Dr. Poonam Verma

Abstract Inspirational

4.8  

Dr. Poonam Verma

Abstract Inspirational

एक सवाल।

एक सवाल।

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वह सुबह की सैर पर निकली थीं। रोज कहाँ निकल पाती हैं? कभी ये काम कभी, वो काम मुँह उठाकर खड़ा हो जाता है या फिर उनका अपना ही मन बाहर नहीं निकलने का कोई ना कोई बहाना ढूँढ लेता है। पार्क में चलते हुए चारों ओर नजरें दौड़ाई।पिछली बार कुछ महीने पहले जब वो यहाँ आई थीं ,तब इतने लोग नहीं दिखे थे  । आज तो लोगों की संख्या कुछ  ज्यादा ही है। स्त्री-पुरुष, बच्चे, युवा, बुजुर्ग हर तरह के लोग थे। 

"तुम्हारी तरह सब बेवकूफ थोड़े ही हैं। अपने स्वास्थ्य का महत्व लोग समझते हैं। एक तुम हो सबका ख्याल रखोगी पर अपना ही नहीं, लेकिन ये सही नहीं कर रही हो अपने साथ। तुम्हें अपना भी ख्याल रखना चाहिए। "

अपने अंदर उठते सलाह के जवाब में वो दृढ़ निश्चय के साथ बड़े- बड़े डग मारकर तेजी से चलने लगीं।  

सुबह की धूप और हल्की-हल्की बहती हुई ठंडी हवा, सब कुछ कितना अच्छा लग रहा था? 

चलते हुए उनका ध्यान अपनी परछाई पर गया, जो उनके साथ-साथ चल रही थी। मन मचलकर बचपन में पहुंच गया। परछाई पर पैर रखते हुए, वह गिनने लगीं "-दो, तीन, चार, पाँच ---

उस दिन स्कूल से मिले' होमवर्क' करने में वह तल्लीनता से लगी हुई थीं। तभी बैलून वाले का तेज स्वर सुनाई पड़ा। बैलून ले लो बैलून ---- बैलून वाले की आवाज सुनते ही खुशी और उमंग से भर उठी, लेकिन अगले पल अपनी खुशी को दबाते हुए वह बहरी बन गईं। "क्या फायदा खुश होने से? खरीदने के लिए पैसा तो मिलने से रहा।"

 परन्तु यह समझदारी उनकी, अपनी हम उम्र प्रिया की आवाज जो पड़ोस में रहती थी, कि सुनते ही गायब हो गई। किताब कॉपी को बंद करने में भी वक्त बर्बाद करना फिजूल था। वो तेजी से दरवाजे की ओर बाहर जाने के लिए भागी।  बाहर जाकर देखा रंग-बिरंगी बैलून को लाठी से बाँधे बैलून वाला खड़ा है और प्रिया लाल रंग की बैलून का धागे को हाथ में लेकर ठीक से पकड़ने की कोशिश कर रही है। 

मन ही मन नीले रंग के बैलून को उन्होंने पसंद कर बेसब्र होकर अंदर भागते हुए इशारे से बैलून वाले को रुकने के लिए कहा। पैसे शायद ही मिलेंगे यह पता था, लेकिन उम्मीद ने कोशिश करने के लिए उकसाया। कभी-कभार मूड ठीक होने पर पैसा मिल भी जाता था। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।  उम्मीद तो टूटी ही साथ में पैसे के बदले नश्वरता का पाठ सुनने के लिए मिला _

 "बैलून खरीदकर क्या होगा? फालतू में पैसे की बर्बादी बैलून कुछ ही देर में फूट जाएगा।" नश्वरता के इस पाठ को अनसुनी करते वह बैलून लेने की अपनी बात पर अड़ी रहीं। 

"बहुत जिद करने लगी हो, लड़कियों का जिद्दी होना ठीक बात नहीं है।"

रुआँसी  होते हुए वह बोलीं "प्रिया ने भी तो बैलून खरीदा है।"

"तो क्या ?अगर प्रिया कुएँ में कूद जाएगी, तो तुम भी कुएँ में कूद जाओगी?"

