संस्कार

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वो सन् 2009 के मई के महीने की झुलसा देने वाली गर्मी का एक दिन था। श्रीकांत और उसके सभी साथी प्लेटफार्म पर खड़े गाड़ी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्लेटफार्म पर बहुत भीड़ थी और उन्हें कहीं भी बैठने के लिये जगह नहीं मिली थी। अंशुल किसी तरह प्लेटफार्म पर लगे खंभे के चारों ओर बने चबूतरे पर जगह बना कर बैठ गया था। वहॉं पहले से ही बहुत लोग बैठे हुए थे। उसी की देखरेख में अपने बैग छोड़कर श्रीकांत, राजेश, और अतुल, प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहे थे। रुमाल से अपने चेहरे पर हवा करते हुए राजेश ने श्रीकांत से पूछा-”तुझे क्या लगता है? कितने आंसर सही हैं तेरे?” गंभीर मुद्रा में कुछ सोचते हुए श्रीकांत ने उत्तर दिया-”यार, शुरुआत के तीन तो ठीक गये। पर चौथे और पॉंचवे में मैं श्योर नहीं हूँ। सबसे मैन क्वशचन तो चौथा ही था। उसी में गड़बड़ हो गयी। मुझे तो अपना कोई चांस नहीं लगता।” ऐसा कहकर श्रीकांत ने अतुल की तरफ देखा। श्रीकांत का मंतव्य समझकर अतुल ने मुस्कुराते हुए कहा- ”भाई, मेरी तरफ ऐसे मत देख। मुझे भी अपना कोई चांस नहीं लगता। मेरे भी केवल तीन ही सही हुए हैं। चौथे में तो मैं भी श्योर नहीं हूँ और पॉंचवे का तो पूरा उत्तर लिख भी नहीं पाया। चौथे में ही बहुत ज्यादा टाइम लग गया।” राजेश ने अतुल से सहमति जताते हुए कहा-”सही कहा यार। ये चौथा सवाल था ही बहुत कठिन। क्या पता किसी से ये प्रोग्राम सही बना भी है कि नहीं।” कुछ सोच कर श्रीकांत ने कहा-”मुझे लगता है अंशुल से जरूर बन गया होगा। उसके चेहरे की खुशी देखी थी? मुझे पक्का यकीन है कि उसका सिलेक्शन हो जाएगा।” राजेश और अतुल ने सहमति में सिर हिलाया। रूमाल से पसीना पोंछते हुए राजेश बोला- ”हम सब में सबसे बड़ा रट्टू तोता तो वही है। और दिमाग भी तेज है उसका। उसका सिलेक्शन तो पक्का है।” कोई और कुछ कहता उसके पहले ही उनके और भी क्लासमेट अपने बैग टांगे हुए उनके पास आ गये। सब गर्मी से परेशान थे। तब अतुल ने कहा- ”चलो यार, कुछ ठंडा पीते हैं। जान निकली जा रही है गर्मी से।”सब वहीं पास ही लगी एक फूड स्टॉल पर चले गये।


उनके कोल्ड ड्रिंक्स पीते-पीते ही ट्रेन यार्ड से आकर प्लेटफार्म पर लग गयी। डिब्बों के गेट खुलते ही सबने अपनी-अपनी सीटों पर जाकर बैठ गये। सबने डिब्बों की खिड़कियॉं खोल दीं और पंखे चालू कर दिये। थोड़ी देर बाद श्रीकांत वाले डिब्बे में दूसरी तरफ वाली सीटों की लाइन में श्रीकांत की सीट वाली पंक्ति के ठीक दूसरी वाली पंक्ति की सीटों पर एक युवा युगल और एक बुजुर्ग महिला आकर बैठ गये। उनके पास बहुत सारे लगेज के बैग थे। कुछ पलों के लिये पूरी बोगी में उपस्थित सभी लोगों का ध्यान उनकी ही तरफ चला गया। देखने में वो युगल किसी उच्च संपन्न परिवार का लग रहा था और वो पति-पत्नी लग रहे थे। बड़ी कठिनाई से अपना ढेर सारा सामान कुछ सीटों के नीचे तो कुछ ऊपर रैक में जमा कर वो बैठ पाये। ट्रेन के सारे पंखे चालू थे, मगर डिब्बों में बाहर से ज्यादा गर्मी लग रही थी। तब श्रीकांत ने अपने मित्रों से कहा-”यार, ये गाड़ी तो अभी बहुत तप रही है। अभी गाड़ी चलने में पूरे चालीस मिनट बाकी हैं। चलो तब तक बाहर ही घूमते हैं।” सबने श्रीकांत की बात मान ली और अपने-अपने बैग अपनी-अपनी सीटों पर छोड़कर डिब्बे से बाहर चले गये।

श्रीकांत और उसके दोस्त प्लेटफार्म पर टहलते हुए उस पेपर के बारे में ही बातें करते रहे। वे सब भोपाल के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में एक सॉफ्टवेयर कंपनी के ओपन कैंपस में सम्मिलित होने आये थे। सिर्फ श्रीकांत के ही नहीं बल्कि जबलपुर के बाकी इंजीनियरिंग कॉलेजों से भी सैंकड़ों विद्यार्थी उस कंपनी की चयन परीक्षा में सम्मिलित होने भोपाल आये थे। आज भोपाल से जबलपुर जाने वाली हबीबगंज-जबलपुर जनशताब्दी एक्सप्रेस उन्हीं विद्यार्थियों से भरी हुई थी। लिखित परीक्षा के परिणाम घोषित नहीं किये गये थे और सभी छात्र एक-दूसरे से यही सवाल कर रहे थे कि किसका पेपर कैसा गया। बातों ही बातों में वक्त का पता ही नहीं चला और गाड़ी ने चलने का हार्न दे दिया। सब लोग झटपट डिब्बों में चढ़ गये। गाड़ी प्लेटफार्म से आगे बढ़ गयी और सब अपनी-अपनी सीटों पर आकर बैठ गये।


