Amit Soni

Classics Drama Tragedy

0.2  

Amit Soni

Classics Drama Tragedy

गरबा

गरबा

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रचना के कमरे से संगीत की तेज़ आवाज़ आ रही थी। म्यूजिक प्लेयर पर गरबा नृत्य का गाना बज रहा था। अपनी मस्ती में मगन रचना अकेले ही गाने की धुन पर थिरक रही थी। अचानक उसकी माँ सावित्री जी कमरे में नाश्ते की प्लेट लेकर आयीं और म्यूजिक प्लेयर बंद कर दिया। रचना ने चौक कर देखा तो देखा की माँ उसे गुस्से से घूर रही थी। नाश्ते की प्लेट को टेबल पर रखते हुए सावित्री ने कहा -"अब बस भी कर ! सुबह से शुरु हो जाता है तेरा ये गरबा-डांडिया। वक़्त का तो कुछ होश ही नहीं रहता तुझे। अब ये नाश्ता कर और काम पर जा।" अपने आँचल से चेहरे का पसीना पोंछती हुई रचना पास ही रखी हुई एक कुर्सी पर बैठ गयी और माँ को मनाने के अंदाज़ में बोली -"मुझे वक़्त का पूरा होश रहता है माँ। मेरी इतनी चिंता मत किया करो। मैं बस पाँच मिनट बाद प्रैक्टिस बंद ही करने वाली थी कि तुम आ गयीं।" पर सावित्री को रचना का ये उत्तर जैसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। मुँह बनाकर उसने कहा -"हाँ-हाँ, बहुत ध्यान रखती तू अपना।"-इतना कहकर सावित्री ने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया। रचना समझ गयी की बात क्या है। 


कुर्सी से उठकर सावित्री के सामने जाकर उसने कहा -"माँ, बात कोई भी हो, तुम्हारी सुई वहीं पर जाकर क्यों अटक जाती है। मुझे पता है तुम क्यों नाराज़ हो। तुमसे कितनी बार कहना पड़ेगा कि जब मुझे कोई अपने लायक लड़का पसंद आ जायेगा तो कर लूँगी शादी। कम से कम सुबह-सुबह ऑफ़िस जाने के पहले तो ये सब बातें मत किया करो। तुम्हारा ये दुःखी चेहरा देखकर मेरा भी फिर पूरे दिन मूड ख़राब रहता है।" उसी रुठे हुए अंदाज़ में रचना की तरफ देखकर सावित्री बोली -"तो फिर क्यों अपनी माँ की बात नहीं मान लेती? क्यों मेरा जी जलाती है? तुझसे उम्र में छह-सात साल छोटी लड़कियों तक ने शादी कर लीं। उनके बाल-बच्चे भी हो गए और तू अभी तक अपने लिए एक ढंग का लड़का तक नहीं तलाश पायी। हर लड़के में तुझे कोई ना कोई खामी नजर आ ही जाती है। आखिर कब तक मैं लोगों की बातों का जवाब दूँ? चार जनों के बीच उठते-बैठते अच्छा नहीं लगता।" 


सावित्री की ये बात सुनकर रचना का सिर भन्ना गया। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया और शरीर काँपने लगा। इस बार उसने थोड़ी तेज़ आवाज़ में सावित्री को उत्तर दिया और उसके मुँह से जैसे बड़ी मुश्किल से ये शब्द निकले -"लोगों और समाज की बातें मुझसे मत किया करो। किसने हमारा साथ दिया था जब पापा बीमार थे? हम पर हर जगह से मुसीबतें आ रहीं थी और किसी ने भी हमारी कोई मदद नहीं की। हाँ, ताने ज़रूर मारे सबने। किसी ने हमारे सामने हमारी बेइज्जती की तो किसी ने पीठ पीछे। किसी को हमारी तकलीफ़ से कोई लेना-देना नहीं था। इन्हीं लोगों की बातों के कारण हमें अपना शहर छोड़कर यहाँ आना पड़ा।"-इतना कहकर रचना चुप हो गयी।  रचना की ये दशा देखकर सावित्री घबरा गयी। रचना की आँखों में आँसू आ गए थे। 


