डायरी, जिसकी लाठी उसकी भैंस
डायरी, जिसकी लाठी उसकी भैंस
शाम के तीन बजकर पच्चीस मिनट हो रहे हैं।
आज एटा आ गया हूं। मम्मी अभी मुरादाबाद ही रुकी हुई हैं। जैसा लग रहा था कि घर ज्यादा गंदा मिलेगा, ऐसा तो नहीं है।
कुछ ही देर पूर्व जीविका की मम्मी चाय बना लायीं थीं। छोटे कस्बों में यह बहुत सामान्य सी बात है।
कल मेरी किसी से छोटी सी बहस हो गयी। मेरी राय में लक्ष्य और बदला का कोई भी संबंध नहीं है। पर उनके अनुसार लक्ष्य का अर्थ बदला होता है। ऐसी बहसों का अंत क्या हो सकता है। अंत इसी बात पर हुआ कि उनकी लाठी है। इसलिये उनकी ही भेंस है। तथा उनके यहाॅ लक्ष्य शव्द का अर्थ बदला ही है।
अब उनकी लाठी और उन्हीं की भेंस बाली बात है तो फिर आगे भी ज्यादा कहना ठीक नहीं है। पर सत्य यही है कि लक्ष्य एक सकरात्मकता युक्त शव्द है। तथा बदला केवल और केवल नकरात्मक दृष्टिकोण है।
माना जाता है कि शक्तिशाली ही अपने हिसाब से नियम तय करते हैं। शक्तिशाली पर कोई भी नियम लागू नही होते। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है।
समरथ कहुं नहिं दोष गुसांई।
रवि पावक सुरसरि की नाईं।।
वास्तव में यही सत्य है। पर शक्ति शव्द का अर्थ अपेक्षाकृत अधिक व्यापक है। यथार्थ में शक्ति का अर्थ केवल शारीरिक या आर्थिक शक्ति ही नहीं है। अपितु शक्ति शव्द का अर्थ मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति से है।
संसार में बहुत कम लोग मानसिक रूप से इतने सुदृढ होते हैं जो कि पूरी विचार धारा का विरोध कर सकें। जो कि शक्तिशाली माने जाते अत्याचारी का विरोध कर सके। जो कि राष्ट्र और समाज के लिये अपने प्राणों का बलिदान करने को भी तैयार रहें। वास्तव में जिसकी लाठी, उसी की भेंस कहावत ऐसे ही आंतरिक रूप से मजबूत लोगों के ऊपर प्रभावी है। ऐसे लोग हमेशा समाज को दिशा देते हैं। अनेकों की सोच को बदल सकते हैं।
लंका का राजा रावण अत्यधिक शक्तिशाली राजा था। पर वानर तथा भालू नाम से विख्यात उस काल की कुछ जंगली जनजातियों का आत्मबल था कि वे उसके खिलाफ एकजुट होकर श्री राम का साथ दे पाये।अन्यथा शक्तिशाली का विरोध करने से प्रायः लोग डरते ही हैं।
मुहम्मद गोरी ने दिल्ली नरेश पृथ्वी राज चौहान को बंदी बनाकर उसकी दोनों आंखें फुड़बा दी थीं। अंधे होने के बाद भी यह पृथ्वीराज का आत्मबल ही था कि उन्होंने मुहम्मद गोरी को यमलोक पहुंचा दिया।
औरंगजेब के बाद मुगल वंश के राजा बहुत कमजोर आत्मबल के हो गये। उसका परिणाम भारत में मुगलों का शासन घटता गया। आखिरकार अफगानी सरदार नादिरशाह ने मुगल बादशाह को हराकर बेशुमार दौलत जिसमें कोहिनूर हीरा तथा शाहजहां का मयूर सिंहासन भी था, लूट लिया।
इस संदर्भ में एक लोककथा प्रसिद्ध है। दिल्ली पर अधिकार करने के बाद भी नादिर शाह को विश्वास न था कि वह दिल्ली को लूट कर जा पायेगा। इस विषय में नादिरशाह का दृष्टिकोण बहुत व्यापक था।
दिल्ली के तख्त पर बैठकर नादिरशाह ने मुगल बादशाह को हुक्म दिया कि वह थक चुका है। उसे मनोरंजन की जरूरत है। इसलिये मुगलों के राजघराने के बहू बेटियों से जाकर कहो कि वे पूर्ण श्रंगार कर दरबार में हाजिर हों तथा मेरा मनोरंजन करें।
निश्चित ही इससे ज्यादा अपमान की क्या बात हो सकती है। खुद्दार मनुष्य इसका विरोध करेगा तथा अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करेगा।
पर अपने प्राणों के लोभ में सभी शाहजादे अपनी स्त्रियों को मनाने लगे। राजपरिवार की सभी बेटियां तथा बहुएं पूर्ण श्रंगार कर नादिरशाह के आदेश को मानने दरवार चल दीं। जबकि राजपरिवार की स्त्रिया पर्दा किया करती थीं। जिन स्त्रियों की शक्ल देख पाना भी किसी के लिये संभव न था, वे स्त्रियां सामान्य नर्तकियों के समान राजदरवार जा रही थीं। मन ही मन उससे भी बुरी स्थिति के लिये खुद को तैयार कर रही थीं। आखिर अब प्राण बचाना मुख्य था।
नादिरशाह भी उन्हें देखकर सिंहासन पर लेट गया तथा गहरी नींद सोने का नाटक करने लगा। उसी दौरान नादिरशाह की तलवार भी कमर से निकलकर गिर गयी। पर पूर्ण उपयुक्त स्थिति में भी किसी भी स्त्री का साहस अपनी अस्मत की रक्षा की न थी। सभी स्त्रियां सर झुकाकर घंटों नादिरशाह के आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी रहीं।
बस नादिरशाह ने समझ लिया कि इनके भीतर अब कोई आत्मबल शेष नहीं है। नादिरशाह ने जितना खून दिल्ली में बहाया, कहा जाता है कि उतना खून आज तक किसी भी आक्रमणकारी ने नहीं बहाया।
यह प्रसंग सत्य है या झूठ। पर इसी प्रसंग पर मुंशी प्रेमचंद्र जी ने एक बड़ी सुंदर कहानी लिखी है। जिसमें नादिरशाह कहता है कि यदि आपमें से कोई स्त्री मेरी कटार उठाकर मुझपर हमला करने का साहस करती तो मैं निश्चित ही अपनी पराजय स्वीकार कर अपने देश चला जाता। यदि मेरा ही खंजर इन स्त्रियों में से कोई मेरे सीने में भोंक देती तो मैं अपनी मृत्यु पर गर्व करता।
सही है कि जिसकी लाठी होती है, भेंस भी उसी की होती है। इसलिये कुछ भी हो जाये, अपने हाथो से लाठी छूटनी नहीं चाहिये। प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आत्मबल कमजोर नहीं पड़ना चाहिये। सारी परिस्थितियां निश्चित ही अनुकूल होंगीं। और यदि अनुकूल न भी हों तो भी उन परिस्थितियों से लड़ते हुए अपने प्राण त्याग देना ही बहादुरी है। केवल धन, पद या प्राणों के भी मोह में परिस्थितियों के आगे झुकना वास्तव में कायरता ही है। ऐसे कायरों को अंत में भेंस भी नहीं मिलेगी।
आज के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।