दया और दान

दया और दान

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रोहित सुबह कोचिंग से घर लौटकर अपनी साईकिल टिका ही रहा था कि एक बड़ी तेज चिल्लाने की आवाज उसे सुनाई पड़ी। मुड़कर देखा तो देखा कि गेरूवे वस्त्र पहने साधु जैसा दिखने वाला एक बूढ़ा बड़े विचित्र अंदाज में राम कहता हुआ गली का चक्कर लगा रहा था। सब बड़े ही कौतूहल के साथ उसे देख रहे थे। वो राम ऐसे कह रहा था की र और म के बीच बहुत अंतर हो जाता था , अर्थात आ की मात्रा का उच्चारण बहुत ही लम्बा करता था। वो किसी की भी तरफ नहीं देख रहा था। बस अपनी ही धुन में मगन होकर तेज कदमो से गली का चक्कर लगा रहा था रोहित के पिता केशवदास जी भी बड़े ध्यान से ये सब देख रहे थे। वो बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के सज्जन थे और किसी पर भी बहुत ही जल्दी विश्वास कर लेते थे। अपने इस स्वभाव के कारण वो कई बार ठगी का भी शिकार हुए थे , पर उनका स्वभाव बदलता नहीं था। बहुत बार ऐसे साधुओं और भिखारियों को उन्होंने घर के अंदर हॉल में और बरामदे में बैठाकर खाना भी खिलाया था , और सौ -पचास रूपये तक दक्षिणा में भी दिए थे। पर रोहित को यह सब अच्छा नहीं लगता था। इसलिए जब भी वो घर के आस -पास किसी साधु बाबा या भिखारी को देखता तो उसे टेंशन होने लगती थी की कहीं उसके पिता की नज़र उन पर ना पड़ जाए। कई बार तो ऐसे किसी मांगने वाले की आवाज सुनते ही वो अंदर से घर के दरवाजे पर दौड़कर आ जाता था और एक-दो रुपए देकर या बिना कुछ दिए उन्हें भगा दिया करता था। अपने पिता की अतिशय दयालुता और दान-दक्षिणा की प्रवृत्ति उसे बिल्कुल भी पसंद नहीं थी उसके मन में ये धारणा घर कर गई थी कि दान सिर्फ योग्य व्यक्ति को ही दिया जाना चाहिए न कि हर किसी को। लेकिन केशवदास जी का मानना था किसी की योग्यता का निर्धारण करने वाले हम कौन होते हैं ? ये कैसे तय हो कि कौन कुपात्र है और कौन सुपात्र ? हमारे हाथ में अपना कर्म है और उनके हाथ में उनका। वहीं इस विषय पर रोहित के छोटे भाई रोहन के विचार उनकी माँ सरला जी से मिलते थे। उन दोनों का ये मानना था  कि ऐसे लोगों को कुछ थोड़ी सी दक्षिणा देकर चलता कर देना चाहिए। यदि ये लोग कुछ काम-धंधा कर सकते तो फिर भीख क्यों मांगते ?उनकी द्रष्टि में इस मुद्दे पर ज्यादा सोचना अपना समय व्यर्थ करना था। सबके पास अपनी-अपनी सोच के समर्थन में अपने-अपने तर्क थे। कुल मिलाकर दया और दान उन चारों के बीच वाद-विवाद का विषय थे और जब भी कोई मांगने वाला उनके दरवाजे पर आता था , तो कई बार उन चारों के बीच एक ऐसी बहस छिड़ जाती थी जो आज तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची थी।


