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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

एक गलत फैसला

एक गलत फैसला

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🌺 पौराणिक कथा : "फैसला" 🌺
(एक स्त्री के निर्णय, पश्चाताप और प्रेम की कालजयी कथा)✍️ श्री हरि
30.7.2025 

कैलाश पर्वत की नीरव शांति में शिवजी ध्यानमग्न थे। चारों ओर हिमशिखरों की गोद में विराजमान वह दिव्य सौंदर्य, जहाँ सांस भी मानो मंत्रों की गति से चलती हो। वहीं उनके चरणों में सती — योगिनी, पतिव्रता, पुत्री और स्त्री — उनकी सेवा में लीन थीं।

सहसा आकाश में अनेक देवों के रथ उड़ते हुए दिखाई दिए। आभायुक्त विमान, उनके संग संग देवपत्नियाँ — सब मानो किसी उल्लास की ओर चल दिए हों।
सती ने आश्चर्य से पूछा —“स्वामी! ये सब कहाँ जा रहे हैं?”शिवजी ने शांत स्वर में उत्तर दिया,“देवि, दक्ष प्रजापति ने एक महायज्ञ का आयोजन किया है। वे सब वहीं आमंत्रित हैं।”सती के नेत्र चमके —“तो हम भी चलें ना प्रभु!”शिवजी की वाणी स्थिर रही —“हमें निमंत्रण नहीं मिला, देवि। बिना आमंत्रण किसी के यज्ञ में जाना मर्यादा के विपरीत है।”
सती ने धीरे से कहा —“परन्तु यह तो मेरे पिता का घर है। क्या वहां जाने के लिए पत्र की आवश्यकता होती है? न तो गुरु के आश्रम में, न सत्संग में और न ही पिता के द्वार पर जाना निमंत्रण की मोहताज होना चाहिए।”
शिवजी की दृष्टि गंभीर हुई —“देवि, प्रेम तभी शुभ होता है जब उसमें सम्मान और विवेक का मिश्रण हो। एकपक्षीय प्रेम जहाँ आत्मसम्मान को रौंदता है, वहाँ जाना न्यायोचित नहीं।”
किन्तु सती पर पीहर का मोह, मायके की स्मृतियों और भावनाओं का बादल छा गया। वे शिवजी की बातों को मात्र वितर्क समझकर विमुख हो गईं।
सती ने एक फैसला लिया — “मैं जाऊँगी।”

भोलेनाथ मौन रहे। उन्होंने अधिकारपूर्वक रोका नहीं। क्योंकि प्रेम बाँध नहीं सकता, वह तो केवल समझा सकता है।

सती दक्ष प्रजापति के यज्ञ मंडप पहुँचीं — पर वहाँ कोई स्वागत नहीं... कोई सम्मान नहीं। माता ने अवश्य गुप्त भाव से उन्हें गले लगाया, किन्तु उसके होठों से निकले शब्द सती के भीतर कांटे की तरह चुभे —“बेटी, पति की आज्ञा का उल्लंघन कर नहीं आना चाहिए था।”
सती मुस्काई — पीहर की मिट्टी में लौटी पुत्री को भला क्या सही-गलत दिखता है? पर यज्ञ मंडप में प्रवेश करते ही, वह मोह एक एक करके बिखरने लगा। वहाँ ब्रह्मा का भाग था, विष्णु का भी, वायु, अग्नि, कुबेर — सबका। पर शिवजी का कोई स्थान नहीं।न मंत्रों में, न मंडप में, न मंडली में। तब सती के हृदय में हूक उठी।भोलेनाथ की बात याद आई।
“देवि, जहाँ सम्मान नहीं वहाँ उपस्थिति भी अपमान बन जाती है।”

उनके पिता दक्ष मंच से शिव का उपहास कर रहे थे।
वह मौन नहीं रह सकीं। सबके सामने सती ने घोषणा की —“मैं शिव की अर्धांगिनी हूँ। तुम उनके लिए अपशब्द कहो और मुझे स्नेह दो — यह कैसा न्याय? जहाँ मेरे स्वामी का मान नहीं, वहाँ मेरी उपस्थिति भी कलंक है।”
यह कहकर सती ने एक और निर्णय लिया — अंतिम फैसला।
वह यज्ञ की अग्नि में प्रविष्ट हो गईं।

कैलाश पर ध्यानस्थ शिव की जटाओं में कम्पन हुआ। उन्होंने नेत्र खोले।
“देवी चली गईं…”
भोलेनाथ ने इस घटना को न क्षमा किया, न विस्मृत किया। उन्होंने सती की देह के परित्याग पर नृत्य किया । किन्तु वह साधारण नृत्य नहीं था , वह तांडव नृत्य  था । — 
दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस कर दक्ष का सिर अलग कर दिया । शिवजी के प्रकोप से ब्रम्हांड काँप उठा।
किन्तु आत्मा का मिलन तो सनातन है। युगों बाद वही आत्मा जन्मी — राजा हिमवान के घर में — पार्वती के रूप में।
और इस बार — शिवजी को पाने के लिए उन्हें युगों युगों तक तपस्या करनी पड़ी थी । 

एक गलत निर्णय केवल स्वयं का ही नुकसान नहीं करता है अपितु उससे सृष्टि चक्र भी बाधित होता है ।  **
🔱 यह कथा केवल पौराणिक नहीं, जीवन दर्शन है।हर निर्णय — एक ‘फैसला’ होता है।
परन्तु वह विवेक सम्मत होना चाहिए न कि भावावेश में लिया गया कोई निर्णय ।
सम्मानविहीन प्रेम, केवल संबंध होता है — आत्मा का योग नहीं।

सीख:“जहाँ स्वाभिमान न हो, वहाँ जाना — मोह है, प्रेम नहीं।
जहाँ आदर न मिले, वहाँ ठहरना — त्याग नहीं, आत्मविस्मृति है।और जहाँ ईश्वर का स्मरण हो — वहीं सच्चा निर्णय होता है।”

🔔 फैसला तुम्हारा है…मगर उसका परिणाम, केवल तुम्हारा नहीं — जगत का होता है। 🙏 


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