन पदों में उनके लिए ताला लगा दिया गया है और इस ताला को खोलना ही वीआरक्षण है।

गार्गी: यह ताला कैसे खुलता है?

ध्यान: साधारणतः वीआरक्षण पूर्णतया प्रतिबंधित है। सीधी भर्ती की रिक्तयों का वीआरक्षण नहीं किया जाता है। लेकिन, अपरिहार्य स्थिति में समूह क और ख में पदोन्नति की रिक्तियाँ जो कि ज्यादा समय तक रिक्त नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इससे सरकारी संस्थाओं के काम में बाधा आ सकती है। संस्थान अपने प्रशासनिक विभाग के माध्यम से कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग और संबंधित अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग को प्रस्ताव भेजते हैं।

ये संस्थान प्रस्ताव पर विचार करते हैं और ये अनुमति प्रदान करने से पहले जाँच करते हैं कि फीडर कैडर में सम्बंधित वर्ग का ऑफिसर कितने दिनों में एलिजिबल होगा। इसके बाद उसका प्रोमोशन कैसे होगा। इन बातों पर विचार करते हुए अनुमति प्रदान करते हैं। तथापि, इनके पूर्व अनुमति से संस्थान का अप्पोइण्टिंग ऑथोरिटी इन पदों को वीआरक्षित कर देता है। फिर ये सामान्य वर्ग से भर लिए जाते हैं।

वाकई आरक्षण ज्ञान माँ गायत्री देवी व समाजशास्त्री गार्गी के लिए परिवर्तन का कारण बन गया। ध्यान का ज्ञान भरा उपदेश सुनकर आज लंबे समय अंतराल के पश्चात गायत्री चतुर्वेदी के आँखों मे आँसू देखे गए और गार्गी तो इतना पिघल गई कि ध्यान को गले लगाकर रोई। उसने ध्यान से गंगी के पास जाकर उससे माफ़ी मांगने को कहा और वह ख़ुद उसके पास चलकर माफी माँगेगी। गायत्री देवी ने भी फोन पर गंगी से माफ़ी माँगा।

स्त्री तो दया की भंडार होती ही है और ज्ञान व्यक्ति को नम्र बना देता है। गंगी में तो दोनों विद्यमान थे। वह स्त्री तो थी ही साथ पढ़-लिखकर नम्रता की उस ऊँचाई को प्राप्त कर लिया था, जिसमें मान-अपमान जैसे बातें तुच्छ हो जाती हैं। उसने पुरानी बातों को भुला दिया, और ध्यान की अर्धांगिनी बनना स्वीकार कर लिया। उसके इस निर्णय से चरना और धनेहिया भी बहुत खुश हुए। सच तो यह है कि धनेहिया ने ही गंगी को समझा बुझाकर ससुराल भेजा।

ठीक दो वर्ष पश्चात, गायत्री देवी भरे पूरे परिवार के साथ आनंदमयी जीवन बिता रहीं हैं। उनकी गोद में ध्यान और गंगी का अंश बालक ध्यांगी के रूप में खेल रहा है। वह कभी कभी पंड़ित गायत्री चतुर्वेदी के सर चढ़कर सूसू कर देता और नाती चढ़े छाती वाली कहावत को चरितार्थ करता है। गंगी अब अपर जिलाधिकारी "गंगी ध्यान चतुर्वेदी" बन गई है। ध्यान गंगी के लिए टिफिन भी तैयार कर देता है। गार्गी अपनी ससुराल चली गयी है। हाँ परिवर्तन नहीं हुआ तो पंड़ित ग्यान चतुर्वेदी के जीवन में। उनकी आज भी वही दशा है जो इस पूरी कहानी में दर्शाई गई है। वह घर के सदस्य तो हैं पर पंडित गायत्री चतुर्वेदी के सामने भीगी बिल्ली हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं। हाँ, वे कभी हँसते दिखे हैं तो बालक ध्यांगी के साथ।


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