लक्खु जी।
लक्खु जी।
दुकानदार के पूछने पर क्या चाहिए? उनकी आंखों के सामने स्वाभिमान से भरे पिता का बोलता हुआ चेहरा आ गया था" ये मेरे बच्चे हैं। चवन्नी -चवन्नी जोड़कर भी अपनी जिम्मेदारियाँ निभाऊंगा, लेकिन किसी रिश्तेदार के पास इन्हें नहीं भेजूंगा । "
अपने पैसे से पिताजी के लिए ही सबसे पहले खरीदेंगे ।यह निर्णय लेकर कुछ देर दुकान में रखे सामानों को ध्यान से देखने के बाद उन्होंने दुकानदार को किंग्सन पेन देने के लिए कहा? हालांकि मन में डर भी था ।इतनी महंगी पेन पिताजी को देंगे तो, वह उन्हें डांटेंगे और उनका डर सही भी साबित हुआ था। जब वह पेन देने लगे तब पिताजी ने रूखी आवाज में डांटते पूछा था
" यह मुझे क्यों दे रहे हो?" पहले से सोचा हुआ क्या -क्या बोलना है। वह सब भूल गए थे ।मां ने स्थिति को संभालते हुए बोला था" इसे बीस रुपया कुछ लिखकर मिला है। इसलिए आपके लिए कलम खरीद के लाया है। "
अविश्वास से भरे पिताजी के चेहरे को देखकर सारी बातें बताने के बाद माँ यह कहना नहीं भूली थी। "इसने अपने लिए और किसी के लिए कुछ नहीं खरीदा इतनी मार पिटाई आपसे खाता है ।इसके बावजूद आपके लिए ही खरीदा है और आप है ,कि इसे डांट रहे हैं। "
भाव विह्वल होकर पिताजी प्यार से उन्हें अपने से लगाते हुए दोनों बड़े भाईयों और छोटी बहन से बोले "देखो यह है ,मेरा असली बेटा होनहार और इतना जिम्मेदार ।एक दिन बड़ा आदमी जरूर बनेगा ।"
पिताजी का उन्हें पास बुला कर अपने से लगाना और सबके सामने हीरो बनाना ,उनके घर के सभी सदस्यों के लिए आश्चर्यचकित करने वाली घटना थी। ऐसा इसलिए, कि पड़ोसी लक्खु चाचा से घृणा करने के कारण पिताजी से उन्हें कभी प्यार नहीं , बल्कि हमेशा प्रताड़ना और उपेक्षा मिली थी। पिताजी की कुटने वाले तरीके से पिटाई करते देख माताजी का कलेजा फट जाता ।अपने चारों बच्चों में सबसे सुंदर बच्चे की खराब भाग्य पर बहते आंख -नाक के साथ लक्खु सिंह को खूब कोसती ।
बच्चे भी एकमत से लक्खुचाचा को ही गलत मानते थे। जब उन्हें मैट्रिक से लेकर बी.ए तक पिताजी से ज्यादा अंक नहीं मिला था। तो खिला- पिला के प्रमोशन लेने की क्या जरूरत थी? अच्छी -भली दोस्ती बदल गई दुश्मनी में । पिताजी गुस्से में अक्सर बताते रहते हैं।वह योग्यता में ही नहीं उम्र में भी बड़े हैं पड़ोसी और ऑफिस में साथ काम करने वाले लक्खू चाचा से ,लेकिन उनके भीतर उनके जैसी चालाकियां नहीं है। बस गधा की तरह खटते ही रह गए।