अपनी साड़ी के पल्लू से रचना के आँसू पोंछकर सावित्री ने कहा -"तेरी बात ठीक है बेटा। पर हमें यहाँ आये हुए सात-आठ साल हो गए हैं। सब ठीक तो चल रहा है। कब तक उन पुरानी बातों को कलेजे से लगाकर बैठी रहेगी। हम रहते समाज में लोगों के बीच ही हैं। यही दुनिया की रीत है। तीस साल की हो गयी है तू। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाएगी, अच्छा लड़का मिलना उतना ही मुश्किल होता जायेगा। फिर बाल-बच्चे होने में भी समस्याएं होतीं हैं। आखिर मेरी भी तो इच्छा है मरने से पहले अपने नाती-पोतों का मुँह देखने की।" सावित्री की ये बात रचना को बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी। वो चीख़ पड़ी -"माँ !"-फिर खुद को संयत करके बोली -"ऐसी बातें मत किया करो। बड़ी मुश्किल से मैं तुम्हें और गोकुल को डिप्रेशन से उबार पायी हूँ।" सावित्री ने निराशा से सिर झुका लिया। सावित्री का सिर अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाकर और चेहरे पर जबरन मुस्कराहट लाकर रचना फिर बोली -"तुम बहुत जियोगी माँ और अपने नाती-पोतों को खिलाओगी भी। मेरी अच्छी माँ। अब तुम अपना मूड ठीक कर लो। मैं तैयार होती हूँ। मुझे ऑफ़िस के लिए देरी हो रही है।" इतना कहकर रचना बाथरुम की और चली गयी। सावित्री धीमी आवाज़ में बड़बड़ाती हुई -"हमेशा यही कहकर टाल देती है" - कमरे से बाहर चली गयी।


थोड़ी देर बाद रचना नाश्ता करके ऑफ़िस के लिए निकल गयी। रास्ते भर उसके दिमाग में घर का घटनाक्रम घूमता रहा। महीने में दो-तीन बार तो माँ से उसकी ये सब बहस हो ही जाती थी। पर वो करती भी तो क्या? माँ अपनी जगह सही थी और वो अपनी जगह। पर ये वार्तालाप हमेशा उसके दुःखद अतीत को उसके सामने लाकर रख देता था। रचना का परिवार इंदौर का रहने वाला था। उसके पिता श्री अभिषेक आचरेकर लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर थे। खुश हाल परिवार था। किसी चीज की कमी नहीं थी। पर उसके बड़े भाई विकास की शादी के बाद जैसे सब कुछ बदलने लगा। उसकी भाभी शशि को उनके साथ रहना पसंद नहीं था। हमेशा झगड़ा करने का बहाना ढूँढती थी। पर उसकी माँ सावित्री हर बार बात को टालने की कोशिश करती। वो नहीं चाहती थी की उनका परिवार टूटे। तब रचना कॉलेज में स्नातक के द्वितीय वर्ष में थी और गोकुल स्कूल में आठवीं में। शादी के बाद विकास के व्यवहार में भी बदलाव आ गया था। वो शशि का ही ज्यादा पक्ष लेता था। वो भी घर से अलग होकर शशि के साथ दूसरा घर लेकर रहना चाहता था, पर पिता के सामने उसकी बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। वैसे उसकी ऑटो पार्ट्स की दुकान बहुत अच्छी चल रही थी, पर पैतृक संपत्ति में वो अपना हिस्सा छोड़ना नहीं चाहता था। यदि लड़-झगड़कर घर से अलग होता तो पिता जी उसे जायदाद में से कुछ भी न देते। इसलिए मन मसोस कर परिवार के साथ रह रहा था।


परिवार में चल रही कलह का अंदाजा अभिषेक को लग गया था। इसलिए उन्होंने रचना के लिए लड़का ढूँढना चालू कर दिया है। जल्द ही एक अच्छा लड़का मिल भी गया और शादी की बात तय भी हो गयी। रचना पहले अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी पर पिता के आगे उसकी एक ना चली और उसकी सगाई कर दी गयी। सावित्री बड़े उत्साह से शादी की तैयारियों में लगी थी कि एक दिन अचानक अभिषेक जी की तबियत बहुत बिगड़ गयी और वो बेहोश हो गए। तुरंत उन्हें शहर के एक अच्छे निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। अभिषेक की हालत नाज़ुक बनी हुई थी पर उन्हें होश आ गया था।

