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Amit Soni

Horror Thriller

1.2  

Amit Soni

Horror Thriller

एक डरावनी रात

एक डरावनी रात

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सूरज आज बहुत खुश था। आखिर पूरे बीस साल बाद उसकी मुलाकात उसके कॉलेज के दोस्तों से हो रही थी। वो सन १९९९ था जब सूरज अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करके इंदौर ग्रेजुएशन करने के लिए गया था। वहाँ के एक अच्छे कॉलेज में उसे बीएससी प्रथम वर्ष में प्रवेश दिला कर उसके माता-पिता वापस लौट आये थे। एक सामान्य से पक्के मकान में किराये पर एक छोटा सा कमरा दिला दिया था उसे। कॉलेज आने-जाने के लिए एक साइकिल भी दिला दी थी। उस समय सूरज के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उस समय के हिसाब से उसके लिया इतना भी बहुत था। कॉलेज में वहाँ के कुछ स्थानीय लड़कों से सूरज की अच्छी मित्रता हो गयी थी। वो पढ़ने-लिखने में भी तेज थे और हमेशा सूरज का पूरा सहयोग करते थे। उनके साथ पढ़ाई-लिखाई और मौज-मस्ती में एक साल कैसे बीत गया ये सूरज को समझ में भी नहीं आ पाया था। पर सूरज की परीक्षा पास आते-आते उसके पिताजी का स्वास्थ्य गंभीर रूप से ख़राब हो गया था। वो अपने व्यवसाय पर ध्यान नहीं दे पाते थे। मजबूरन परीक्षा के बाद सूरज को लौटकर अपने शहर ही आना पड़ा जहाँ उसने एक स्थानीय कॉलेज में बीएससी द्वितीय वर्ष में प्रवेश ले लिया और अपने पिताजी का व्यवसाय भी वो संभालने लगा। अपने इंदौर वाले मित्रों से फोन पर उसका संपर्क बना रहा। पर जीवन की व्यस्तताओं ने उसे फिर कभी उसे उनसे मिलने का मौका ना दिया। 


अब पूरे बीस साल बाद सूरज अपने मित्रों से मिलने इंदौर आया था। उसके सबसे पक्के दोस्त सुरेश ने पुराने छात्रों के पुनर्मिलन समारोह का आयोजन उन्हीं के कॉलेज में रखा था। कॉलेज की पार्टी के बाद अगले दिन उसके सभी खास मित्र मोहन, सचिन और विशाल भी सुरेश के ही घर पर इकठ्ठा हुए थे। चाय-नाश्ते के बाद सब बातचीत कर रहे थे। बातों-बातों में सूरज के उस समय के पड़ोसियों का भी जिक्र आ गया जो बहुत अंधविश्वासी थे और बहुत डरपोक भी। जिस मकान में सूरज इंदौर में रहता था, वहाँ अधिकतर गांव के कम शिक्षित लोग रहते थे। वो मकान किराये पर देने के लिए ही बनाया गया था। सूरज के सभी मित्र उसे हमेशा किसी दूसरी अच्छी जगह रहने की सलाह देते थे, पर वो सूरज के बजट में नहीं था। उसके अड़ोस-पड़ोस में कुछ अच्छे सभ्य परिवार भी थे जिनके मकान बहुत अच्छे थे, पर उन सबका सूरज के मकान-मालिक से कुछ विवाद था। महीने में दो-तीन बार सूरज जिस मकान में रहता था, उसके आस-पास कभी नींबू-मिर्ची तो कभी कुछ और टोने-टोटके की सामग्री पड़ी हुई मिलती थी। सिर्फ सूरज को छोड़कर उस मकान के सभी लोग हमेशा भूत-प्रेत और किसी अनिष्ट के डर से चिंतित रहते थे। सूरज का मकान मालिक इसके लिए हमेशा उसके मोहल्ले वालों को कोसता था। कई बार उनमें विवाद भी हो जाता था। पर सूरज इन सब बातों को नहीं मानता था। वो अपने पड़ोसियों को समझाने का बहुत प्रयास करता पर सब व्यर्थ जाता था। 


