एक बूंद प्रेम की तलाश
एक बूंद प्रेम की तलाश




संध्या की लालिमा चारो ओर अपनी चादर पसार लिया था। अनंता के कदम आज अकस्मात ही उसके घर से कुछ दूरी जहा पर प्रकृति की छटा अपने विविध रंगो से आच्छादित लावण्यमय से भरपूर प्रकृति की सुन्दर स्वर लहरी गुंज रही थी वाहा मूड गए। पहाड़ के एक टीले पर विराजमान हो गई और नीचे कल कल करती बहती नदी की धारा में वह अपने अतीत की अमिट स्मृति में खो गई। बहती हुई ये निर्मल स्वच्छ धारा ना जाने कितने पहाड़ियों , रेतीली मैदानों , उबड़ खाबड़ रास्तों को तय करती बिना किसी सर्गोशी के बहती चली जा रही है सिर्फ अपने सागर में एकाकार होने हेतू। उसके स्मृतियों की पोटली से कुछ यादें निकलकर उसकेमानस पटल पर अवतरित होने लगी। पहली बार जब वो शुभम से ट्रेन में मिली थी।
वो अपना मुंबई जैसा बड़ा शहर छोड़कर एक नौकरी के इंटरव्यू के लिए एक छोटे से शहर इलाहाबाद जा रही थी। ताकि मुंबई के कोलाहल से दूर गंगा तट पर सुकून की कुछ सांसे ले सके। ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ी जा रही थी। अनंता को अपने गंतव्य तक पहुंचने में बस एक स्टेशन की दूरी थी। उसने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया था। ट्रेन के दरवाजे पर लोगों को भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। भीड़ के कारण लगेज लेकर निकलने में कठिनाई हो रही थी। "एक मिनट आप कहे तो मै आपका ये लगेज आगे तक बढ़ा देता हूं। " "जी शुक्रिया मै खुद ही कर लूंगी।" उसने उसकी ओर बिना देखे कहा। "आप शायद इलाहाबाद उतरेंगी।" "आपको कैसे मालूम।" उसने थोड़ी नाराजगी दिखाते हुए कहा। "जी क्यों कि इसके बाद का स्टेशन वहीं है।" "अच्छा अच्छा।" " देखिए भीड़ बढ़ती जा रही है कृपया आप अपना लगेज दे दीजिए मै कोई चोर नहीं जो ले भागूंगा।" अनंता ने अपनी भौहें सिकुड़ते हुए उसकी ओर देखा, और कड़े शब्दों मे कहा "मै आप जैसे लोग को खूब जानती हूं। किसी अबला की मदद करने की आड़ में उसके नजदीक आना। मिस्टर स्ट्रेंजर मुझे आपके मदद की कोई जरूरत नहीं।" बढ़ती भीड़ के कारण वह अपने आप को संभाल नहीं पा रही थी। उसने जबरदस्ती उसके हाथ से लगेज लेकर ट्रेन के मुहाने तक पहुंच गया। ट्रेन के रुकते ही उतार कर नीचे भी रख दिया। और बिना कुछ कहे अपने राह विदा होने को हुआ तभी अनंता ने जो पीछे से आवाज दिया "हेलो मिस्टर स्ट्रेंजर रुकिए तो सही।" मगर बिना कुछ कहे आगे निकल गया। 'कमाल है शुक्रिया अदायिगी का मौका भी नहीं दिया।' उसने कूली को बुलाकर ऑटोरिक्शा पकड़ा और थोड़ी देर में वो घर पर थी।