अब इस बाबा और उसके प्रति अपने पिता की चिर-परिचित दयालुता की द्रष्टि देखकर रोहित का सिर भन्ना गया। इससे पहले की वह कुछ कह पाता, केशवदास जी ने बाबा को रोक लिया और पूछा -"कौन हो बाबा और कहाँ से आये हो ?" बड़ी ही शांत द्रष्टि से केशवदास जी को देखकर बाबा ने उत्तर दिया -"हम मैहर वाले रामानंद बाबा हैं। साल में केवल एक बार ही मैहर से बाहर निकलते हैं। कुछ दिन नगर में घूमकर वापस लौट जाते हैं। " "ठीक है बाबा"-केशवदास जी बोले -"आप ने अभी कुछ खाया-पिया है या नहीं ? चाहें तो मेरे यहाँ भोजन ग्रहण करें।" ये बात सुनकर बाबा हल्की सी मुस्कुराहट के साथ बोला-"ठीक है बेटा। माता तुझ पर कृपा करेगी।" विनम्रतापूर्वक केशवदास जी ने बाबा से कहा -"चलिए बाबा, अंदर चलिए" और उसे घर के हॉल में ले आये। उनके पड़ोसी वर्मा जी और मिश्रा जी भी साथ में अंदर आ गए जो उस समय केशवदास जी से बातें कर रहे थे। अनमने मन से रोहित भी अंदर आ गया।


सबको सोफे पर बैठाकर केशवदास जी अंदर चले गए। कुछ समय के बाद वापस आकर बोले -"बाबा, थोड़ी देर में खाना लग जाएगा। आप तब तक हाथ-मुंह धो लो।" "ठीक है बेटा" - कहकर बाबा केशवदास जी के साथ बाथ रूम की ओर चला गया। तब रोहित की सूरत देखकर मिश्रा जी बोले - "क्या बात है रोहित ? बड़ी टेंशन में लग रहे हो।" रोहित ने बात टालने की कोशिश की - "कुछ नहीं अंकल।" "क्या तुम्हे ये बाबा भी ठग लग रहा है?" - रोहित के चेहरे के भाव समझ कर वर्मा जी ने हल्की सी हँसी के साथ कहा। ये बात सुनकर रोहित ऐसे झेंप गया जैसे वर्मा जी ने उसके मन की बात जान ली हो। उसने कुछ नहीं कहा। "सब एक जैसे नहीं होते भैया।"-रोहन ने खाने की थाली और पानी का गिलास टेबल पर रखते हुए कहा -"कुछ बुरे लोगों के कारण हमें सब पर संदेह नहीं करना चाहिए।" "तू ज्यादा ज्ञान मत दे" - रोहित ने  खीझते हुए रोहन से कहा -"बहुत देखे हैं मैंने ऐसे। शुरुआत में सब बड़ी अच्छी-अच्छी बातें करते हैं। फिर बाद में फैलने-पसरने लगते हैं। ये भी उसी कैटेगिरी का लग रहा है।" "ये तुम्हारे मन की धारणा है" - रोहन ने भी चिढ़कर कहा - "तुम्हे कोई नहीं समझा सकता।" इससे पहले कि कोई और कुछ कहता, वर्मा जी ने उंगली से चुप रहने का इशारा करते हुए हॉल की तरफ आते हुए केशवदास जी और बाबा की ओर संकेत किया।