उनके नीचे काम करने वाले वह लक्खुआ तिकड़म लगाकर लगातार प्रमोशन ले लेता है। उस दिन लक्खु चाचा का सीनियर बनने के बाद उन्हें 'सर" बोलना यह बात पिताजी के अहम पर असहनीय चोट लगाई थी ।उस चोट से कराहते हुए ,जब वह घर पहुंचे तो ,माँ भी प्रसव पीड़ा से कराह रही थी। थोड़ी देर बाद वह आए थे ,दुनिया में पिताजी का मान बढ़ाने पुत्र बनकर ,लेकिन अपमान से तिलमिलाए पिताजी जन्म से ही उन्हें अभागा मानते हुए ,अपने कॉन्शियस माइंड और अनकॉन्शियस माइंड के मिले सुझाव का पालन कर, उनके जन्म के कुछ ही घंटों के भीतर शीघ्र 'अतिशीघ्र उनका नामकरण कर दिया "लक्खु" । पड़ोसी लक्खु सिंह पुत्र लक्खु उपाध्याय उर्फ लक्खुआ। नवजात लक्खु के बारे में कोई भी बात माँ से करते , तो ऊंची आवाज में जोर से सुनाते हुए लक्खुआ बोलकर ही करते ।जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगे ,पिताजी का क्रोध उनपर अलग-अलग तरीका से निकलने लगा ।भोंदू लक्खुआ ,बेवकूफ लक्खुआ , पुकारे जाने के साथ- साथ कभी कनपटी गरम किया जाता तो, कभी चुरकी पकड़कर गाल लाल किया जाता। एक दिन उनके सिर के बालों को पकड़कर बेरहमी से खींचते देखकर माँ सिर पर बाल बड़ा होने से पहले ही उतरवाने लगी। जब उन्हें मालूम हुआ, उनके प्यारे बेटा को सारे हमउम्र बच्चे मुरलीबटेर बेलमुंडा और टकलू बोलकर चिढ़ाते हैं ।कई बार घर छोड़कर बेटे के साथ कहीं चले जाने की धमकी देने के बावजूद नहीं सुधरने वाले पति को समझाने की बात तो बिल्कुल बेकार थी। इसलिए प्यार से उन्हीं को समझाते हुए कहती
"बोलने दो बोलने वाले का मुंह थोड़े ही पकड़ा जाता है। बोलते- बोलते थक जाएंगे तो बोलना छोड़ देंगे ।
उनके साथ उस दिन नाई का सैलून बंद होने परेशान वापस लौटते हुए ,बाजार में पटरी पर एक चंदन टीका लगाए हुए लोगों का हाथ देखने वाले व्यक्ति पड़ी तो, वह रूक गई ।कुछ और लोग भी हाथ दिखा रहे थे। लोगों के हटने पर वह उनकी हथेली फैलाकर हाथ देखने वाले को हाथ देखने के लिए बोली। थोड़ी देर उनकी हथेलियों को उलट-पुलट कर देखने के बाद वह बोला " आप तो बड़ी ही भाग्यशाली है आपका बेटा नोटों की बिछावन और तकिया पर आपको सुलाएगा"
"जान बचेगा तब ना "चिढ़कर बोलने के बाद माँ ने सारी परेशानी बताकर उपाय पूछा ।
फिर से हथेलियों को देखने के बाद वह बोला" बच्चे के हाथ में सूर्य रेखा खराब है। इसलिए इसे पिता से कष्ट मिल रहा है। यदि सुबह-सुबह यह तांबे के लोटे में जल के साथ गुड़ मिलाकर सूर्य देवता को प्रतिदिन अर्ध्य दे, तो इसे कष्ट से मुक्ति मिल सकती है।"
"ऐसा होगा?" अत्यंत निरीह होकर माँ ने पूछा था।
"विश्वासम् फलदायकम् ,भगवान पर भरोसा रखिए ;सब ठीक हो जाएगा। यह सुनकर माँ के चेहरे पर संतुष्टि दिखी । अगले दिन सुबह-सुबह माँ ने तांबे के लोटा में पानी और गुड डालकर जल चढ़ाने के लिए दिया। लेकिन उन्होंने जल चढ़ाने के लिए जैसे ही बरामदे का दरवाजा खोला। सामने से पड़ोसी लक्खु चाचा जा रहे थे। उनके पीछे से पिताजी भी निकल रहे थे। बरामदे में जाते हुए लक्खु चाचा को देखकर पिताजी खींचकर एक तमाचा उन्हें लगाते हुए बोले " दरवाजा खोलकर क्या कर रहे हो? सुबह- सुबह मनहूस दिख गया । आज होने वाली जरूरी मीटिंग के साथ-साथ पूरा दिन खराब जाएगा ।फिर उनके हाथ को पीठ के पीछे लगाकर पीठ पर मुक्का बरसाने लगे।