"चरण स्पर्श बुआ।" "रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं हुई।" "नहीं बुआ। कितने वर्षों बाद आई हूं ना बहुत ही अच्छा लग रहा है।" "अच्छा हुआ तू आ गई। मै भी नेहा की शादी के बाद अकेली पड़ गई थी। "भैया और भाभी कैसे है?" "वैसे ही, जैसे हमेशा से थे।" अच्छा चल मुंह हाथ धो ले। खाना लगाती हूं। हां बुआ अभी आई। अरे वाह बुआ तुम्हारे हाथो को चूम लूं। "वर्षों पश्चात इतना स्वादिष्ट खाना खा के मज़ा आ गया।" "अच्छा ऊपर वाले कमरे मै तेरा बिस्तर लगा दिया है। अब जा के थोड़ा आराम कर ले।" अपने कमरे की झरोखे पर पर खड़ी वो बाहर का नज़ारा देखने लगी। मुंबई के नजारे से कितना मनोरम था। दूर तक सुन्दर फैली हुई वादिया, हरियाली, नभ में उड़ते पंछी। मुंबई तो चारो ओर शोर पॉल्यूशन , रोड पर भागते लोग। यह कितनी शांति है। ये अजनबी शहर होते हुए भी कितना अपना लग रहा है। तभी उसे उस अजनबी का स्मरण हो आया। अगर इसी शहर में हो तो जरूर तुमसे मुलाकात होगी ' सुबह चाय की चुस्की लेते हुए उसने कहा , " थोड़ी देर में मै एक नौकरी के इंटरव्यू देने जाऊंगी। " ठीक है सही समय पर आ जाना आज तेरी पसंद का खाना बनाऊंगी।" "ओह बुआ तुम कितना मेरा ख्याल रखती हो।" कहते हुए उनसे लिपट गई।
दफ्तर में कदम रखते ही उसने रिसेप्शन पर जानकारी ली। "आप थोड़ी देर वाहा पंक्ति में बैठ जाइए। "जी।' कहती हुई अनंता अपने नंबर की प्रतीक्षा करने लगी। थोड़ी देर में उसकी बुलावा आया। उसका इंटरव्यू अच्छा रहा। "आप हमारे असिस्टेंट मैनेजर शुभम से मिल लीजिए आपको वो सब समझा देंगे।" " जी सर।" "सर मै अनंता हूं और ये मेरी ज्वाइनिंग लेटर है। कृपया देख लीजिए। "जी जरूर उसने सर झुकाए हुए ही उत्तर दिया। एक नजर उसके फाइल पर नजर डालते हुए कहा, "मैम आपका केबिन उस तरफ है।" उसने दूर थोड़ा हटकर एक सुन्दर केबिन की ओर इशारा करते हुए कहा।" जी।" "ये आपकी फाइल मैंने स्टाम्प मार दिया है। " फाइल उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा। "आप..?" एकदम से उसे देखकर चौंक गई। "अरे ..आप !" अनंता ने कई बार उसे किए गए हेल्प के लिए धन्यवाद देने का प्रयास किया किंतु शुभम उसे मौका ही नहीं दे रहा था। एक दिन शुभम जब अपने किसी ऑफिस के काम के सिलसिले में उसे केबिन में मिलने गया तो अनंता ने उसे बैठने को कहा कहा। "जी आप फाइल दे दीजिए।" " अभी मैंने तो हस्ताक्षर नहीं किया है, कृपया आप बैठिए।" "थोड़ी देर में आ जाऊंगा।" कहता हुआ वहां से निकल गया।
ऑफिस के दिनों में जब ये मिले थे तब पहली नजर में ही शुभम के आत्मीय स्वभाव व् मृदभाषिता से उसने अनंता के हृदय में स्थान बना लिया था। शुभम भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं था कि अनंता उसे मन ही मन पसंद करती है। चुकी शुभम थोड़ा शर्मीले स्वभाव का था इसलिए वो अनंता से बात करने में हिचकिचाता था। एक दिन ऑफिस से निकलते समय उसने शुभम को चाय के लिए ऑफर किया। "अरे आप अनंता जी ! इतनी बारिश में आपको तो अब तक आपने घर पर होना चाहिए था।" "जी किन्तु बारिश में चाय का मज़ा ही कुछ और है। इसलिए आपकी प्रतीक्षा कर रही थी।" किन्तु इतनी देर तक ! मै ओवर टाइम करता हूं इसलिए देर हो