दृढ़ संकल्प
दृढ़ संकल्प
“ निस्तेज चेहरा! मुट्ठी भर कमर ! पेट- पीठ में दरारें ! ओह! तुम्हारी ये दुर्दशा ?! तुम बीमार एवं श्रीहीन लग रही हो ! " वर्षों बाद अपनी लाड़ली 'गंगा' से मिलते ही पिता ने व्यथित होकर कहा ।
" बाबा, आप तो सब जानते हैं । कभी मैं धरती पर स्वर्ग से लोकहित के लिए लायी गयी थी ! देवाधिदेव महादेव ने अपने मस्तक पर मुझे सुशोभित कर मेरा मान बढ़ाया था ।इतना ही नहीं, मेरी शुद्धता और पवित्रता के लिए पहले "अंभ " शब्द का प्रयोग हुआ करता था। लेकिन अब मैं "आप" बन कर रह गयी ! बाबा, अंभ से आप तक का इस कष्टदायक सफर से मैं बहुत विचलित हो गई हूँ! अब मैं आचमन के लायक भी नहीं रही ! भारत के जिस आधे क्षेत्र को मैंने संचित और पोषित किया, उन सभी जगहों से भी प्रताड़ित हो रही हूँ ! मेरा जीवन अब मृतप्राय हो गया है .... हूं... हूं. हूं. हूं ... "
" बेटी मत रो ! तुम मोक्षदायिनी हो । पहले की तरह आज भी गाँव के लोग तुम्हें प्यार और श्रद्धा से पूजते हैं ।धरती पर एक तुम ही हो, जो प्राणी मात्र को स्वर्ग ले जाती हो । लेकिन, तुम्हारी इस दुर्दशा का अपराधी निश्चित रूप से आधुनिक मानव ही है ! जो लोलुपता और अंधाधुंध व्यवसायीकरण के चलते तुम्हें इस दयनीय हालत में पहुँचाया है ! लेकिन अब उनकी ख़ैर नहीं है ! तुम घबराओ नहीं। तुम्हारे ऊपर अभी पिता का साया है। हिमालय की तरह अडिग , तुम्हारे जीवंत प्रवाह को लौटाने के लिए मैं कृतसंकल्प हूँ। देखो, मेरी बलशाली भुजाओं को, जिसमें अर्जुन और भीम की तरह कौरव दल को परास्त करने की प्रचुर क्षमता है।” जोश से कहते हुए आकुल पिता... मृतप्राय बेटी को निरोग करने में जी-जान से जुट गया ।
कुछ ही दिनों बाद बेजान पड़ी गंगा, पिता के लगन और संकल्प से जीवंत हो खलखला कर फिर से हँसने लगी । उसे पहले की तरह चहकते देख, चहूँ ओर वातावरण सुरभित हो उठा । कोयल की कूक फिर से सुनाई पड़ने लगी । मंद -मंद बयार बहने से आस पास के पेड़, पौधे झूम कर गीत गाने लगे..... ' गंगा तेरा पानी अमृत... ' -----