जिंदगी का सफर
जिंदगी का सफर
🌸 ज़िंदगी का सफ़र 🌸
🌺
दांपत्य जीवन पर प्रेरणादाई कहानी 🌺
✍️ श्री हरि
🗓️ 20.12.2025
सुबह की धूप जब खिड़की के परदों से छनकर भीतर आई, तो राकेश की नींद खुली। बगल में सोई मीरा अब भी गहरी नींद में थी। उसके चेहरे पर वही शांति थी, जो वर्षों पहले शादी के पहले दिन थी—बस अब उसमें अनुभव की हल्की रेखाएँ जुड़ गई थीं।
राकेश ने घड़ी देखी। पाँच बज रहे थे।
वह धीरे से उठा, ताकि मीरा की नींद न टूटे। चाय बनाने गया, जैसे पिछले पच्चीस वर्षों से करता आ रहा था।
यह उनकी ज़िंदगी का सफ़र था—बिना किसी शोर के, बिना किसी दिखावे के।
राकेश और मीरा की शादी कोई परीकथा नहीं थी।
न ढोल-नगाड़ों की गूंज थी, न सोने-चाँदी की चमक।
दो मध्यमवर्गीय परिवार, सीमित साधन, और असीम उम्मीदें—यही उनकी पूँजी थी।
शादी के शुरुआती साल कठिन थे।
राकेश की नौकरी अस्थायी थी।
मीरा एक स्कूल में पढ़ाती थी, तनख़्वाह कम थी, लेकिन हौसला भरपूर।
कई बार महीने के आख़िरी हफ़्ते में रसोई का हिसाब गड़बड़ा जाता।
कभी गैस ख़त्म, कभी जेब।
पर उन दिनों में भी,
मीरा मुस्कुराकर कहती—
“कोई बात नहीं, आज दाल थोड़ी पतली बना लेंगे।”
राकेश को आज भी याद है वह रात,
जब उसकी नौकरी चली गई थी।
वह चुपचाप घर आया, बिना कुछ बोले कुर्सी पर बैठ गया।
मीरा ने कुछ नहीं पूछा।
बस खाना परोसा और कहा—
“खाओ, फिर बताना।”
खाने के बाद राकेश की आँखों से आँसू बह निकले।
वह बोला—
“मैं असफल हो गया हूँ।”
मीरा ने उसका हाथ थाम लिया।
शांत स्वर में बोली—
“नहीं, तुम थके हो। असफल तो वह होता है जो हार मान ले।”
उसी रात,
ज़िंदगी के सफ़र ने उन्हें सिखाया—
दांपत्य सिर्फ़ साथ रहने का नाम नहीं,
बल्कि एक-दूसरे को गिरने से पहले थाम लेने की कला है।
समय बदला।
राकेश को नई नौकरी मिली।
संघर्ष के साथ आत्मसम्मान भी लौटा।
बच्चे हुए—आदित्य और नेहा।
उनके साथ जिम्मेदारियाँ बढ़ीं,
नींद घटी,
पर जीवन में अर्थ जुड़ता गया।
बच्चों की पढ़ाई,
बीमारी,
भविष्य की चिंता—
इन सबके बीच भी राकेश और मीरा ने एक नियम नहीं बदला—
मतभेद हो सकते हैं, मनभेद नहीं।
कभी-कभी बहस होती,
पर दरवाज़ा बंद नहीं होता।
गुस्सा आता,
पर संवाद बंद नहीं होता।
मीरा कहती—
“हम एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हैं,
हम समस्या के खिलाफ़ एक टीम हैं।”
जब बच्चे बड़े हुए,
तो उनके अपने सपने थे, अपने रास्ते।
घर थोड़ा सूना हो गया।
एक दिन नेहा ने कहा—
“माँ, आजकल आप और पापा ज़्यादा चुप रहते हो।”
मीरा मुस्कुरा दी।
“बेटा, अब शब्दों की ज़रूरत कम पड़ती है।
अब खामोशी भी समझाने लगी है।”
राकेश अब रिटायरमेंट के करीब था।
उसकी आँखों में संतोष था,
पर शरीर में थकान।
एक शाम वह बोला—
“मीरा, क्या हमने ज़िंदगी सही जिया?”
मीरा ने अलमारी खोली।
पुरानी डायरी निकाली।
पहले पन्ने पर लिखा था—
‘आज हमारी शादी हुई। साधन कम हैं, पर साथ सच्चा है।’
मीरा बोली—
“देखो, सफ़र शुरू यहीं से हुआ था।
हम साधनों के पीछे नहीं भागे,
हमने एक-दूसरे का हाथ नहीं छोड़ा—यही सफलता है।”
राकेश की आँखें भर आईं।
आज,
सुबह की वही चाय
मीरा के हाथ में थमाते हुए
राकेश ने कहा—
“अगर फिर से ज़िंदगी मिले,
तो मैं वही सफ़र चुनूँगा—तुम्हारे साथ।”
मीरा मुस्कुराई।
“मैं भी।
क्योंकि ज़िंदगी का असली सफ़र
मंज़िल से नहीं,
साथ से सुंदर होता है।”
खिड़की के बाहर धूप और तेज़ हो गई थी।
दिन शुरू हो चुका था।
ज़िंदगी का सफ़र अब भी जारी था—
धीमा, सच्चा और संतुलित।
और यही दांपत्य जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा थी—
साथ चलना, चाहे रास्ता जैसा भी हो। 🌿