श्रीकांत ने अपने बैग से पानी की बॉटल निकालकर थोड़ा पानी पिया। उसने बॉटल सीट के सामने बनी ट्रे में रखी ही थी कि राजेश ने उसके हाथ पर हल्के से अपनी कुहनी मारकर कहा-”वो देख उधर सामने।” कुछ चौक कर राजेश को देखने के बाद श्रीकांत ने उस ओर देखा जहॉं राजेश इशारा कर रहा था तो उसे जैसे अपनी ऑंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। वो युगल जो थोड़ी देर पहले उनके सामने डिब्बे में चढ़ा था, वो ऐसे रोमांस कर रहा था जैसे कि फिल्मों में हीरो-हीरोइन करते हैं। युवक बार-बार युवती को गले लगाकर उसे चूम रहा था और युवती थोड़ी देर बाद उसे अलग कर देती थी। पर कुछ पल रुक कर वो युवक फिर वही कार्य करने लगता था। कभी वो उस युवती को जगह-जगह स्पर्श करता और फिर वो युवती थोड़ी देर बाद उसका हाथ पकड़ कर अलग करती। उनके बाजू में बैठी हुई वो वृद्ध महिला उस युवा दंपत्ति की इस प्रेमलीला से बड़ा असहज महसूस कर रही थी। बीच-बीच में वो उन दोनों को धीमी आवाज़ में टोकती भी थी कि सब देख रहे हैं। श्रीकांत ने गौर किया कि वास्तव में पूरे डिब्बे में बैठे सभी लोगों का ध्यान उस युगल की तरफ ही था। तब कुछ पल के लिये वो युवक रुक जाता और कभी-कभार डिब्बे में बैठे अन्य यात्रियों को कुछ गुस्से से देखता। तब सब लोग दूसरी तरफ नज़रें फेर लेते थे। पर जैसे ही लोग दूसरी तरफ देखते, वो युवक फिर अपनी पत्नी को गले लगाकर रोमांस करना चालू कर देता और सब लोग फिर से उनको देखने लगते। यही क्रम लगातार चल रहा था। डिब्बे में अन्य यात्री जो अपने परिवार के साथ थे, जिनमें बच्चे और महिलाएं भी थे, उनको ये सब बड़ा ही गंदा लग रहा था। उन सबके चेहरे पर क्रोध और घृणा के भाव थे। पर कोई भी उस दंपत्ति से कुछ नहीं कह पा रहा था। वो लोग मुँह फेर कर बैठ गये थे। ”छोड़ो यार, पति-पत्नी हैं”,”अपने को क्या करना”,”बेशर्मी की भी हद होती है”,”ये आजकल के लड़के-लड़कियॉं भी”-जैसे कुछ वाक्य श्रीकांत और उसके मित्रों को अपने आस-पास की सीटों से सुनाई दे रहे थे।


ट्रेन चले एक घंटा हो गया और उस दंपत्ति की आपत्तिजनक हरकतें चलती रहीं। श्रीकांत और उसके मित्रों को भी उस दृश्य से बड़ी घिन छूट रही थी। राजेश धीमी आवाज़ में श्रीकांत से बोला-”क्या यार, इन लोगों को जरा भी शर्म नहीं आती। लगते तो किसी अच्छे परिवार के हैं।” उसकी बात से सहमति जताते हुए अतुल ने कहा-”हॉं यार, एक घंटा हो गया गाड़ी चले। पर ये तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे। कैसे लोग हैं?” तब अंशुल जो कि श्रीकांत के ठीक सामने वाली सीट पर बैठा था, अपनी सीट से कुछ उठकर और पीछे मुड़कर उनकी तरफ देखकर बोला-”यार मुझे लग रहा है इनकी अभी कहीं शादी हुई है और ये लोग हनीमून मनाकर लौट रहे हैं। उनकी शक्लें देखीं थीं गौर से? और उनके पास कितना सारा सामान भी है। लगता है हनीमून की खुमारी अभी तक उतरी नहीं है।” अंशुल की बात सुनकर सब मुँह पर हाथ रखकर हॅंसने लगे। तब अपनी हॅंसी रोककर श्रीकांत बोला-”चल मान लिया की तेरी बात सही है। पर पति-पत्नी भी हैं तो इसका मतलब ये तो नहीं कि सबके सामने ऐसी जगह पर ये सब करेंगे। यहॉं लोग परिवारों के साथ भी बैठे हैं। लेडीज और बच्चे भी हैं। इनको जरा सी भी शर्म नहीं आती कि बाकी लोगों को कैसा लग रहा है।” तब राजेश बोला-”भाई मेरे, बात तो तुम्हारी सही है। पर जब कोई भी उनसे कुछ नहीं कह रहा, तो हम क्या करें? कितनी फैमिलीज बैठी हैं यहॉं पर, पर सब उनको इग्नोर कर रहे हैं। आजकल कोई झंझट में नहीं पड़ना चाहता।” राजेश की इस बात पर सबने हामी में सिर हिलाया।


यह कहानी बहुत ही लम्बी है। पूरी कहानी यहाँ प्रकाशित करना संभव नहीं है। पूरी कहानी कृपया मेरी पुस्तक "कयामत की रात" में पढ़ें जो कि एमाज़ॉन किंडल पर उपलब्ध है। 



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