सुरेश और बाकी दोस्तों ने सूरज के पड़ोसियों का मजाक उड़ाना चालू कर दिया। इस पर आपत्ति करते हुए सूरज ने कहा, "यार वो लोग जैसे भी थे, दिल के बहुत अच्छे थे। जितना मैं तुम लोगों को याद करता था, उतना उन्हें भी याद करता था। उनसे कभी मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। पता नहीं वो लोग कहाँ हैं अब। आज यहाँ आने से पहले मैं वहाँ उनसे मिलने भी गया था। पर अब वहाँ उनमें से कोई नहीं रहता।" इस पर सुरेश ने सूरज के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "अरे यार, तू इतना सैंटी क्यों हो रहा है ? हमने कब कहा कि वो बुरे लोग थे। पर वो थे बहुत पुराने ख़यालात के अंधविश्वासी लोग। हमेशा किसी टोने-टोटके के डर से डरे रहते थे। ये सब बातें हमें तू खुद बताता था। तुम ही बताओ, क्या तुम्हारे वहाँ रहते ऐसी कोई घटना हुई थी जिसे तुम भूत-प्रेतों से जोड़ सको ?" एक गहरी साँस लेकर गंभीर मुद्रा में सूरज ने कहा, "हाँ यार, एक बड़ी विचित्र घटना हुई थी जिसके बारे में मैंने कभी किसी को नहीं बताया था। तुम लोगों को भी नहीं।" सूरज की ये बात सुनकर सब दंग रह गए। सचिन ने आश्चर्य से सूरज की तरफ देखते हुए कहा, "अबे ऐसी कौन सी बात हो गयी थी जिसे तूने हम लोगों से भी छिपाया। वो भी इतने सालों तक !" शांत भाव से सचिन को देखते हुए सूरज ने कहा, “वो बात ही ऐसी थी यार। मैं बहुत डर भी गया था और थोड़ा परेशान भी था कि ये बात किसी को बताऊँ या नहीं। मुझे लगा कॉलेज में सब मेरा मजाक उड़ाएंगे। वैसे भी उसके बाद ऐसी कोई घटना नहीं हुई। इसलिए मैंने किसी को कुछ नहीं बताया।" सूरज के इस जवाब पर विशाल ने बड़ी बेसब्री से कहा, "भाई मेरे, हुआ क्या था वो तो बता।" उसी गंभीर मुखमुद्रा में सूरज ने बताना चालू किया, "वो दीपावली के बाद की बात थी। उस दिन भी कॉलेज से लौटकर, होमवर्क निपटाकर, खाना बनाकर और खाकर, रात को पढ़ने के बाद करीब साढ़े ग्यारह बजे मैं सो गया। बड़ी अच्छी नींद आयी थी। पर थोड़ी देर बाद ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरी छाती पर कोई बड़ा भारी सा वजन रखा है, जैसे रेत से भरी हुई बड़ी बोरी। मुझे दम घुटने का अहसास हुआ। मैं घबराकर उठ बैठा। मेरी साँस बड़ी तेज चल रही थी। लाइट जलाकर देखा तो डेढ़ बज रहा था। मुझे पहली बार कुछ अजीब सा लग रहा था उस कमरे मैं। माहौल में अजीब सा भारीपन महसूस हो रहा था। बड़ी घुटन सी लग रही थी। पर मैंने सोचा शायद आज थकान ज्यादा हो गयी है, इसलिए ऐसा लग रहा है। मैं फिर से सो गया। जैसे ही मेरी नींद लगी, फिर वही एहसास हुआ जैसे मेरे ऊपर कोई बहुत भारी वजन रखा हो और मेरा दम घुटने लगा। मैं फिर हड़बड़ाकर उठ गया। जल्दी से मैंने लाइट जलाई। इस बार मुझे कुछ डर भी लगा और मेरी धड़कन भी बढ़ गयी थी। इससे पहले मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ था। मैं सोच में पड़ गया। कोई बुरा सपना भी नहीं आया था उस रात। अचानक मेरे मन में मेरे पड़ोसियों की टोने-टोटके और भूत-प्रेतों वाली बातें कौंध गयीं। पर फिर मैंने सोचा कि शायद मेरी तबियत ख़राब हो रही है और ये मेरे मन का वहम है। पर मेरा दिल और दिमाग ये बात मानने को तैयार नहीं थे। मेरी तबियत बिलकुल ठीक थी और सर्दी-जुखाम या बुखार जैसा भी मुझे कुछ नहीं था", इतना कहकर सूरज रुक गया और उसने थोड़ा सा पानी पिया। "उसके बाद क्या हुआ ?", मोहन ने पूछा।