जैसे लगातार वैक्सीन के डोज से इम्यून सिस्टम मजबूत हो जाता है ।वैसे ही शायद पीठ भी मजबूत हो गया था ,क्योंकि उन्हें पीठ में उतना दर्द नही हो रहा था जितना कि उमेठ कर मोड़े हुए हाथ में दर्द हो रहा था । दर्द से बिलबिलाकर रोने लगे , तो मां लपककर बढ़ी और पिताजी से उनको छुड़ाने की प्रयास करते हुए पास खड़ी छोटी बहन से बोली टुकुर -टुकुर तमाशा क्या देख रही हो ?जल्दी से जाकर दरवाजा बन्द करो। माँ उन्हें बचाने के साथ-साथ उनके हाथ में कितना दर्द हो रहा है ?यह भी महसूस करा रही थी। पिताजी फिर भी पिटाई किए ही जा रहे थे।
तब नौ महीना पेट में रखकर सारे कष्ट झेलकर जन्म देने का असहनीय दर्द उन्होंने सहा है। उन्हें कैसा लगता है? अपने बच्चे को पिटते देखकर यह कहकर भी रोकने की कोशिश की, लेकिन फिर भी वह नहीं रुके ,तो अंतिम ब्रह्मास्त्र रूप में पिताजी के परिवार को माँ ने कोसना प्रारंभ कर दिया। इसका तुरंत असर हुआ ।पिताजी मारना छोड़ कर बोले
"आज जल्दी जाना भी है।मैं तैयार होने जा रहा हूं। कम से कम टाइम पर मीटिंग में पहुंच जाऊं। अब जो हो ।
मां भी चेहरे से चिंतित दिख रही थीं फिर भी पिताजी को समझाते हुए बोलीं ।
ऐसा -वैसा कुछ भी नहीं होगा दही चूड़ा खाकर जाइए । सब ठीक ही होगा।
गहरी सांस लेकर पिताजी तैयार होने के लिए चले गए ।माताजी ने उन्हें दस रुपया देकर कहा बाजार से दही ले आए।
दही लाने के लिए निकलते हुए उनकी नजर छोटी बहन पड़ी। जो उन्हीं की ओर मुस्कुराते हुए देख रही थी। चिढ़ा रही है।इसको सबक सिखाना ही पड़ेगा। लेकिन कैसे यह सोच ही रहे थे , कि माँ ने बहन को डांटते हुए बोला ।" खड़ी होकर दांत क्या निकाल रही है ?जाओ चूड़ा का डब्बा निकालो। "बहन को डांट पड़ी तो उसके चेहरे पर आए खिसिआहट को देखकर मन एकदम से खुश हो गया ।
घर से निकलकर कुछ ही दूर गये थे, कि लक्खु चाचा रास्ते में आते हुए दिख गये। इनके कारण ही मेरी पिटाई होती है आज तो इन्होंने देख भी लिया। अपमानित सा महसूस करते हुए बदला लेने की सोचने लगे तुरंत ही मस्तिष्क में एक आइडिया आया। वह सड़क के किनारे लगे सबसे बड़े पेड़ के पीछे छुपकर उनके नजदीक आने का इंतजार करने लगे। मन में हालांकि थोड़ा सा डर भी था ,कि वो जो करने जा रहे हैं। वह ठीक है ,भी या नहीं फिर भी अपने डर को नियंत्रित करते हुए। वह जोर से बोले थे "लखुआ " बोलकर क्या असर हुआ ये देखने लगे। गुस्से में तिलमिलाये लक्खु चाचा का चेहरा देख मजा लेने के लिए एक बार और बोले । उस दिन से उनके लिए अब यह एक मजेदार खेल बन गया था। वो इंतजार करते ,कि कब लक्खु चाचा बाहर निकले और वो उन्हें परेशान करे। लेकिन यह खेल ज्यादा दिन नहीं चला ।एक दिन लक्खु चाचा ने उन्हें पकड़ा और खींचते हुए हुए, उनके घर ले आए और माँ को खूब खरी -खोटी सुना ही रहे थे ,कि पिताजी आते दिखे। पिताजी को देखते ही लक्खु चाचा चुपचाप सीधे हो लिए और उनके अंदर आने के पहले ही माँ ने उन्हें जल्दी से स्टोर रूम में छुप जाने के लिए बोला। स्टोर रूम में छुपकर वो सुन रहे थे।