 वह बोलना चाहती थी, "ऐसे तो हमेशा प्रिया में खूब सारी खूबियाँ देखी जाती है। उससे मेरी तुलना करके मुझमें बुराइयाँ और उसमें अच्छाइयाँ ही अच्छाइयाँ देखी जाती है। लेकिन प्रिया को कितना प्यार मिलता है ?यह नहीं दिखता। बैलून से कितने मजे से खेल रही हो होगी। बहुत गुस्सा आ रहा था उन्हें, फिर भी हर बार की तरह इस बार भी कुछ नहीं बोलीं। 

तभी बैलून वाले ने जोर की आवाज लगाई। ''बैलून-बैलून ले लो।"वो समझ गई यह आवाज उन्हें बुलाने के लिए लगाया जा रहा है। वह उसे रुकने के लिए जो, बोलकर आई थीं। 

आँसुओं भरी आँखों के साथ पैर पटककर वह बोलीं "चला जाएगा दो ना पैसे।

""कहाँ है ? बैलून वाला जानता है। इधर बच्चे रहते हैं, फिर भी परेशान करने आ जाता है।  ऐसा डांट लगाऊंगी, कि इधर का रास्ता ही भूल जाएगा।" 

वो सहम गईं। उनके कारण बेवजह बेचारे बैलून वाले को को डांट पड़ जाएगी। लेकिन बाहर बैलून वाला नहीं था। अच्छा हुआ डांट पड़ने से पहले वह चला गया।

"बैलून वाला चला गया। अब चलो अंदर कितना काम पड़ा हुआ है? ये नहीं, कि काम में मदद करें। बस फरमाइश कभी ये, तो कभी वो। "

 बैलून हाथों में लिए प्रिया को अपनी ओर मुस्कुरातेे देख गुस्से से बोलीं "नहीं करूँगी मैं कोई काम और अंदर भी नहीं जाऊंगी। यहीं खड़ी रहूंगी। "

"  हे भगवान इसके एक भी लक्षण लड़कियों वाले नहीं है। गुस्सा तो पूछो ही मत ,किसी से कैसे  निभाएगी? बड़बड़ाहट शुरू हो गया। 

उधर वो भी भगवान  से कह रही थीं ,  भगवान उन्हेे जल्दी से बड़ा कर दे। फिर उनके पास भी ढेर सारे पैसे होंगे और वह भी अपनी पसंद की एक नहीं कई बैलून खरीदेगी।  

 लेकिन अभी क्या करें? मायूसी के साथ सोचते हुए, इधर- उधर देख रही थीं कि, धूप के कारण बनती -बिगड़ती परछाइयों पर नजरें पड़ी, सब भूल अपनी परछाइयों पर पैर रखकर गिनती करते हुए, इधर-उधर भागने लगीं। 

"दो तीन चार पाँच ---- "

 प्रिया पास आकर बोली "तुम्हें बैलून चाहिए, चलो मिलकर बैलून से खेलते हैं। "

उन्होंने उपेक्षा करते हुए, एक शब्द भी नहीं बोला और खेलती रहीं। 

प्रिया ने मनाने के अंदाज में फिर से कहा "चलो ना मिलकर खेलते हैं। "

 इस बार वह बोलीं "एक बार कह रही हूँ। ध्यान से सुन लो नहीं खेलना है, तुम्हारे साथ। "

"लेकिन क्यों ? "प्रिया ने मायूस होकर पूछा

 "क्यों क्या ?पहले तो अपनी बैलून देकर साथ में खेलोगी और बाद में अपने उपकार को याद करवाओगी।"

 "उपकार कैसा ?तुम भी तो मेरा होमवर्क करने में मदद करती हो।"

 'होमवर्क 'सुनते ही एकदम से याद आया, अरे होमवर्क तो पूरा किया ही नहीं। टीचर सजा देकर सबसे पीछे वाली सीट पर बिठा देंगी। पीछे वाली सीट पर बैठना। उन्हें कतई मंजूर नहीं था। वो होमवर्क करने के लिए भागी।  

"कहां भागी जा रही हो। काम नहीं करना है क्या "?