फिर उसी गंभीर अंदाज में सूरज ने बताना चालू किया, "इस बार मैंने लाइट नहीं बुझाई। मैं समझना चाह रहा था कि आखिर ये सब क्या है। लेकिन मेरी नींद लगते ही फिर मेरे साथ वैसा ही हुआ। इस बार मैं बहुत घबरा गया था। अब मुझे विश्वास होने लगा था कि ये मेरे मन का भ्रम नहीं है। पर कमरे में कोई भी डरावना चेहरा या भूत-प्रेत जैसी आकृति दिखाई नहीं दी। मेरा मन कर रहा था की कमरे से बाहर निकल कर अपने पड़ोसियों से मदद माँगूं, पर मेरा दिमाग इसकी इजाजत नहीं दे रहा था। एक तो वो लोग वैसे भी अंधविश्वासी हैं, पता नहीं क्या समझेंगे। दूसरे, मुझे लग रहा था कि कहीं वो मेरा मजाक ना उड़ाएं। क्यूंकि मैं अक्सर उनको समझाता रहता था की ये सब उनके मन का वहम है। घड़ी देखी तो सवा दो बज गया था। सोचा खिड़की खोल लूँ, पर दिल के अंदर से आवाज आ रही थी की खिड़की मत खोलना। फिर सोचा की दरवाजा खोलकर छत पर घूम आऊँ पर फिर जैसे दिल के अंदर से कोई बड़ी सशक्त आवाज मुझे बाहर जाने और दरवाजा खोलने से मना कर रही थी। तुम लोग उसे दिल की आवाज, अंतरात्मा की आवाज या छठी इन्द्रिय, जो कुछ भी समझो। पर मेरे अंदर से कोई चीज मुझसे कह रही थी की आज यहाँ कोई बहुत बड़ा खतरा है और मुझे किसी भी हालत में सोना नहीं चाहिए। मैं बहुत डर गया। मेरे साथ इसके पहले बहुत ही कम ऐसा हुआ था की मेरे अंदर से किसी चीज ने मुझे किसी खतरे का संकेत दिया हो। पर जब भी ऐसा हुआ, वो बात सही साबित हुई। थोड़ी देर तक तो मैं जागता रहा, पर फिर कब नींद लग गयी पता ही नहीं चला। फिर वही छाती पर कोई बहुत भारी सा वजन और दम घुटने का एहसास हुआ। आँखें खोलने पर दिखाई कुछ नहीं दिया पर मेरा दम घुट रहा था। इस बार मैंने जैसे अपने ऊपर से उस चीज को धक्का देकर गिरा दिया जो मुझे नजर ही नहीं आ रही थी। मेरी चीख निकल गयी। मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगा, "कौन है यहाँ ? हिम्मत है तो सामने आओ।" -पर मेरी बात का मुझे कोई जवाब नहीं मिला”, इतना कहकर सूरज ऐसे चुप हो गया जैसे वो सब घटनाएं उसकी आँखों के सामने जीवंत हो उठी हों।


सबके चेहरों पर गंभीरता थी। मोहन को तो पसीना आ गया था। "बाप रे!", उसके मुँह से अकस्मात ही निकल पड़ा। "और तुमने ये बात हमसे भी छुपाये रखी", सुरेश ने कुछ नाराजगी प्रकट करते हुए सूरज से कहा। "अरे यार, पहले उसकी पूरी बात तो सुन लो", सचिन ने सुरेश को टोकते हुए कहा, “आगे बताओ सूरज, उसके बाद क्या हुआ ?" सहमति में सिर हिलाते हुए सूरज ने कहा, “मेरी घबराहट बढ़ती ही जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ? कमरे से बाहर जा नहीं सकता था। कमरे के अंदर कोई अदृश्य शक्ति मुझे सोने नहीं दे रही थी। खिड़की या दरवाजा खोल नहीं सकता था। मन