पिताजी ने पूछा "ये लखुआ यहां क्या कर रहा था? मां उन्हें बचाने के लिए बात टालना चाह रही थी ।लेकिन छोटी बहन ने सारी सच्चाई बता दी। पिताजी नाराजगी के साथ बोले "ऐसा करना ठीक नहीं है। अपने से बड़ों का सम्मान करना चाहिए। कहाँ है वह दिखाई नहीं दे रहा। "इतना बोलने के बाद वह शांत हो गए थे। इतनी जल्दी शांति इसका मतलब है, कि पिताजी को बहुत बुरा लगा है। ऐसा पहले भी हो चुका था ।एक बार की बात है मकर संक्रांति में उनके कुछ मित्र बाजार में मिल गए तो , वह उन्हें घर ले आए । आते ही उन्होंने खोवा वाला तिलकुट जो केवल मकर संक्रांति में ही आता था ।उन लोगों को निकालकर देने के लिए मां को बोला।
माँ लकड़ी की एक छोटी सी आलमारी में खास मौके के लिए खाने के लिए लाई गई चीजों को बच्चों से बचाने के लिए ताला में बंद करके रखती थी । तिलकुट को भी उसी में रखा था ।लेकिन बच्चों ने आपस में समझौता जब मां सो रही थी।उनके आंचल के गांठ में बंधी कुंजी जिसे बड़ी मुश्किल से निकाल पाए थे ऐसा करते हुए बच्चों के मन में सवाल भी उठा था ।मां अपने आंचल में अलग-अलग कारणों से जैसे बच्चा बीमार हो तो, स्वस्थ होने के लिए लगाई गई गांठ, कुछ मूल्यवान चीज खो जाए तो मिल जाए यह सोचकर लगाई गई गांठ या फिर खुदरा पैसे जिसे वह गांठ में बांधकर रखती है। इतनी आसानी कैसे से खोल लेती है? कुंजी मिलते ही कुंजी से अलमारी का ताला खोलकर उन लोगों ने सारे तिलकुट चट कर दिए। तिलकुट नहीं होने के कारण पिताजी को अपने मित्रों सामने शर्मिंदा होना पड़ा ।डर से सारे बच्चे छुप गए थे। लेकिन पिताजी ने सबको निकालकर अपने सामने बिठाकर डांटा नहीं ,बल्कि समझाया था "सब्र करना चाहिए ।तुम ही लोग के लिए तिलकुट आया था ।"फिर उदास होकर मां से बोले थे ।क्या करेंगे बच्चे है ?"मैं ही नहीं पूरा कर पाता खाने की चीज ही ,तो इन लोगों ने खाया है।" इस घटना के बाद उन लोगों की बिना पूछे कोई भी चीज खाने की कभी भी हिम्मत नहीं हुई। वह मन ही मन संकल्प ले रहे थे लक्खु चाचा को अब नहीं चिढ़ाएंगे ।
सामानों के बीच बैठे रहना उनके लिए मुश्किल होने लगा। वैसे भी उनका स्वभाव एक जगह टिककर बैठने वाला नहीं था। इधर- उधर पङे पत्र-पत्रिकाओं के बंडल को निकालकर देखने लगे। माँ इन पत्रिकाओं से ठोंगा बनाकर कुछ पैसे कमाकर घर की जरूरतें पूरी करने की कोशिश करती थी। उन्हें कुछ बच्चों की पत्रिकायें दिखी तो, उसमें से एक पत्रिका उठाकर पढ़ना शुरू किया। बारी -बारी से पत्रिकाओं को खंगालते हुए बाहर होने वाली तेज बारिश , गहराती अन्धेरी रात और झिगुरो और मेढकों के टर्राने की आवाज भयभीत करने लगी, तो अपना पूरा ध्यान हाथ में ली हुई पत्रिका पढ़ने में लगाने की कोशिश करने लगे। उसमें पढ़ने लायक पढ़ने के बाद पत्रिकाओं की ढेर को उलट-पुलट करते हुए उन्हें एक नई पत्रिका मिली। उसे पढते हुए उसमें अधूरी कहानी पूरी करने की प्रतियोगिता दिखी। इस अधूरी कहानी को पढ़कर उन्हें लगा यह कहानी उनकी अपनी कहानी है ।