जाती है। " "ओह! अच्छा कोई बात नहीं चलिए अब चाय पीते अन्यथा इस बारिश में कहीं सर्दी ना जकड़ ले।" और कहते ही अनंता ने एक जोर की छिक मारी। "लीजिए आप तो ... सर्दी लग गई। चलिए अब चाय पीते है।" और वो उसके प्रेम पूर्वक आग्रह को ठुकरा नहीं पाया। इसी प्रकार हर रोज़ किसी ना किसी बहाने उनकी मुलाकाते होने लगी। अनंता एक बड़े घर की बेटी थी जबकि शुभम एक साधारण स्कूल मास्टर का बेटा था। उसकी दो बहनों की शादी के उपरांत पिता के पास इतनी राशि शेष नहीं बची थी की शुभम की आगे की पढ़ाई जारी रहती। इसलिए वो ऑफिस में ओवर टाइम करता था। उसने अनंता की हैसियत को देखते हुए कई बार अपने मन की बात जाहिर की वह उसके बराबर का नहीं और आगे उस कितनी तरक्की मिलेगी क्या पता। इसलिए वह अपने दिल से उसके प्रति अपनी चाहत को त्याग दे।
अनंता हमेशा यही कहती, "नहीं शुभम मेरे लिए जीवन में पैसे से बढ़कर एक अच्छे नेक दिल इंसान की जरूरत है जो कि मेरे जज्बातों को समझे और मुझे दिल से प्यार करें। ..मैंने अपने घर में सिर्फ पैसा ही देखा है किंतु हमारी छोटी सी बगिया में एक प्रेम का पत्ता भी कभी नहीं पनपा। मम्मी - पापा के जीवन में कभी वह प्रेम की लहर महसूस नहीं की। सागर में उठते तूफान ही देखे हैं। .. मेरी हर जरुरते कीमती संसाधनों से पूरी कर दी जाती।..मैं कैसी हूं मैंने क्या खाया, क्या किया बिल्कुल भी इसकी चिंता नहीं होती थी। बस दादी थी जो मेरा ख्याल रखती थी। "
...सबकुछ जानने के बावजूद भी शुभम अपनी जीवन के हकीकत से मुँह नहीं मोड़ना चाहता था। अनंता के लिए उसके मन में भी प्रेम ने अपना बिज़ बो दिया था। उसने अनंता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए मन ही मन सोचने लगा , अनंता मै तुम्हारे जीवन में प्रेम की कमी को शायद पूर्णतया भर पाने में सफल भी हो जाऊ , किंतु बचपन से तुम जिस ऐशों आराम में पली बढ़ी हो उसकी पूर्ति कहा से करूँगा। जैसे अनंता ने उसके मन की बात पढ़ लि हो,
"मुझे सिर्फ तुम्हारा प्रेम चाहिए शुभम। फिर हम दोनों ही तो नौकरी करेंगे ना फिर पैसे का कोई इश्यू ही नहीं रह जाएगा। उसने उसकी आंखो में स्नेहिल दृष्टि से झांकते हुए कहा। कभी कोई शिकायत नहीं करूंगी वादा है तुमसे।" झरोखे से आ रही ठंडी हवा की मादक्ता दोनों को हौले से सहला गई। शुभम अनंता की हथेलियों की मजबूत पकड़ को महसूस कर रहा था। उसके कंधो पर टिके हुए केश की खुशबू उसके नथुनों से टकराकर एक ताज़गी का आभास करा रहे थे। किन्तु एक अनजान भय से वो अब भी अनंता को पूर्णतया अपने बाहों का सहारा देने में असक्षम महसूस कर रहा था।
"क्या सोच रहे हो शुभम! कुछ तो बोलो। क्या मुझपर विश्वास नहीं। "
"नहीं अनंता ऐसी कोई बात नहीं। आगे आने वाली समय के आंकड़े को तालमेल बिठाने को कोशिश कर रहा था।" उसने उसके मुख पर उड़ते रेशमी अलकाओ को हौले से हटाते हुए कहा।
"मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ शुभम। लेकिन मै तुम्हे विश्वास दिलाती हूँ , मुझे सिर्फ तुम्हारा प्रेम चाहिए। मैंने बहुत सोच समझकर ही तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाया है।" शुभम ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए उससे निश्चिन्ता का आभास कराया।
अनंता उसके कंधे पर सिर टिकाए ही उसे अपने दोनो बाहों के घेरे से उसे कमर से मजबूती से पकड़ लिया। अनंता का यू उसके प्रति निश्चल व आगढ़ प्रेम को देखकर उसे अपने आप से जुदा नहीं कर पाया। ढल रही शाम अंधेरी रात में विलीन होकर एक नई रोशनी का आगाज़ करने की प्रतीक्षा करने लगी। मूर्ति सामान दिखने वाली मध्यम कद काठी गौर वर्ण वाली सुन्दर अनंता प्रेम की प्रतिमा सामान सी दिखती थी।
शुभम और अनंता दोनो ने अपने घर में एक दूसरे के साथ ब्याह की चर्चा कर दी थी। और वो धीरे धीरे घर भी आने जाने लगी थी। सबका बहुत ख्याल रखती एक बहू की भांति घर की हर वाजिब जरूरतों को पूरा करती। शुभम के कानों तक पहुंचने तक नहीं देती। उसके पसंद नापसंद का खास ख्याल रखती। क्यों कि वो जानती थी कि शुभम एक स्वाभिमानी इंसान है इसलिए उसे बात का खास ख्याल रहता। समय पंख लगाकर उड़ता गया दोनों की जिंदगी भी एक अच्छे रफ्तार से बढ़ती रही। अनंता ने परिस्थिति को समझते हुए कभी भी अपनी इच्छा शुभम पर ज़ाहिर नहीं की। वो उसके अच्छी नौकरी मिलने तक प्रतीक्षा करती रही। इधर अनंता को अपनी टैलेंट और मेहनत के बल पर कंपनी में उसे प्रोमोशन मिलता रहा। शुभम ने भी अब दूसरी कंपनी में थोड़ी और बेहतर नौकरी पकड़ लि थी। अनंता से ओहदे में पीछे रहना से भीतर ही भीतर वो हीन भावना का शिकार होता जा रहा था। धीरे धीरे उसके स्वभाव में चिड़चिड़ाहट आती जा रही थी किन्तु अनंता के सामने दबा जाता। शुभम का दिल जीतने व प्रसन्न रखने हेतु वो हर संभव प्रयास करती। उसे सिर्फ जरूरत थी तो शुभम के प्रेम और सपोर्ट की। अपने होने वाले सास ससुर का भी खास ख्याल रखती। "यह देखो शुभम , साड़ी ! माँ जी के लिए और ये कुर्ता बाबूजी के लिए। कैसा है ?" "बहुत ही अच्छा है। "
" ये देखी तुम्हारे लिए यह शर्ट और तुम्हारी पसंद के ब्रांड का यह पेन। कैसा है ? "
"बहुत ही सुन्दर अनंता तुम सबका कितना ध्यान रखती हो। माई डियर।" और उसने प्यार से उसके हथेलियों को चूम लिया। "तुमने अपने लिए कुछ नहीं लिया?" "नहीं.. वो तुम लाओगे ना।" अनंता ने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
"ह्मम ! ओके डियर सियोर।"
" और उसने उसे अपनी बाहों में भर लिया। अनंता को उसके आगोश में समाते ही पल भर के लिए लगता जैसे प्रेम के झरने तले प्रेम से सरोबार है। जो कि बहता रहे कभी थमे ना। "अच्छा अब छोड़ो भी मां बाबूजी आ गए ना तो क्या सोचेंगे।" कुछ पल की कसमसाहट के पश्चात उसने उसकी बाहों से निकलना चाहा। "क्या चाहती हो फ़्री कर दू !"