करता था की पानी पी लूँ या थोड़ी सी चाय बनाकर पी लूँ। पर फिर मेरे अंदर से कोई चीज मुझे ऐसा करने को मना कर रही थी। वो मुझसे कह रही थी कि चाय-पानी पीने के बाद लघुशंका लगने की स्थिति बन सकती है और अभी कमरे से बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है। "तो फिर मैं करूँ क्या ? कमरे के अंदर भी तो खतरा है।" -मैंने अपने अंदर से आ रही उस आवाज से पूछा। दिल से बस यही आवाज आयी -"जागते रहो बस। सोना मत।" मन मारकर मैंने टेबल से फिजिक्स की पुस्तक उठा ली और बिस्तर पर बैठ कर पढ़ने लगा। पर रत्ती भर भी पढ़ने में मन नहीं लग रहा था। फिर पता नहीं चला कब नींद लग गयी और फिर वही अदृश्य चीज आकर मेरी छाती पर बैठ गयी और मेरा दम घुटने लगा। फिर मैंने उसे धक्का देकर अपने से अलग किया और मैं जोर से चिल्ला पड़ा -"तेरी ***** साले। हिम्मत है तो सामने आ, आ ना। सोये हुए पर क्यों वार करता है ?" मैंने पलंग के पास पड़ा हुआ एक लकड़ी का डंडा उठाया और उसे पूरे कमरे में बेतहाशा घुमाने लगा कि शायद वो उस अदृश्य शक्ति से टकरा जाए। पर कुछ नहीं हुआ। गुस्से में मैंने अपना पूरा सामान और बिस्तर भी चैक किया। अपनी अटैची और बर्तन तक चैक किये, पर कहीं कुछ नहीं था”, सूरज की ये बातें सुनकर सुरेश और सचिन को हँसी आ गयी थी जबकि मोहन अभी भी गंभीर था।