टेबल पर रखी थाली देखकर बाबा ने कहा -"थाली नीचे रख दो बेटा। हम जमीन पर बैठकर भोजन करते हैं।" "आराम से सोफे पर बैठिये ना बाबा" -मिश्रा जी ने कहा। "नहीं बेटा, हम साधु-संत इन सब सांसारिक मोहमाया से दूर रहते हैं। हम तो जमीन पर ही बैठकर खाते हैं।"-बाबा ने कहा। "जैसा आप ठीक समझो बाबा, पर कम से कम चटाई पर बैठ जाओ" - केशवदास जी बोले। उन्होंने वहीं कोने में रखी एक चटाई फर्श पर बिछा दी। रोहन ने थाली और गिलास टेबल से उठाकर चटाई पर रख दिए। बाबा थाली के सामने चटाई पर बैठ गया।  फिर गिलास से थोड़ा पानी दाएं हाथ की अंजुलि में लेकर थाली के चारों तरफ घुमाकर गिराया। फिर दोनों हाथ जोड़कर, आँखे बंद करके कुछ मंत्र सा बहुत ही धीमी आवाज में बुदबुदाने लगा। फिर ऑंखें खोलकर बाबा ने खाना चालू किया। केशवदास और मिश्रा जी यह सब देखकर बाबा से बड़े प्रभावित हुए। खाना खाते हुए बाबा ने केशवदास जी से कहा - "और बेटा, घर में सब कुशल मंगल है ना।" "जी बाबा "-केशवदास जी ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया। बाबा ने खाना कहते हुए सर घुमाकर जैसे घर का निरीक्षण सा किया, फिर कुछ पलों के लिए ऑंखें मूँद लीं , फिर ऑंखें खोलकर केशवदास जी से कहा - "लगता है कि आपके माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका है।" ये बात सुनकर सब चौंक गए। बाबा की तरफ कुछ आश्चर्य के भाव से देखकर केशवदास जी बोले - "हाँ बाबा, दो वर्ष बीत चुके हैं। पर आपको कैसे पता?" केशवदास जी के प्रश्न का उत्तर ना देकर बाबा ने उनसे ही एक प्रश्न पूछ लिया - "क्या तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु में बहुत कम अंतर था ?" "जी बाबा" - ये कहते हुए केशवदास जी के चेहरे पर आश्चर्य के साथ-साथ दुःख के भी भाव थे -"पिताजी के देहांत के तीन महीने बाद माताजी का भी देहांत हो गया था। पर आपको ये सब कैसे पता।" "सब समझ में आ रहा है बेटा। बाबा को माता की कृपा से सब पता चल जाता है।" केशवदास जी असमय अपने मृत माँ-बाप की चर्चा से कुछ भावुक हो गए थे। उनके चेहरे से दुःख स्पष्ट झलक रहा था। उनकी तरफ देखकर बाबा ने कहा - "वो तो इस असार संसार को छोड़कर चले गए हैं बेटा, पर उनका आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। ये तो इस संसार का नियम है। सबको एक न एक दिन यहाँ से जाना होता है बेटा।" बाबा कि इस बात पर केशवदास जी ने गंभीर मुखमुद्रा में सिर हिलाकर स्वीकृति दी।  कुछ पलों के सब चुप रहे। माहौल गंभीर होता देखकर वहाँ खड़ी सरला जी ने, जो कि किचन से एक प्लेट में रोटियाँ लेकर आयीं थीं और इतनी देर से यह सब वार्तालाप चुपचाप सुन रहीं थीं, बाबा से कहा - "आपको कुछ और चाहिए क्या बाबा ? रोटियाँ रख दूँ क्या ?" "नहीं बेटा, जितना थाली में है, बहुत है। हम संत लोग थाली में उतना ही लेते हैं जितना खाना होता है। अन्न व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। अन्न का फिकना भगवान का अपमान होता है। अन्न ब्रह्म है।" "ठीक है बाबा, कुछ और चाहिए हो तो बता देना" - कहकर सरला जी किचन की ओर चली गयीं। 


खाना खाते हुए बाबा फिर बोले - "तुम लोग महाराष्ट्र के रहने वाले हो ना बेटा।" "हाँ बाबा" - केशवदास जी ने चकित भाव से बाबा की तरफ देखते हुए कहा - "हम लोग पूना के हैं। पिताजी ने बताया था की जब वो छोटे थे, तो मेरे दादाजी यहाँ आकर बस गए थे। पर आपको ये सब कैसे पता है बाबा ?" "सब माता की कृपा है बेटा। बाबा जिसके यहाँ भोजन करता है, रुकता है, माता उस भक्त के बारे में सब कुछ बता देती बाबा को। माता से क्या कुछ छुपा है भला। तुम्हारे कुछ रिश्तेदार छिंदवाड़ा की तरफ भी हैं ना" - बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा। "हाँ बाबा, मेरी ससुराल है वहाँ पर।" - केशवदास जी अभी भी बाबा को आश्चर्य की द्रष्टि से देख रहे थे, पर रोहित बाबा को संदेहास्पद नजरों से देख रहा था। रोहन, वर्मा जी और मिश्रा जी भी बड़े ध्यान से ये सब बातचीत सुन रहे थे, पर रोहन और वर्मा जी जैसे गहन विचार कर रहे थे जबकि मिश्रा जी के चेहरे पर आश्चर्य और जिज्ञासा के भाव थे। सरला जी भी किचन से वापस आ गयी थीं और बड़े गौर से सब सुन रहीं थीं, पर उनके चेहरे पर गंभीरता और शांति थी। पर सबका ध्यान बाबा पर ही केंद्रित था। फिर बाबा ने चुपचाप खाना खाया और खाना ख़त्म करके हाथ-मुँह धोने को कहा। केशवदास जी फिर बाबा को साथ लेकर बाथ रूम की ओर चले गए। सरला जी थाली उठाकर किचन की ओर चली गयीं।


