एडजस्टमेंट: एक बड़ी दुविधा
एडजस्टमेंट: एक बड़ी दुविधा
कविता-- एजी सुनते हो, घर में कुछ समान नहीं है हल्दी, मिर्च नमक लेते आना जरा l
मोहन- क्या अगले हफ्ते ही तो लाया था,
कविता-- तो क्या मैंने रुखा खा लिया सब्जी भी तो
बन रही है दोनों टाइम, अब चटनी से तो आपके गले से उतरता नहीं, तो मैं क्या करुं??
मोहन-- अच्छा तो अब तेरी नजर मेरे खाने पर है
एडजस्ट तो तुझसे किया नहीं जाता l
कविता -- ओह्ह एडजस्ट, बही तो पिछले 20 सालों से कर रही हूं l
इसलिए तो तुम्हारा दिमाग़ ख़राब है, अच्छा अच्छा खाना तो बहुत अच्छा लगता है, पर जब खर्चा की बात आये तो गलियां सुनो,
अब जितना लाओगे उतना ही बनाउंगी बस बहुत हुआ ड्रामा अब नहीं सहा जाता l
जब देखो पैसे कहाँ गए इतना समान कैसे खतम हो गया, जैसे मेरे मायके बालों को दे देती हूं मैं!!
ये जो चार चार बच्चे हैं बो दिन में चार बार खाते हैं,
तुम तो बाहर रहते हो, इनका पेट भराऊँ की नहीं
और तो और उनको पैसे भी चाहिए, कभी मैगी चाहिए तो कभी कुरकुरे l
अब खुद को ही देख लो कभी कोपते खाने हैं, तो कभी पकोड़ी, तेल क्या तुम्हारी नन्सार से आता है??
ए!!! मेरी नन्सार पर मत जा, बनाना है तो बना,
बरना जा अपने बाप के घर, जिसने तुझे पति की इज्जत करना नहीं सिखाया l मोहन गुस्से से बोला l
अच्छा !! इज्जत, इज्जत तो बस तुम्हारी है, हम तो
बेइज्जत पैदा हुए थे l कविता मुँह बनाते हुए कहती है l
औरत है औरत बन के रह, बहुत मुँह चल रहा है तेरा, साली दो हाथ लगा दिए तो रोती फिरेगी l
कविता -- ओये अब तू भी अपनी औकात में रह साले, आदमी है आदमी की तरह रह, और अब तो मैं एडजस्ट करने से रही जितना लाएगा उतना ही
बनाउंगी l
तेरा दिमाग़ ख़राब कर दिया है इस एडजस्टमेंट ने l
इतने में चारों बच्चे आ गये........................
मम्मी हमारी किताब में एक सबाल है, बता दो ना
कविता -- बोल
बच्चा --- व्हाट इज एडजस्टमेंट, एक्सप्लेन प्लीज...........
