एक स्मृति
एक स्मृति
सुजाता आज बहुत दिनों बाद पिछली स्मृतियों में खो गई। उसने कुछ प्रयास नहीं किया था। अनायास ही मन विचारमग्न हो गया।
जो प्यार यौवनोद्रेक में किया जाता है, क्या सच ही वह स्थायी नहीं ? क्षणभंगुर संसार में क्या यौवन का प्यार भी क्षणिक है? प्यार आता है तो लगता है कि जैसे समस्त जीवन पूर्णता से भर गया। पत्तों में नई चमक आ गई, चॉंदनी अधिक मीठी हो गई, हवा में सुगन्ध भर गई,सारे में आलोक बिखर गया।
पर कब तक रहता है यह प्यार। परस्पर परिचय के बाद एक दो वर्ष में ही वह प्रथमाकर्षण मन्द पड़ने लगता है। क्यों आकर्षण रहता है ,क्यों ख़त्म हो जाता है ? क्या इसीलिए कि पहले सब अनदेखा रहता है ,कुछ घटित होने के उल्लास से मन भरा रहता है ;और जब घट जाता है तो सब देखा जाना पहिचाना हो जाता है, फिर उल्लास नहीं रहता, स्थिरता आ जाती है। क्या कुछ वैसा ही जैसा परीक्षा का परिणाम आने से पहले विद्यार्थी के दिन उल्लासमय व्याकुलता में कटते हैं और परिणाम आ जाने पर फिर सामान्य सा दिन बीतने लगता है।
दो युवाजनों का वह प्रथम परिचय, एकांत मिलन ,स्पर्शाभिलाषा, दर्शनोत्कंठा क्या सब कुछ दो - एक साल में फीका पड़ जाता है ? याद आ रही हैं किसी कहानी की ये पंक्तियाँ-“ अनुराग की इस कमी को हमने स्वीकार कर लिया था। पहिले पान मैं रोज लाया करता था ।कभी नहीं लाने पर वह याद दिला देती,और दोनों बस से चलकर पास की दुकान तक जाते और पान खाकर वापस चले आते ।धीरे - धीरे मैं पान लाना प्रायः भूलने लगा और उसने भी याद दिलाना छोड़ दिया। फिर तो इस बात की आपस में चर्चा करना भी असंभव सा जान पड़ने लगा।”
अपने दिल की बातें ,जो एक दूसरे से खुलकर कह दी जाती थीं , वही फिर कहने में संकोच का अनुभव क्यों होने लगता है ? आपस में ही खिंचाव क्यों हो जाता है ? क्या सच ही वह लौकिक प्रेम बीतकर फिर नहीं लौटता । फिर तो जो बच रहता है ,उसी पर संतोष करना पड़ता है ।और दिन एक साँचे में ढले बीतने लगते हैं।
पहिले पत्नी कुछ भी काम करे, पति उसके चारों तरफ़ पास रहता था और सहयोग देकर प्रसन्न हुआ करता था, और ऐसे ही पति के काम को पत्नी प्रसन्न होकर करती थी।
पहले जो नितांत स्वाभाविक लगता था ,उस समय जिसकी कल्पना भी असंभव थी ,वही असंभव बाद में संभव क्योंकर बन जाता है। क्या हृदय युवा प्यार से रीते हो जाते हैं। तोलस्तोय की “सुखी दम्पति” की माशा की अन्तर्वेदना क्या प्रत्येक युवती की अन्तर्वेदना नहीं है जो वैवाहिक जीवन के कुछ वर्षों बाद अपने को इसी मोड़ पर खड़ी पाती है। पहिले दोनों मिलकर प्रार्थना किया करते थे, पर बाद में यह कहते भी संकोच लगता कि “आओ, मिलकर प्रार्थना करें”। माशा पियानो बजाती तो सेर्गेई पीछे बैठकर भावविभोर सुना करता था, बाद में सब कुछ जैसे अतीत में विलीन हो गया। “ मैं पियानो बजाती हूँ, तुम सुनो” यह कहना भी मुश्किल लगने लगता।
शायद यह समय ही है जो धीरे - धीरे परिवर्तन ला देता है।
तुमको भी व्यर्थ दोष देना है। वह एकान्त शयन, देर तक वार्तालाप, शायद अनदेखे को देखने-जानने,अनजाने को पहिचानने की भावना से ही हुआ करते थे। अब यदि ऐसा नहीं होता तो इसमें विचित्रता महसूस नहीं करनी चाहिए।
याद है क्या तुम्हें भी अमरापाड़ा का हमारा वह नदी किनारे मिलन। मैं पत्थरों पर लेटी थी। नीचे क्षीणकाया पहाड़ी नदी पत्थरों से टकराकर बह रही थी। तुम मेरे ऊपर झुके हुए अधलेटे थे। दूर पुल पर इक्का दुक्का आदमी आ जा रहे थे, दो एक खड़े थे। उन्हें लक्ष्य कर तुमने कहा था कि-“ वे हमें देखकर ईर्ष्या कर रहे होंगे। “
मैंने कहा-“झुटपुटे में कैसे देख पायेंगे?”