" धत ! श्रीमान जी और भी काम है मोहब्बत के सिवा।" और दोनो हंस पड़े। "अच्छा तुम अपनी आँखे तो बंद करो।"
"लो जी मैडम कर लिया।"
"अब खोलो , ये देखो कैसी है?"
" बहुत ही सुन्दर मॉडर्न आर्ट है। पर तुम लाई कहा से। "
" आज मैं अपने दोस्तों के साथ आर्ट गैलरी गई थी। वहाँ देश के सुप्रसिद्ध कलाकारों की पेंटिंग प्रदर्शनी लगी थी मैंने भी यह खरीदी। अब हम इसे लिविंग रूम में लगाएंगे।"
" वैसे ये तुमने लि की कितने की।"
" सस्ती ही है। उसके शब्द थोड़े लड़खड़ा गए।" "अच्छा मैं एक बात तो बताना भूल ही गई मेरे कुछ दोस्तो के साथ लंच है। तुम्हे भी चलना है। "ओके माय डियर।"
अनंता ने अगले दिन एक रेस्टुरेंट में अपने दोस्तो को आमंत्रित किया। "अरे वाह ! अनंता जीजू तो देखने में बहुत सुंदर है। सुन्दर नयन नक्स लकी गर्ल। "
"हाँ वह तो है।" अनंता ने बड़े नाज़ से कहा। " परिचय तो करवा।"
" हाँ- हाँ अभी।" अनंता के आग्रह पर शुभम वाहाँ आ तो गया पर सहज महसूस नहीं कर रहा था। "हेलो मिस्टर शुभम।" उसकी एक सहेली ने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा। " जीजू तो जरूर किसी बड़े सम्मानीय पद पर होंगे। " एकाएक इस तरह के सवाल से उसका सामना होगा उसने सोचा नहीं था कि क्या जवाब दू और उसने शुभम के स्वाभिमान को ठेस ना पहुँचे इसलिए उसने जो सही था बता दिया। "ओह ! फिर तो तुझ जैसी प्रियतमा पाकर तो जीजू बहुत लकी है।" उसने बात को संभालते हुए कहा, "अरे नहीं यार इस मामले तो मै बहुत लकी हूँ। वो मुझसे बहुत प्रेम करते है और मेरा ध्यान भी बहुत रखते है। भगवान करे शुभम जैसा प्यार करने वाला पति सबको मिले।" मुस्कुराते हुए उसने स्निग्ध दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए कहा। शुभम तब तक पानी पानी हो चुका था। वह वहाँ से एकदम से उठकर चले जाना चाहता था किंतु अनंता का ख्याल आते ही मन मसोसकर वहीं बैठा रहा। उस रात उसने ठीक से खाना भी नहीं खाया। आज फिर से उसे अनंता के सामने अपनी औकात का अहसास हो गया था। ' कहीं ऐसा ना हो कल को लोग ये कहे कि की मै अनंता की कमाई पर पल रहा हूं। '
इधर शुभम अब हमेशा इसी उधेड़ बुन में रहता कि आखिर इस गैप को वो कैसे भरे। वो वृहद क्यों नहीं सोच पा रहा संकुचित क्यों होता जा रहा है।
कुछ दिनों बाद अनंता का जन्मदिन था। उसने अपना जन्मदिन किसी बड़े से रेस्तरां में अपने दोस्तों के साथ सेलिब्रेट करने का प्लान किया। अनंता की खुशी के लिए शुभम ने हामी भर तो दी किन्तु उसका मन कहीं और अटका हुआ था। अनंता उस शाम खूब अच्छे से सजी संवरी थी। खुले घुंघराले केश और हल्के मेकअप के साथ उसने हल्की गुलाबी रंग की लिपस्टिक और प्यारा सा गाउन पहना था। पार्टी में पहुँचते ही उसके दोस्तों ने उसे ढेरों बधाई