"नहीं अभी पढ़ाई करने जा रहीं हूँ। 

"पढ़कर तो कलेक्टर ही बन जाओगी। काम से बचने के बहाने खूब आते हैं।" 

भागते हुए दीवार पर टंगे घड़ी में टाइम देखने की कोशिश में वह स्टडी टेबल से टकराई।

'आह'

'सारी' बोलते हुए कोई टकराया, तो ख्यालों से बाहर निकलकर देखा-

सामने एक लड़की हाथ में फोन लिए किसी से कह रही है। "हाँ जल्दी आओ।"

 फिर फोन बन्द कर पर्स में रखते हुए, चिंतित स्वर में उस लड़की ने उनसे पूछा, "आंटी आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या? 

"ठीक है" संक्षिप्त सा जबाब उन्होंने दिया। 

 तो, फिर आप कभी इधर कभी उधर होते हुए लहराकर क्यों चल रही थीं? 

वो जवाब देने के बजाय सोचने लगीं। ये आज के युवा भी ना अजनबियों से भी कितने अपनापन से बात करते है।

 "सामने बेंच है, चलिए वहाँ बैठते हैं, जबरदस्ती सहारा देते हुए। वह लड़की उन्हें बेंच तक ले गई। 

अनजान मासूम से चेहरे वाली, वह लड़की उन्हें समझाने लगी "आपको अकेले वाक पर नहीं आना चाहिए। अभी मैं अपने जिस दोस्त से फोन पर बात कर रही थी, उसका नाम संकल्प है। पता है, उसके पापा के साथ क्या हुआ था ?वह मॉर्निंग वॉक पर गए और वहीं बेहोश होकर गिर गए। हार्ट अटैक हुआ और उनकी जान चली गई। ऐसे में बहुत ही कम उम्र में बेचारे संकल्प के कंधे पर पूरे परिवार की जिम्मेदारियां आ गई। उससे छोटी उसकी दो बहनों को पढ़ाना-लिखाना ही नहीं, बल्कि शादी भी उसे ही करनी होगी। वह अपनी बहनों को बहुत प्यार करता है। अच्छा भाई ही नहीं बहुत अच्छा इंसान भी है। भगवान अच्छे लोगों को ही दुख क्यों देते हैं?"

 इतना कहकर कुछ क्षण के लिए  चुप  हुई और फिर बोलना  शुरू  किया 

 "वैसे है ,तो वह मेरा दोस्त;लेकिन मेरा कोई भाई नहीं है , उसके कारण ये कमी भी महसूस नहीं होती ।मैं उसे और  वह मुझे अपने सारे सुख-दुख की बातें बताता है। रिश्तों के बेगानेपन से उसे सबसे ज्यादा दुख पहुंचता है। मैं हमेशा समझाती हूँ। दूसरों की परवाह करके अपने आपको क्यों परेशान करना ?मैं तो किसी की परवाह नहीं करती। मैं जैसी भी हूँ ,अच्छी हूँ ;बुरी हूँ अपने लिए हूँ।

सही है, कि नहीं मेरा ऐसा सोचना?

 अब तक लगातार बोलती हुई, पहली बार उन्हें बोलने का मौका दे रही थी। उसकी सरलता देख एक प्यार भरी मुस्कान के साथ उन्होंने कहां "हां तुम्हारा सोचना बिल्कुल सही है।"

यह सुनकर खुशी मिश्रित तसल्ली का भाव से उस लड़की  का चेहरा चमक उठा।

फिर उन्हें गौर से देखती वह बोली "एक बात बताऊँ। आप बहुत अच्छी हैं। " 

 "अभी तो हम मिले हैं ।इतनी जल्दी मैं तुम्हारी समझ में कैसे आ गई?" जितने रूखेपन से उन्होंने पूछा।" वह उस से अधिक ढिठाई के साथ बोली "मैं तो लोगों को देखते ही पहचान जाती हूं। कौन कैसा है?"