दूर अस्त होता सूर्य था और अंधेरा धीरे- धीरे पैर बढ़ाता जा रहा था। पुल पर दो एक बत्तियों का प्रकाश छनकर हम तक आ रहा था।
“ इससे अच्छा सुख किया होगा”-तुमने कहा था।
फिर अंधेरा बढ़ता जान हम लौट पड़े ।लौटते हुए एक काई लगे पत्थर से फिसलकर मैं नीचे गिरी। पत्थरों में फँसे पानी से मेरी साड़ी गीली हो गई। तुमने दोनों बाहों का सहारा देकर मुझे उठाया। और हम चुपचाप लौट पड़े। उस समय मैं नहीं जानती थी कि ये ही हमारे वे अलौकिक अद्भुत क्षण हैं, जो बाद में केवल अतीत की स्मृति भर रह जायेंगे।
उसके बाद फिर क़रीब एक वर्ष बाद हम उधर गये। उस समय मेरा मन हुआ हम वहॉं नदी किनारे टहलें। तुमने विरोध नहीं किया ।वहॉं टहलते- टहलते मेरा मन अतीत की स्मृतियों में खो गया। पर तुम स्थिर थे। और धीरे- धीरे आगे चले जा रहे थे। इस ओर से उदासीन कि मैं भी पीछे- पीछे आ रही हूँ या नहीं। अचानक ही मेरा पैर पत्थर से टकराया, मैं गिरते- गिरते बची। तुमने मुड़कर देखा और “क्या हुआ” कहकर फिर आगे बढ़ गये। मैं स्मृतियों में भूली यथार्थ से टकराकर चेतन हुई। मन उदास उदास हो गया।
तुमने मेरी उदासी भाँप ली और सहृदयता दिखाते हुए बोले-“ क्यों सुस्त हो गई ?”
मैंने दिल की बात कह डाली। तुम केवल हंसकर रह गये।
फिर बोले-“ बात यह है कि पहिले मैं तुम्हें बहुत ज्यादा प्यार करता था। “
“ अब नहीं ?” मैंने कहा
“ नहीं मेरा यह आशय नहीं था”। फिर तुम चुप हो गये।
तुम्हारे मौन से मैं समझ गई कि अब वो बात नहीं रही जो पहिले थी। शायद यही सनातन है। कवि के शब्दों में-“ वह वर्षा की बाढ़ गई, उसको जाने दो “।
उन्माद की तीक्ष्णता कम तो पड़ ही जाती है। यही सब कुछ तुम्हारे हमारे साथ हुआ। प्रथम कुछ वर्षों की तुम्हारी आसक्ति मेरे प्रति लगाव केवल युवोचित प्रेम को लेकर था, जो शनैः शनैः धीमा पड़ता गया।तुम्हारा हमारा सम्बन्ध अब इस बात को लेकर ज़्यादा है कि तुम मेरी बेटी के पिता हो।
अब सब कुछ बीत चुका है। इसमें समय का दोष है और हमारा भी। समय के अनुसार रूप बदलता रहता है। बीते को कभी लौटाया नहीं जा सकता। अब प्रेम की स्मृतियॉं हैं और कृतज्ञता भाव भी।
घास और पत्तों को देखकर मन में ईर्ष्या उठती है कि घास उन्हें भिगो रही है। पर घास पत्ते और बारिश बनने की चाह नहीं होती। उन्हें देखकर ही सन्तुष्टि होती है। उन चीज़ों को देखकर सन्तोष होता है जो पनप रहीं हैं, सुन्दर और सुखी हैं। बीती हुई बातों को याद करके मन क्षुब्ध होता है पर जो समाप्त हो चुका है, उसे लौटाया नहीं जा सकता। जो बीत चुका है , उसे वापिस लाने की कोशिश नहीं करनी है। जो सुख मिला है , वह किसी भॉंति कम नहीं है, इसके लिये कृतज्ञ होना चाहिये। अब तलाश करने के लिए हमारे सामने कोई चीज़ नहीं रह गई है, न ही कोई बात हमें परेशान कर सकती है।