देर आयद दुरुस्त आयद
देर आयद दुरुस्त आयद
🌺 10. देर आए, दुरुस्त आए 🌺
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एक भावनाप्रधान, प्रेरणादायक कथा 🌹
✍️ श्री हरि
🗓️ 21.12.2025
सूरज ढलने से पहले का वह समय था—
जब आकाश के रंग बदलते हैं और मनुष्य के भीतर दबी हुई स्मृतियाँ सिर उठाने लगती हैं।
गाँव संकल्पपुर की कच्ची गलियों में उस दिन एक बूढ़ा आदमी बहुत देर तक खड़ा रहा। नाम था—गोविंदराम।
उम्र साठ के पार, कंधे झुके हुए, आँखों में ऐसा खालीपन मानो जीवन ने सब कुछ धीरे-धीरे छीन लिया हो।
उसके सामने गाँव का वही प्राथमिक विद्यालय था, जहाँ कभी वह दाख़िला लेना चाहता था…
पर कभी ले नहीं पाया।
1. अधूरा बचपन
गोविंदराम बचपन से ही मेधावी था। अक्षरों से प्रेम करता था। मिट्टी पर उँगली से क, ख लिखता और खुद ही मिटा देता।
पर पिता खेतिहर थे, माँ बीमार।
पाँचवीं में पहुँचते-पहुँचते पिता चल बसे।
एक दिन माँ ने काँपते हाथों से कहा—
“बेटा, अब स्कूल नहीं जा पाओगे… खेत सम्भालना होगा।”
उस दिन गोविंदराम ने पहली बार समझा—
जीवन में इच्छाएँ नहीं, परिस्थितियाँ निर्णय लेती हैं।
किताबें अलमारी में बंद हो गईं, और हाथों में हल आ गया।
2. जीवन का प्रवाह
साल बीतते गए।
गोविंदराम ने खेत सँभाले, माँ को पाला, शादी की, बच्चे हुए।
वह अच्छा पति बना, ज़िम्मेदार पिता बना—
पर कहीं भीतर एक कसक थी, जो हर रात सोते समय उसे कचोटती थी।
जब बच्चे स्कूल जाते, वह दूर से उन्हें देखता।
ब्लैकबोर्ड की लिखावट उसे किसी अधूरी कविता की तरह लगती।
एक बार बेटे ने पूछा—
“बाबा, आप कभी स्कूल नहीं गए?”
वह मुस्करा दिया—
“गया था बेटा… बस, ज़िंदगी बीच में आ गई।”
3. पहला आघात
एक वर्ष गाँव में भारी सूखा पड़ा।
फसलें चौपट हो गईं।
सरकारी योजनाओं की जानकारी आई—पर गोविंदराम फ़ॉर्म नहीं भर सका।
अफ़सर की बात समझ नहीं आई।
बैंक में क्लर्क ने काग़ज़ लौटाते हुए कहा—
“अंगूठा मत लगाइए, दस्तख़त चाहिए।”
वह घर लौटा तो पहली बार रोया।
बच्चों के सामने नहीं—
खेत में, अकेले।
उस रात उसने खुद से कहा—
“अगर मैं पढ़ा-लिखा होता… तो आज यूँ अपमान न सहता।”
4. ताने और ठहाके
कुछ दिनों बाद गाँव में साक्षरता अभियान शुरू हुआ।
रात की पाठशाला।
गोविंदराम ने नाम लिखवा दिया।
गाँव में चर्चा फैल गई—
“इस उम्र में पढ़ेगा?”
“अब क्या अफ़सर बनेगा?”
कुछ हँसे, कुछ ने ताना मारा।
पत्नी ने भी डरते-डरते कहा—
“लोग क्या कहेंगे?”
गोविंदराम बोला—
“लोग तो तब भी कहते हैं… जब आदमी कुछ नहीं करता।”
5. संघर्ष की शुरुआत
रात की पाठशाला में बच्चे, औरतें और वह—सब साथ बैठते।
अ, आ, इ सीखते हुए उसके हाथ काँपते।
कभी शब्द उलट जाते, कभी पंक्ति छूट जाती।
मास्टर जी कहते—
“गलती से मत डरिए, गोविंदराम।
गलती सीखने का पहला कदम है।”
वह रोज़ अभ्यास करता।
दीये की रोशनी में अक्षर लिखता।
उँगलियों में छाले पड़ जाते, पर मन में रोशनी बढ़ती जाती।
6. भीतर का परिवर्तन
छह महीने बाद वह अपना नाम लिखने लगा।
पहली बार बैंक में दस्तख़त किए।
उस दिन उसकी आँखों में आँसू थे—
ख़ुशी के।
उसने पत्नी से कहा—
“देखो… अब मैं भी दस्तख़त कर सकता हूँ।”
पत्नी चुप रही, पर उसकी आँखें बोल उठीं।
7. समाज की दृष्टि
धीरे-धीरे वही लोग जो हँसते थे, सलाह लेने आने लगे।
वह सरकारी योजना समझाने लगा।
अख़बार पढ़कर दूसरों को सुनाने लगा।
पंचायत की बैठक में उसने पहली बार खड़े होकर बोला—
“अगर जानकारी सबके पास पहुँचे, तो कोई ठगा नहीं जाएगा।”
उस दिन गाँव ने उसे नए रूप में देखा।
8. जीवन की स्वीकृति
एक शाम वही बेटा बोला—
“बाबा, आप सही थे।
देर से पढ़े, पर सही पढ़े।”
गोविंदराम मुस्कराया।
उसके भीतर का वह बच्चा, जो कभी किताबों से बिछुड़ गया था—
आज तृप्त हो गया।
9. अंतिम बोध
विद्यालय के सामने खड़े होकर उसने पट्टी पर लिखा पढ़ा—
“देर आए, दुरुस्त आए।”
वह जान गया था—
समय निकल जाना हार नहीं है।
गलत पर अड़े रहना हार है।
जो इंसान खुद को सुधार ले,
वही जीवन में सचमुच जीतता है।
यह कहानी उन लाखों लोगों की है
जो सोचते हैं—
अब देर हो गई।
पर सच यह है—
जब चेतना जागती है,
वही सही समय होता है।
और तभी यह कहावत केवल शब्द नहीं रहती—
जीवन का सत्य बन जाती है।