तभी उसकी फोन बजने लगी। फोन उठाकर बोली "कहाँ हो? ठीक है, वहीं रहना। दो मिनट में आती हूँ।"  फिर फोन मुंह से थोड़ा सा अलग करके मुस्कुरा कर हाथ हिलाकर कहा, "बाय आंटी " 

 जवाब में उन्होंने भी हाथ हिला दिया था।

 सुबह- सवेरे  उनके बाहर निकल आने के कारण किस-किस को क्या -क्या परेशानी हो रही होंगी? यह ख्याल आते ही अकुलाहट सी होने लगी। उन्होंने स्वयं को समझाया  कौन सा रोज- रोज निकलती हैं ? कुछ देर और रुक तो सकती हैं।  

 अकेली बस वही बैठी थीं पूरी बेंच पर। कमर में जकड़न और पैरों को लटकाकर बैठने से पैरों में भारीपन जैसा लगने लगा, तो पैरों को उठाया और  पालथी मारकर बैठ गई। कोई देखेगा तो क्या सोचेगा ? कितनी फूहङ तरीके से बैठी हैं? सोचने दो जिसे जो सोचना है ।उन्हें तोआराम लग रहा है। इस तरह  बैठने में। उस लड़की ने कितने आत्मविश्वास और स्थिरता के साथ कहा था," मैं किसी की परवाह नहीं करती।" 

वह विचारों के प्रवाह में बहने लगी।  बचपन में वह कितनी स्पष्ट बोलने वाली और निडर थी। उनके इस स्वभाव के कारण होने वाली टिका- टिप्पणी  से बचने के लिए अपने स्वभाव के विपरीत चुप्पी, सहनशीलता और समझदारी का कवच पहन स्वयं को नियंत्रित करते-करते अपने जीवन यात्रा में कब और कैसे बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होती चली गई पता ही नहीं चला। 

अब भी  भले ही  वह बाहर से स्वयं को शांत दिखाती है पर अपने अंदर एक सुलगती हुई चिंगारी उन्हें हमेशा बेचैन किए रहता है । यह चिंगारी शायद कभी उनके भीतर जो एक आग  जिसकी कोई परछाई नहीं होती, उसी का जैसे बाकी बचा अंश था।

चाय -चाय की आवाज से चाय पीने की इच्छा उनके अंदर जाग उठी। चाय वाला को इशारे से बुलाया उसके पास नींबू चाय है। यह जानकार अधिक खुश होतीं हुईं वह बोलीं " एक चाय दे दो" प्लास्टिक की बड़ी मुश्किल से पकड़े जाने लायक छोटसे कप में चाय उड़ेलकर उसने उन्हें थमा दिया ।

चाय का कप बेंच पर रखकर पूछा "कितना हुआ?"

"पांच रुपये मैडम" 

खुदरा पैसा पर्स के जिस हिस्से में रखतीं थी ,ढूंढने लगीं। वहाँ दस-दस के कुछ रुपये मिलें। उन्होंने एक दस का रुपया निकालकर चाय वाले को दिया। 

"मैडम मेरे पास खुल्ले नहीं हैं। अभी- अभी तो शुरू ही किया बेचना।" 

"मेरे पास  भी इससे कम का नोट नहीं है" उन्होंने कहा

"ऐसा कीजिए आप एक और चाय ले लीजिए। एक कप में रहता ही कितना चाय है ? " चाय वाले के कहने पर वह बोलीं "कोई बात नहीं बाकी तुम रख लो ।मुझे एक और चाय नहीं चाहिए।" 


 तभी हाथ में कुछ सिक्कों को  उछालते हुए भिखारी ने उनके पास आकर भीख के लिए हाथ फैला दिया। 

 वो उस भिखारी से कुछ बोलती इससे पहले चाय वाला बोला "मैडम इसे पैसे मत दीजिएगा। यह भीख मांगकर पैसों से जुआ खेलता है।"