दी और कुछ पल की आरंभिक बातचीत के पश्चात सब आपस में बातों में मशगूल हो गए। कोई डांस कर रहा था तो कोई गीत गा रहा था अनंता भी आज अपने पुराने दोस्तों से मिलकर अत्यधिक प्रसन्न थी। इधर शुभम सबसे अलग-थलग हो गया था। अनंता के केक काटने की बारी आई और ये औपचारिकता निभाने के पश्चात अनंता ने सबको अपने हाथो से केक खिलाया और कहा , "अच्छा चलो मेरा तोहफा तो निकालो। सब एक साथ हँस पड़े। हाँ हाँ क्यों नहीं। सबने एक एक कर बेशकीमती तोहफे दिए। अच्छा यार गिफ्ट तो खोल के दिखा क्या क्या मिला है। उसकी एक मित्र ने कौतूहल वश कहा।
"हाँ अभी लो अनंता ने एक एक कर गिफ्ट खोला। सुन्दर बेशकीमती तौफे थे। आखिरी में अनंता ने शुभम का गिफ्ट खोला उसमें एक सफेद गुलाबी रंग की साड़ी थी देखते ही सब ने कहा वाह! बहुत सुंदर है। तभी एक अनंता की दोस्त ने चुटकी लेते हुए कहा , यह क्या होने वाले पतिदेव से तो हीरो का हार मिलना चाहिए। वो भी एक रईस बाप की बेटी के लिए। अनंता ने बात को संभालते हुए कहा मेरे शुभम ही मेरे लिए हीरा है। फिर मुझे हीरे के हार की क्या जरूरत " उसने शुभम के बाहों में अपनी बाहें डालते हुए कहा।। "हाँ यार यह तो है। यू आर लकी।" दूसरे मित्र ने कहा। पार्टी देर तक चलती रही किंतु शुभम को तो सीने मै जैसे एक साथ कई तीर लग चुके थे। वो एक घायल पक्षी की तरह छटपटा रहा था। किसी प्रकार से जल्द से जल्द वाहाँ से निकल जाना चाहता था। अपने दिल के घाव भरने के लिए उसने शराब का सहारा लिया। अनंता शुभम की पीड़ा से वाकिफ थी। इसलिए उसने किसी काम का बहाना बनाकर पार्टी जल्दी ही ओवर कर दिया। "ओके फ्रेंड्स फिर मिलते है।" और कहकर शुभम के बाहों में बाहे डाले किसी प्रकार कार तक पहुंची। शुभम आज गाड़ी मै चलाऊंगी, तुम होश में नहीं हो।"
"ओ.. ओ.. के। लड़खड़ाती आवाज़ में उसने उत्तर दिया। 'वैसे भी हमारे जीवन की असल चालक तो तुम्हीं हो अनंता , मै तो सिर्फ एक सह यात्री बनकर रह गया हूं। मेरी कोई हैसियत ही नहीं रही।' वो बड़बड़ाया किन्तु आवाज़ इतनी थी कि अनंता के कानों में भी कुछ शब्द लड़खड़ाते हुए पड़े।
रात्रि के निश्तब्ध शांति और नशे के बावजूद भी शुभम का मन व्याकुल था। नींद आंखो से दूर थी। वो जागता रहा।
दूसरे दिन जब वो मिले शुभम गुमसुम सा बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था। शुभम को अपने किए पर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। ".. माफ कर दो अनंता।" इससे पहले कि वह कुछ और बोलता है उसने उसके होठों पर अपनी उंगली रख दी।
"..नहीं शुभम बल्कि तुम मुझे माफ़ कर दो। मै तुम्हारा उतना ख्याल नहीं रख पाई।"
"आईं एम ओके।" शुभम ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।