अगले दिन अभिषेक के खून की जांच करके डॉक्टर ने बताया की उसे एड्स था। सावित्री को तो ये सुनकर ही चक्कर आ गया। रचना को इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। रचना ने डॉक्टर से दोबारा जाँच करने के लिए कहा। पर डॉक्टर ने रचना की बात ये कहकर अस्वीकार कर दी कि सभी जाँचें हो चुकी हैं और सभी रिपोर्ट्स सही हैं। उनमें ग़लती की कोई भी गुंजाइश नहीं है जो दोबारा जाँच की जाए। रचना सिसक-सिसक कर रोने लगी। साथ आये पड़ोसी शर्मा अंकल ने उसे धीरज बंधाया। सब सकते में थे। थोड़ी देर बाद अभिषेक की बीमारी की बात सबसे, यहाँ तक कि शशि से भी गोपनीय रखने की कहकर सावित्री ने विकास को घर से कुछ ज़रुरी सामान लाने के लिए भेज दिया।


विकास के जाने के बाद सावित्री, रचना और शर्मा जी, अभिषेक के कमरे में आये। अभिषेक के चेहरे पर गहन दुःख के भाव थे। रचना और शर्मा जी अभिषेक के पलंग के सामने रखी बेंच पर बैठ गए और सावित्री, अभिषेक के सिर के पास रखे स्टूल पर। इससे पहले कोई कुछ कहता, अभिषेक ने खुद ही कहना चालू कर दिया -"सावित्री, रचना बेटा, मैं आज तुम सबको एक सच बताना चाहता हूँ। ये बात शर्मा जी को भी पता है। पर मेरे कहने पर वो तुम सबसे छुपाते रहे। अब तुम सबको ये बताने का समय आ गया है।" शर्मा जी कुछ कहना चाह रहे थे, पर अभिषेक ने उन्हें उंगली के इशारे से रोकते हुए कहा -"चार साल पहले मेरे ऑफ़िस में क्लर्क की पोस्ट पर रेखा मेहरा की नियुक्ति हुई। वो मेरे अंडर ही काम करती थी। बातचीत करते-करते पता नहीं हम कब एक-दूसरे के बहुत ज्यादा नज़दीक आ गए, समझ ही नहीं आया। वो उम्र में रचना से दो साल बड़ी और विकास से छोटी ही थी, पर हम दोनों को इसका खयाल नहीं रहा और हमारे बीच वो सब होने लगा जो एक पति-पत्नी के बीच ही होना चाहिए।" इतना सुनते ही सावित्री -"अरे देवा !"- कहकर, दोनों हाथ चेहरे पर रखकर सिसकने लगी। शर्मा जी सिर झुकाकर नीचे फर्श की तरफ देखने लगे। रचना घोर अविश्वास से आँखें फाड़ कर अपने पिता को देख रही थी। अभिषेक ने फिर कहना चालू किया -"मेरे ऑफ़िस में सबको इस बात का पता चल चुका था, पर मेरे सीनियर होने के कारण कोई कुछ कहता नहीं था। शर्मा ने मुझे बहुत समझाया, पर मैं नहीं माना। कुछ समय बाद रेखा की तबियत बिगड़ गयी। अस्पताल ले जाने पर डॉक्टर ने बताया कि उसे एड्स था। तब रेखा ने मुझे बताया की उसके और भी कई पुरुषों से नाजायज सम्बन्ध थे। वो पैसों के लिए ये सब करती थी। कुछ महीनों बाद उसकी मौत हो गयी। मुझे अपनी करनी पर बहुत पछतावा हुआ। तभी मैंने सोच लिया कि अब जल्दी से रचना की शादी कर दूँ क्यों कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। मेरी तुम लोगों से एक ही विनती है कि रचना की शादी तक ये सच किसी को पता नहीं चलने देना।" इतना कह कर अभिषेक रोने लगे। रचना के चेहरे पर गुस्सा और दुःख दोनों के भाव थे, पर उसकी आँखों में भी आँसू थे।