रोहित तो जैसे इतनी देर से बोलने के लिए उतावला हो रहा था। वर्मा जी की तरफ देखकर बोल उठा - "सुनी आपने इसकी बातें अंकल। पक्का खिलाड़ी लगता है ये तो। हम लोगों के बारे में ये सब बातें तो शहर के बहुत से लोग जानते हैं। लगा था पापा को इम्प्रेस करने।" रोहित की बात सुनकर वर्मा जी हँस पड़े पर मिश्रा जी गंभीर स्वर में बोले - "तुम बहुत दूर की सोच लेते हो रोहित। हो सकता है सच में देवी उसको सब बताती हों। मैं अपने बचपन में खुद ऐसे लोगों से मिला हूँ जिनके पास सिद्धियाँ थीं। सब झूठे नहीं होते।" "अंकल, मैंने कब कहा की सब ठग होते हैं।" - रोहित ने थोड़ा झेंपते हुए कहा - "पर ये बाबा तो मुझे बड़ा चंट मालूम होता है। और........ "तू फिर शुरु हो गया" - रोहित की बात बीच में काटते हुए सरला जी बोलीं जो कि किचन से वापस आ गयीं थीं - "इतना दिमाग अपनी पढ़ाई-लिखाई में लगाया कर।" ये बात सुनकर रोहन, वर्मा जी और मिश्रा जी हँस पड़े और रोहित ने बुरा सा मुँह बना लिया। रोहित कुछ कहना चाह रहा था पर इतने में केशवदास जी बाबा के साथ हॉल की ओर आते दिखाई दिये। सब चुप हो गये। वे आकर सोफे पर बैठ गये। फिर केशवदास जी बाबा से बोले - "और बताओ बाबा, और क्या सेवा की जाए आपकी ? चाय पियोगे ?" "नहीं बेटा, हम चाय-कॉफ़ी नहीं पीते। रुकने की जगह चाहिये बस। अब आज की रात हम यहीं विश्राम करेंगे।" - बाबा ने बड़े सहज भाव से ये बात आज्ञा देने जैसे स्वर में कही। "जी बाबा?" - केशवदास जी के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा। उनके चेहरे पर घोर आश्चर्य के भाव थे।सिर्फ़ वो ही नहीं बाकी सब भी बाबा की ये बात सुनकर चकित रह गए थे। सबने पहले एक-दूसरे की तरफ देखा और फिर बाबा की तरफ। बाबा जैसे माहौल को भाँप गया और बड़े ही शांत स्वर में केशवदास जी से बोला - "हाँ बेटा, बाबा जब नगर में आता है तो भक्तों के घर ही रुकता है। तुम्हारी सेवा से हम बहुत खुश हैं बेटा। माता तुझ पर कृपा करेगी।" रोहित ने चेहरे पर गुस्से के भाव लाकर सरला जी को आँखों से संकेत सा किया। इससे पहले कि केशवदास जी बाबा से कुछ कहते, सरला जी ने उनसे कहा - "सुनिये, आप से कुछ जरूरी बात करनी है" - ऐसा कहकर सरला जी अंदर चली गयीं। केशवदास जी बाबा से - "अभी आता हूँ" -कहकर अंदर चले गये। रोहित और रोहन भी धीरे से उनके पीछे चले गये।

यह कहानी बहुत ही लम्बी है। पूरी कहानी यहाँ प्रकाशित करना संभव नहीं है। पूरी कहानी कृपया मेरी पुस्तक "दया और दान" में पढ़ें जो कि एमाज़ॉन किंडल पर उपलब्ध है।


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