"अच्छा ये तो बताओ कि तुम्हे कैसे मालूम कि मुझे सफेद और गुलाबी रंग पसंद है।"
" ऑफिस में तुम्हें अधिकतर यही रंग पहनते देखा है।"
" अच्छा तो जनाब की नजर हमारे परिधान पर भी रहती थी। , "अच्छा आज एक और खुशखबरी सुनानी है।" अनंता ने उसके करीब आते हुए कहा।
" मुझे ऑफिस से किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में विदेश जाने का ऑफर मिला है और साथ में तुम भी चलना। " उसके बाहों कि पकड़ ढीली पड़ने लगी। बनावटी मुस्कान लाते हुए कहा, "अरे वाह मेरी गुणी अनंता। "
"इसी महीने के आखिरी में निकलना है। इसलिए तुम तैयारी कर लेना।"
"देखता हूँ ऑफिस से छुट्टी मिलती है या नहीं।"
"कोशिश करोगे तो जरूर मिल जाएगी और तुमने कितने महीने से छुट्टी भी तो नहीं ली है। अकेले नहीं जाऊँगी मैं।" उसने तुनक कर कहा।
"अच्छा बाबा मैं कोशिश करता हूँ। '
कुछ दिनों से अनंता शुभम के व्यवहार में अजीब सा परिवर्तन महसूस कर रही थी। वो अक्सर उसे मौन, गंभीर मुद्रा में ही देखती। छुट्टी वाले दिन भी वहां अधिकांश समय अपने दफ्तर के फाइलों में ही गुजारता। उसने परेशान देख कर उसने पूछा। "क्या हुआ शुभम आजकल तुम गुमसुम से रहने लगे हो कोई परेशानी है तो तुम खुलकर बताओ शायद मै तुम्हारी कुछ मदद कर पाऊ।" उसने उसके करीब बैठकर उसके कंधो पर अपने बाहों के सहारा देते हुए कहा।
"आजकल ऑफिस में काम अधिक हो गया है। "उसने फ़ाइलों में नजरे गड़ाए हुए बोला।
" अनंता ने शुभम का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा ," इधर देखो मेरी आँखो में क्या तुम्हे मुझमें या मेरे व्यवहार में किसी प्रकार की कमी दिखती है? मैं और तुम अलग तो नहीं ना शुभम , मै तुम्हारी होने वाली अर्धांगिनी हूँ तुम्हारे सुख दुख की साथी। "
'तुम्हारी यही अच्छाई और प्रेम ही तो है जो मुझे भीतर ही भीतर खाए जा रही है। तुम इतनी अच्छी क्यों हो अनंता ! मैंने तुम्हे पहले ही कहा था कि मै तुम्हारे लायक नहीं बावजूद इसके तुमने मेरे घर का ही रास्ता चुना। मैं एक असफल इंसान हूँ तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहता। मैं बहुत छोटा हो गया हूँ तुम्हारे समक्ष। 'वो मन ही मन बुदबुदाया
"शुभम कहाँ खो गए। "
" ..हमम.. नहीं तो! तुम कहो।"
"उस दिन की पार्टी के बाद से ही तुम खोए खोए से लग रहे हो। "
"मैं तुम्हारी भावनाओं की कद्र करती हूँ शुभम , किंतु दुनिया के मत और जुबान पर तो हमारा कोई काबू नहीं। उनकी बातो को अपने अतःस्थल तक जाने ही मत दो। स्वाभिमानी होना ठीक है परंतु इतना भी नहीं कि तुम टूट जाओ। कुछ बातो को अपने पैरों तले दबा कर रखना भी सीखो। अच्छा तुम ही बताओ मैं तुमसे आज ओहदे में छोटी होती तो क्या तुम मेरी कदर नहीं करते ? फिर एक होने वाली पत्नी की तरक्की को तुम्हारा मन स्वीकर क्यों नहीं करता।" अनंता ने विनय पूर्ण लहज़े में कहा।