तब सूरज ने भी थोड़ा हँसते हुए कहा, "तो और क्या करता मैं ? मेरी आँखों से नींद पूरी तरह भाग चुकी थी। मुझे बहुत डर लग रहा था। चार बज गए थे उस वक़्त। समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ। पहली बार मेरी नजर अपने कमरे में लगे भगवान विष्णु के पोस्टर पर पड़ी। मैं रोज उसी की आरती करता था। मुझे गुस्सा आ गया की जिनकी मैं रोज पूजा करता हूँ, वो भी मेरी सहायता नहीं कर रहे। आखिर भगवान की तस्वीर होते हुए कोई भूत-प्रेत जैसी चीज यहाँ कैसे आ सकती है। पर फिर मेरे अंदर से आवाज आयी की किसी गंभीर खतरे के वक़्त तुम जो ये अपने दिल से आवाज सुनते हो, वही भगवान की तुम्हारे लिए सहायता है। पर अब मुझे खिजियाहट होने लगी थी। यदि रात भर जागता रहा तो सुबह खाना बनाकर कॉलेज कैसे जा पाऊँगा। सोचा अपने कमरे के ठीक बगल वाले पड़ोसी राम सिंह भाईसाहब को जगा लूँ। अपने पड़ोसियों में मेरी सबसे अच्छी उन्हीं से बनती थी। मेरे और उनके कमरे के बीच एक दरवाजा था जिसे हम दोनों अपनी-अपनी तरफ से लॉक रखते थे और पर्दे भी डाल रखे थे। पर मेरा मन ये बात नहीं मान रहा था। तुम लोगों को याद होगा की उस वक़्त मैं सेना में जाना चाहता था। मैंने ये बात अपने सभी पड़ोसियों को भी बता रखी थी। मुझे लगा कि कहीं वो मेरा मजाक ना उड़ाने लगें की ऐसा डरपोक लड़का सेना में कैसे जायेगा। पर मेरे अंदर से वही आवाज कह रही थी मुझे उन्हें जगा के उनसे पूरी बात बता देनी चाहिये। मैंने हमारे बीच के उस दरवाजे को खटखटा के उनको कई बार आवाज दी पर उस तरफ से कोई उत्तर नहीं आया। मैं निराश होकर पलंग पर बैठ गया। तब मेरे मन में पहली बार ये खयाल आया कि आज रात कोई भी शायद लघुशंका करने के लिए नहीं उठा है। जबसे मैं वहाँ रह रहा था, ऐसा कभी नहीं हुआ था कि रात को टॉयलेट के दरवाजे और हैंडपंप की आवाज दो-तीन बार ना आये। उस घर का टॉयलेट, बाथरूम और हैंडपंप ठीक मेरे कमरे के सामने आँगन में बायीं और था। तब मुझे लगा की शायद ये जो भी अदृश्य शक्ति मुझे परेशान कर रही है, जरूर ये मेरे पड़ोसियों को भी सता रही होगी। इसलिए आज कोई भी डर के मारे बाहर नहीं निकल रहा। मैं बुरी तरह से बैचैन था कि अब क्या करूँ। अचानक मुझे याद आया की भूत-प्रेत हनुमान जी से डरते हैं। मुझे हनुमान चालीसा पूरी याद थी। तब मैं पलंग पर बैठ कर मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। थोड़ी देर बाद घड़ी देखी तो पौने पांच बज गए थे। मुझे तेज नींद आने लगी और मैं फिर सो गया। फिर वही छाती पर वजन और दम घुटने का अहसास हुआ। मैं उस अदृश्य शक्ति को धकेलते हुए फिर घबराकर उठ बैठा। फिर मैंने गालियाँ बकते हुए वही डंडा पूरे कमरे में घुमाना चालू कर दिया, पर सब व्यर्थ। मैं थककर पलंग पर बैठ गया। अब मुझे जोरों से प्यास लग आयी थी और सिर में भी दर्द होने लगा था। मैंने सोचा कि डिस्प्रिन खाकर पानी पी लूँ... पर फिर मेरे अंदर की आवाज ने मुझे ऐसा करने से रोका। मैंने खिजियाकर उससे मन ही मन पूछा की तो और क्या करूँ। फिर मेरे दिल से आवाज आयी की थोड़ी देर और जाग लो। सुबह पांच बजकर चालीस मिनट पर इस शक्ति का असर समाप्त हो जायेगा। तब सो जाना। मैंने घड़ी देखी तो सवा पांच बज चुका था। फिर मैंने हनुमान चालीसा पढ़ते हुए उतना समय काटा। ठीक पांच बजकर चालीस मिनिट पर कमरे का वो भारीपन अचानक गायब हो गया। कमरा अचानक जैसे ताजी हवा से भर गया हो, ऐसा लगा। वो घुटन भरा माहौल ख़त्म हो गया था। मैंने पानी में डिस्प्रिन घोलकर पीयी और सो गया। फिर बड़ी अच्छी नींद आयी”, ऐसा कहकर सूरज ने जैसे उस रात को याद करते हुए चैन की साँस ली।