इसलिए वो उस कहानी को पूरा करने की कोशिश में लग गए। ऐसा करते हुए कब सो गए मालूम ही नहीं हुआ।
सुबह उठे तो अपने बिछावन पर थे। शायद माँ ने नींद में ही स्टोर रूम से उठाकर बिछावन पर लाकर सुलाया था। सुबह उठने के बाद घर में अजीब सी शांति थी ।जैसे कुछ हुआ ही न हो। लेकिन उन्हें बेचैनी और खुशी दोनों हो रही थी। बेचैनी इसलिए कि लिखीकहानी निर्धारित तिथि के अन्दर प्रतियोगिता में भेजना है ।खुशी इसलिए, कि प्रतियोगिता में जीतने पर सौ ,पचास और बीस रुपये के पुरस्कार भी शामिल थे। बच्चों को स्कूल में चाट गोलगप्पे खाते देखते, तो उनका भी बहुत मन करता था ,कि वो भी ऐसे ही सबके साथ मिलकर चाट गोलगप्पे खाएं । एक भी पुरस्कार मिल जाए, तो स्वंय भी खाएंगे और सारे दोस्तों को भी खिलाएंगे। उन्हीं पुराने पत्रिकाओं में से कुछ पत्रिकाओं कोबेचकर लिफाफे और टिकट का इंतजाम करने के बाद उन्होंने अपनी कहानी उस पत्रिका के पते पर भेज दी थी। उसके बाद हर दिन बुक स्टॉल पर जाकर पत्रिका का नया अंक कब आएगा ?यह पूछते थे।
लेकिन कुछ देर पहले जब पोस्टमैन ने पुरस्कार के रुप में बीस रुपए लाकर उनके हाथ में दिया। यह बीस रूपया पुरस्कार में मिला यह जानकर उनके साथ- साथ घर में सब लोगों के भीतर भी खुशी की लहर दौड़ गई। पिताजी के लिए वह कुछ खरीदना चाहते थे। इसलिए सीधे दुकान की ओर भागे थे।
पिताजी की ओर देखकर सोचने लगे ,कितने खुश होकर वह पेन से कुछ लिख रहे हैं? जैसे कि कोई छोटा बच्चा हो । अचानक पिताजी लिखना छोड़कर जोर से बोले थे ,"लक्खुजी तैयार हो जाइए , आपको भरपेट मिठाई खिलाते हैं । "
उन्होंने सकपकाकर मां की ओर देखा ।
मां हंसते हुए बोली "जाकर तैयार हो जाओ " वह तैयार होने लगे तो छोटी बहन मदद करने के बहाने से पास आकर पूछी "क्या मैं भी तुम्हारी तरह लिख सकती हूं ?"
"हां लिख सकती हो"
"लेकिन मुझे तो कहानी लिखना नहीं आता" मायूस होकर वह बोली थी ।
" मैं सिखाऊंगा तुम भी भेजना ।तुम्हें भी पुरस्कार मिलेगा" "
"अगर मुझे पुरस्कार मिल गया और तुम्हें नहीं मिला तो तुम्हें बुरा नहीं लगेगा । "
"नहीं "
दृढ़ता के साथ उन्होंने कहा , हर बार पुरस्कार मुझे ही मिले जरूरी नहीं है। किसी को भी मिल सकता है ।फिर तुम्हें क्यों नहीं मिले ?" उधर पिताजी उनका गुणगान जोर-जोर से बोलकर लक्खु चाचा को सुलाने के लिए कर रहे थे। इधर पास खड़ी मां भगवान जगन्नाथ से मन ही मन प्रार्थना कर रही थीं। बड़े होकर चारों बच्चे कहीं भी रहे, लेकिन बचपन वाला लगाव इनमें हमेशा ऐसे ही बनाए रखिएगा ।