"ठीक है, तो तू ही अपनी तरफ से पिला दे" चाय वाले से भिखारी ने बोला था।

"हाँ ये ले मुफ्त की चाय और निकल यहाँ से" चाय वाले ने डांट लगाते हुए कहा। 

बेशर्मी के साथ हंसते हुए चाय का कप लेते उस भिखारी को देखकर उन्हें कहने की इच्छा हुई " काम तो भीख मांगने का कर रहे हो ,लेकिन शौक महाराजाओं वाले पाल रखे हो। गलत हो कैसे कह दूँ। धर्मराज को किसी ने जुआ खेलने के लिए गलत ठहराया क्या? ऐसी विरासत को संभालना कोई  साधारण खेल नहीं।होशियार भी लगते हो ।धर्मराज यानि बड़े भाई  ने तो अपने राजपाट के साथ-साथ अपने छोटे भाइयों और पत्नी को भी जुआ में दांव पर लगा दिया। तुम तो दूसरों का ही पैसा  दांव पर लगाते हो। 

भिखारी से उलझना छोड़ झुके हुए कन्धों पर बड़ा सा थैला लिए कचरा चुनने वाला को देखकर ,जो थोड़ी दूरी पर था चाय वाला चिल्लाया "इधर सुनना भाई " 

"क्यों बुलाया?" कचरे चुनने वाले ने पास आ पूछा 

 तुझसे काम था। नया स्मार्टफोन लेना है। तेरा वाला मुझे बहुत पसंद आया था। कैसा काम कर रहा है ?चायवाले के पूछने पर 

" जब से लिया टकाटक काम कर रहा है। " अपने जेब से स्मार्टफोन निकालते हुए कचरेवाले ने आंखों से अजीब सा इशारा करते हुए पूछा "तेरे पास तो फोन है ना, फिर क्यों ले रहे हो ?"

ये लोग जब सामान्य बातचीत की  जगह इशारेबाजी के साथ  आपस में बातें करने लगें तो, उन्हें वहां बैठना मुश्किल लगने लगा। ये सारे 'बिजनेस मैनेजर'जाने कब तक ऐसे ही बातें करते रहेंगे। ऐसे भी जमाना और भविष्य भी इन्हीं लोगों का है। कब राहु ,शनि महाराज राजयोग  वाली कृपा हो जाए और ये सत्ता के शीर्ष पर पहुंच जाएं कौन जानता है ? सोशल मीडिया और ग्लोबलाइजेशन के इस समय में  लोग भृगु और वराहमिहिर जिन्होंने ज्योतिष यानी 'वेदों का आंख 'कहे जाने वाले ज्ञान को दिया भले ही नहीं जानते हो ,लेकिन संभावनाओं वाली ऐसी भविष्यवाणियों करने वाले अनगिनत देशी के साथ-साथ विदेशी भविष्यवक्ताओ जैसे नास्त्रेदमस और वेगा  बाबा  ' तोता उवाच'को खूब जानते  हैं।  

थोड़ी दूर पर जो बेंच था। वहाँ बैठी महिला के पास खाली जगह पर जाकर वह बैठ गईं। उन्होंनें देखा महिला के गोद में एक साल से कम उम्र का एक बच्चा है। जिसे वह फोन को खिलौना बना बहला -फुसलाकर खाना खिला रही है। फोन से निकलने वाली चमक बच्चे के चेहरे पर उन्हें स्पष्ट दिख रहा था। इस महिला को नहीं दिख रहा है क्या? यह रेडिएशन बच्चे के लिए कितनी ख़तरनाक हो सकती है। 

 यहां तो सभी वैसे ही हैं ।उनकी नजरें पार्क में घूमने लगीं। कितने सारे लोग लगभग सबके हाथ में स्मार्टफोन और सबकी गरदन झुकी हुई। यह स्मार्टफोन सबके लिए क्या बन गया है ? जरूरत, मजबूरी या नशा।लोग इसका दुष्प्रभाव क्यों नहीं समझ रहे ? लोगों को समझाएगा कौन ? सवाल उनके पास था। जवाब नहीं।

घूमते -घूमते उनकी नजरें उस पेड़ पर  गई ।जिस पर लाल रंग के फूल लगे थे। फूलों के बीच एक मिश्रित रंग वाली चिड़िया इधर से उधर फुदक रही थी। उसकी चपलता और क्रियाकलाप देख वह मुस्कुरा उठीं।


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