मोहन ने आश्चर्य से सूरज की तरफ देखते हुए कहा, "यार, मुझे तो तेरी बात सुनकर ही कंपकपी छूट गयी। पता नहीं कैसे तुमने वो रात काटी। तुम्हारी जगह यदि मैं होता तो बचाओ-बचाओ चिल्लाकर शोर मचाने लगता। खैर, फिर सुबह क्या हुआ ?", हल्का सा मुस्कुराते हुए सूरज ने कहना चालू किया,?"और क्या होना था, सुबह साढ़े नौ बजे नींद खुली। मैं कमरे से बाहर निकलकर आँगन में बैठ गया। देखा कि वहाँ मेरे सभी पड़ोसी भी बैठे हुए उबासियाँ ले रहे थे। मेरे सभी पड़ोसी प्रायः मेरे उठने से पहले सुबह सात बजे तक अपने-अपने काम पर निकल जाते थे। उनको इस हालत में देखकर मुझे रात वाला अपना अंदाजा सही लगा कि उस अदृश्य शक्ति ने शायद इन्हें भी सताया है। पर मैंने किसी से कुछ पूछा नहीं। मेरे बगल वाले राम सिंह भाईसाहब मुझे अजीब नजरों से देख रहे थे। फिर उनकी पत्नी मंजू जी मुझसे बोल पड़ीं- "रात बहुत बुरी कटी सूरज। तुम मानो या ना मानो पर रात को कोई चीज थी जिसने हमें सोने नहीं दिया। जरूर किसी ने टोटका किया होगा। सुबह छह बजे सोये हम लोग।" उनकी बात सुनकर मेरा दिमाग भन्ना गया। मैंने गुस्से में कहा-"रात को उस चीज ने मुझे भी सोने नहीं दिया। मैं ही जानता हूँ कि कैसे रात काटी। मैंने आप लोगों को आवाज दी थी और दरवाजा खटखटाया था। पर आप लोगों ने कोई जवाब नहीं दिया। क्यों ?" उत्तर में राम सिंह भाईसाहब बोले -"तुम रात में गन्दी-गन्दी गालियाँ बक रहे थे और कुछ उठापटक करने की आवाज भी तुम्हारे कमरे से आ रही थी। हमने सोचा की वो भूत तुम्हारे अंदर घुस गया है। हम बहुत डर गए थे इसलिए दरवाजा नहीं खोला।" मुझे उनकी इस मूर्खता पर बड़ा गुस्सा आया। मैंने तुनककर कहा -"ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं अपना सामान चैक कर रहा था। डर मुझे भी बहुत लग रहा था। आप तो दो लोग थे पर मैं तो अकेला था। यदि आप दरवाजा खोल लेते तो कम से कम हम साथ में मिलकर डर लेते।" मेरी इस बात पर सब हँस पड़े। मुझे भी हँसी आ गयी। फिर मेरे बाकी पड़ोसियों ने भी रात को उनके साथ भी ऐसा होने की पुष्टि की। राम भैया के दूसरी तरफ वाले विनोद भाईसाहब ने बताया कि वो सुबह आठ बजे उठ गए थे और उन्होंने घर के मुख्य दरवाजे के पास कुछ तंत्र-मंत्र का सामान, फूल माला और किसी जानवर की हड्डियाँ देखीं थीं जिन्हें उन्होंने सफाई करने वाली बाई से उठवा कर उसकी गाड़ी में डलवा दिया था। उन्होंने ये बात जाकर हमारे मकान मालिक को भी बता दी थी जिन्होंने तुरंत आकर हमारे अगल-बगल के मकान वालों को खूब बुरा-भला कहा। थोड़ी देर तक इसी मुद्दे पर हम सब में बातचीत चलती रही और हम लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सब अपने-अपने कमरे में बजरंग बली की एक-एक फोटो लगा लें। उसी दिन शाम को मैंने बाजार से हनुमान जी का एक पोस्टर लेकर अपने कमरे में लगा लिया। उसके बाद फिर कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसलिए भी फिर मैंने तुम लोगों से इस घटना का जिक्र उस समय नहीं किया।" सूरज के इतना कहने पर कुछ देर वहाँ सन्नाटा छाया रहा। सब सोच में पड़े हुए थे। फिर सुरेश ने कहा, "समझ में नहीं आता उस रात वो क्या चीज रही होगी। पर तुझे ये बात हम लोगों को बतानी जरूर थी। तुझे क्यों ऐसा लगा कि हम तेरी बात पर विश्वास नहीं करेंगे ?" इस पर सूरज ने समझाते हुए कहा, “भाई, उस समय तक मेरे पिताजी की तबियत खराब हो चुकी थी। मैं पहले से ही परेशान था। इस घटना से मैं बहुत डर गया था। मैं नहीं चाहता था कि ये बात कॉलेज में किसी को भी पता चले। तुम लोग भले ही मेरा मजाक ना उड़ाते पर बाकियों का क्या ? इसलिए मैंने किसी को भी कुछ नहीं बताया। अपने घर में भी नहीं बताया। वहाँ सब पहले ही परेशान थे।" तब विशाल ने मुस्कुराते हुए सुरेश से कहा, “छोड़ ना यार इस बात को। अब तो बता दिया ना उसने। अब एक-एक चाय और पिलवा। अपना भाई सही-सलामत है, यही हमारे लिए बड़ी बात है।" सुरेश ने भी, "ठीक है भाई !", कहकर, मुस्कुराकर सहमति में सिर हिला दिया। अगले दिन सूरज अपने घर वापस लौट आया। पर उस एक डरावनी रात की बात ने उसके दोस्तों के लिए भी बीस साल बाद हुई इस मुलाकात को और भी ज्यादा यादगार बना दिया था।


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