अनंता के सपोर्ट के बावजूद भी शुभम अपने विचारो के भवर में ही फंसा महसूस करता। दिन रात वही सब बाते उसके जेहन में तूफान मचाती रहती। और वो एक तैराक कि भांति असफल प्रयास के बावजूद भी निकल नहीं पा रहा था।
"आज समाज कल को मेरे बच्चें ! नहीं नहीं ये मुझे बिल्कुल भी गवारा नही।" वो मन ही मन सोच रहा था। उसके भीतर एक गहरी खाई बनती जा रही थी और वो स्वतः उसमे फिसलता जा रहा था।
शुभम की मानसिक हालत देखते हुए अनंता ने विदेश में प्रोजेक्ट लेने से मना कर दिया।
इधर शुभम को परेशान देखते हुए उसने उसके घर भी आना जाना कम हो गया था।
समय का पहिया कहाँ रुकता है। समय बीतने के उन पर शादी का दबाव आने लगा।
अनंता के हर संभव प्रयास के बावजूद भीअब वो जिस हीनता के घेरे में फँस चुका था वहाँ अब उसे अंधकार ही दिख रहा था।
" नहीं अनंता , ..तुम्हें तो पहले ही कहा था कि मै तुम्हारे लायक नहीं बावजूद इसके तुमने मेरे घर का ही रास्ता चुना। मैं चाहकर भी अपने भीतर भावनाओं के भंवर से निकल नहीं पा रहा हूं। मैं तुम्हारे लायक नहीं। मै तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहता। मुझे माफ़ करना अनंता।' उसके मन में उमड़ रहे विचार उथल पुथल मचा रहे थे।
एक रात वो अनंता को छोड़कर किसी अनजान राह पर निकल गया। ' मैं जा रहा हूँ अनंता, जबतक अपनी मंज़िल , तुम्हारे लायक नहीं बन जाता तब तक नहीं लौटूंगा। किंतु अब मैं और यहाँ रहा तो ग्लानि से कभी उबर नहीं पाऊँगा और मैं अपने साथ-साथ तुम्हें भी तकलीफ देता रहूँगा। "
सुबह जब अनंता जब ऑफिस पहुंची उसके टेबल पर रखी चिट्ठी मिली, ये कैसी चिट्ठी है उसका दिल एक दम से धक हुआ। पढ़ते हुए उसके हाथ कांप रहे थे। उसे विश्वास ही नहीं हुआ। उसका मुख विवर्ण हो उठा आँखो की चमक फीकी पड़ गई। उसने बड़ी मुश्किल से अपने हथेलियों से दीवार का सहारा लेते हुए पत्थर सी बैठी रही। 'तुम भी सिद्धार्थ ही निकले। सिद्धार्थ तो कम से कम सत्य की खोज में निकले थे और तुम ?! कमजोर इंसान , बुजदिल कहीं के। क्या ये मंज़िल साथ रहकर प्राप्त नहीं की जा सकती थी। आखिर क्या कमी थी मुझमें। कभी कोई शिकायत की क्या ? क्या प्रेम करने का इतना बड़ा मोल चुकाना पड़ता है। सिर्फ तुम्हारा प्रेम ही तो चाहा। ' ... आज पहली बार उसे अपने जीवन साथी के चुनाव पर अफसोस हो रहा था।
'तुमने जिंदगी को सिर्फ अपने नजरिए से देखा शुभम ! इसलिए मुझे कभी समझ नहीं पाए। एक मुसाफिर बनकर रह गए। और मुसाफिर बनकर चले गए। काश कि तुम उस दिन रेल यात्रा में ना मिले होते। खैर ! मेरे लिए ना सही पर अपने माता पिता के लिए ही .. लौट आना मुसाफिर।
तुम्हारी प्रतीक्षा में अनंत काल तक
अनंता..
पूनम सिंह।