शर्मा जी ने अभिषेक को धीरज बंधाते हुए कहा -"खुद को सम्भालो अभिषेक और हम पर भरोसा रखो। रचना मेरी भी बेटी है। उसकी शादी की जिम्मेदारी मेरी है।" अभिषेक ने रोते हुए ही अपने मित्र की तरफ देखकर कृतज्ञता में सिर हिलाया। पर किसी को ये बात पता नहीं चली कि विकास सामान लेने नहीं गया था बल्कि छुप कर उन सबकी बातें सुन रहा था। उस तनाव और दुःख भरे माहौल में दरवाज़ा ढंग से बंद करने का किसी को ध्यान ही नहीं रहा। वो एकदम झटके से अंदर आया, कमरे का दरवाज़ा बंद किया और उसने अभिषेक को खूब बुरा-भला कहा। सबने उसे समझने की बहुत कोशिश की पर वो नहीं माना। शोर सुनकर हॉस्पिटल के स्टाफ के लोग वहाँ आये और दरवाज़ा खुलवाया। उन्होंने सिर्फ एक व्यक्ति को छोड़कर बाकी सबको तुरंत कमरे से बाहर जाने को कहा। पर जाते-जाते विकास धमकी दे गया कि यदि घर और सारी जायदाद रचना की शादी के पहले उसके नाम नहीं किये गए तो वो अभिषेक की बीमारी की बात सबको बताकर रचना की शादी तुड़वा देगा। विकास के इस व्यवहार से सब दंग रह गए। अभिषेक को गहरा सदमा लगा और उसकी तबियत फिर बिगड़ गयी। शर्मा जी और रचना को अभिषेक के पास छोड़कर सावित्री घर आयी विकास से बात करने के लिए पर वहाँ विकास और शशि ने उसे जी भरकर बुरा-भला कहा। वो दोनों इस बात पर अड़ गए कि रचना की शादी के पहले ही उन्हें ये घर और सारी संपत्ति चाहिए। सावित्री भारी मन से वापस लौट आयी। पर अस्पताल आने पर पता चला कि अभिषेक नहीं रहे। सावित्री बेहोश होकर गिर पड़ी। रचना और नर्स ने बड़ी मुश्किल से उसे संभाला। अभिषेक की मौत की खबर पाकर विकास का चेहरा उतर गया। उसे इस बात का ज्यादा दुःख था कि उसके पिता संपत्ति उसके नाम करने से पहले ही गुजर गए।


अभिषेक का शव घर लाने के बाद सावित्री और रचना सभी रिश्तेदारों के आने का इंतजार ही कर रहे थे कि विकास एक वकील को लेकर घर आ गया और उसने सावित्री के सामने शर्त रखी की जब वो वसीयत करेगी, तभी वो अभिषेक का अंतिम संस्कार करेगा। सावित्री ने उसे धिक्कारा पर उस पर कोई असर ना हुआ। तब तक शशि के माँ-बाप भी आ चुके थे और उन्होंने विकास का ही साथ दिया। पर तब शर्मा जी और उनके एक और पड़ोसी राव साहब ने सबको ये कहकर चौंका दिया कि अभिषेक को उसकी बीमारी का पता रेखा की मौत के बाद ही चल गया था और विकास और शशि के इरादों को भाँपकर उन्होंने अपनी वसीयत एक साल पहले ही चुपचाप कर दी थी, जिसकी जानकारी केवल उनके और उनके वकील साहब के अलावा किसी को नहीं थी। शर्मा जी और राव साहब ही उस वसीयत के कानूनी गवाह थे। और उस वसीयत के अनुसार ये घर, भविष्य निधि का पैसा, पैंशन, जीवन बीमा की राशि, सारे जेवर, बैंक में जमा राशि और अपनी कार उन्होंने सावित्री, रचना और गोकुल के नाम कर दिया था। विकास के नाम पर उनका दूसरा मकान जो कि किराये से चल रहा था, और उसकी ऑटो पार्ट्स की दुकान कर दी थी। इसके अलावा विकास को दस लाख रुपये दिए थे और वो जेवर भी दिए थे जो विकास की शादी में शशि को दिए थे। विकास और शशि ये सुनकर आग बबूला हो गए और शर्मा जी और राव साहब को बुरा-भला कहने लगे। विकास शर्मा जी और राव साहब के समझाने पर उनसे हाथापाई करने लगा। शोर सुनकर आये पड़ोसियों ने बीच-बचाव किया। तब तक अभिषेक और सावित्री के सारे रिश्तेदार भी आ गए थे।

यह कहानी बहुत ही लम्बी है। पूरी कहानी यहाँ प्रकाशित करना संभव नहीं है। पूरी कहानी कृपया मेरी पुस्तक "दया और दान" में पढ़ें जो कि एमाज़ॉन किंडल पर उपलब्ध है।


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