बुढ़ापे की जूतियाँ
बुढ़ापे की जूतियाँ
" जूती फ़ट गई है बेटा। क्या तुम नई ला दोगे। " ठाकुर दीवान सिंह ने अपने बेटे राजकरण से कहा।
" जरूर बाबूजी। शाम को लेता आऊंगा। " कहकर राजकरण स्नानघर में घुस गया।
राजकरण सिंह, ठाकुर दीवान सिंह का इकलौता बेटा था। बड़ी मेहनत कर दीवान सिंह ने उसे पाला और मेहनत रंग लाई। राजकरण सिंह अब जिला खाद्य अधिकारी बन गया था। राजकरण की माँ राजवती देवी तो कभी एटा से कानपुर आना नहीं चाहती थी लेकिन ज़ब से राजकरण की पोस्टिंग कानपुर हुई तो सभी कानपुर रहने लगे। राजकरण की पत्नी श्रीसौम्या तमिलनाडु की रहने वाली थी। दोनों ने लव मैरिज की थी। बच्चों की खुशियों में कभी भी दीवान सिंह ने एतराज न किया। ज़ब जो बच्चों के मन में आया किया। राजकरण ने एटा की सारी प्रॉपर्टी बेचने को कहा तो बेच दिया। कानपुर के रावतपुर में मकान बना कर रहने लगे।
श्रीसौम्या की भी जॉब सरकारी अध्यापक की लग गई। तब से घर की ज्यादातर जिम्मेदारी ठाकुर दीवान सिंह और राजवती देवी ही निभा रहे थे।
इतने सब के बाद भी दोनों श्रीसौम्या को कभी भी भाते नहीं थे। उसे दोनों घर में बोझ लगते थे। कभी ताने मारने से पीछे नहीं हटती थी श्रीसौम्या।
जूती वाली बात उसने सुन ली थी। बस तभी से राजकरण का इंतजार कर रही थी कि कब बाथरूम से बाहर निकले। राजकरण जैसे ही कमरे में पहुंचा बस श्रीसौम्या शुरू हूँ गई।
" सुनो जी, मैं आपको कहे देती हूँ किसी की जूती इस घर में नहीं आएँगी वरना देख लेना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। " श्रीसौम्या ने झटके दिखाते हुए कहा।
" ओके बाबा। नहीं लाऊंगा। बस अब राजी। मेरा टिफिन लगा दो। मैं ऑफिस के लिए लेट हो रहा हूँ। राजकरण सिंह ने कहा।
बात इतनी जोर से कही गई थी बाहर के कमरे मैं बैठे दीवान सिंह और राजवती देवी को साफ साफ सुनाई दे जाये और वही हुआ भी।
कभी बेटे से उफ़ तक न की थी। आज भी शांत बने रहे। बस राजवती से हमेशा छुपाते जैसे कुछ हुआ ही ना हो और यही हाल राजवती का था। राजवती सोचती चलो अच्छा है जो इन्होने नहीं सुना।
कानपुर की धरती से दीवान सिंह का बहुत पुराना नाता था। पहले भी दीवान सिंह अपनी बहन के पास कानपुर काफ़ी समय रहे थे। अपने समय में और आज के समय में बहुत अंतर मिला था। एक वो समय था ज़ब वो अपने पिता के सामने कभी बोले ही नहीं। कितना सम्मान था बुजुर्गों का उस जमाने में और आज तो माहौल ही बदल गया था। कभी कभी मन बेचैन हो उठता लेकिन अब जाये तो जाये कहाँ ? अपना सब कुछ बेचकर तो यहाँ बेटे का मकान बनवा दिया था बाकी बचा हुआ पैसा भी राजकरण को दे दिया था।
एक उम्मीद की किरण राजकरण का बेटा श्रेष्ठ बनकर आया था उनकी जिंदगी में। उसकी सेवा में लगे रहते थे दोनों। बस यूँ ही समय गुजर रहा था।
शाम को राजकरण आया लेकिन जूती नहीं आई। दुबारा दीवान सिंह ने कहा भी नहीं। अब दीवान सिंह का बाहर टहलना भी बंद हो गया। लगता था कि फ़टी जूती देखकर लोग क्या कहेंगे। राजकरण के पिता पर जूती नहीं हैं। बस अब घर में ही शांत शांत रहने लगे। पोते के साथ खेलते रहते और एक दिन घर में रहना भी दुश्वार हो गया।
" सुनो जी सुनते हो।.... " श्रीसौम्या ने चिल्लाते हुए कहा।
" क्या है ? बताओ। " राजकरण ने रसोई में झाँकते हुए कहा।
" ये तुम्हारे पिताजी ने तो मेरा जीना मुहाल कर दिया है। पहले सुबह शाम घूमने चले जाते थे अब तो वो भी बंद कर दिया है। खुलकर कभी कोई काम ही नहीं कर सकते। हर समय घर में घुसे रहते है। इनका कुछ करो। सुबह शाम काम का समय होता है कैसे भी किन्ही कपड़ो में काम कर लो लेकिन ये महाशय कहीं जाये तब ना। " श्रीसौम्या ने लगभग चीखते हुए कहा।
सुन तो दीवान सिंह ने भी लिया था परन्तु फिर बेटे ने भी आकर कहा तो उन्हीं फ़टी जूतियों के साथ बाहर निकल गए।
लगभग दस दिन बाद घर से निकले तो पुराने साथियो ने घेर लिया। सभी को बड़ी मुश्किल से झूठ बोला कि तबियत खराब थी तो आ नहीं पाया।
सुबह शाम आना जाना शुरू कर दिया। बहू के घर में होने तक घर में नहीं घुसते। राजवती तो घर में काम करके अपना समय काट लेती लेकिन दीवान सिंह को लाचारी में समय काटना भारी पड़ने लगा था।
एक दिन तो बस गजब ही हो गया। एक शाम ज़ब श्रीसौम्या जॉब से घर वापिस आ रही थी तो एक महिला ने उसे रोक कर कहा - " तुम अपने ससुर को एक जोड़ी जूती क्यूँ नहीं दिलवा देती। आज उनके पैर में ठोकर लगने से काफ़ी खून निकला है। "
" वो... उन्होंने बताया नहीं उनको आज ही जूती दिलवाती हूँ। " कहकर घर की तरफ चल दी श्रीसौम्या।
राजकरण के आते ही घर में तांडव शुरू हो गया।
" तुम्हारे पिताजी की वजह से आज मेरा सर शर्म से झुक गया है। सारे मोहल्ले में थू -थू हो रही है हमारी। फटी जूतियाँ मोहल्ले भर में दिखा रहे हैं जाकर। अब घर में या तो ये रहेंगे या हम। हमारी भी कोई रेपुटेशन है या नहीं " श्रीसौम्या ने चीखते हुए कहा।
" इनका क्या करूं वाकई में मैं भी परेशान हो गया हूँ। " सर पकड़ते हुए राजकरण ने कहा।
खाँसते हुए तब तक दीवान सिंह ने अंदर आते हुए कहा- " बेटे आप परेशान मत होइए। रामा देवी चौराहे के पास एक आनंदआश्रम के नाम से वृद्धाश्रम है। हम दोनों को वहाँ तक छोड़ दो। वृद्धाश्रम के संचालक मेरे मित्र हैं मोतीलाल जी। "
" ठीक है यही ठीक रहेगा हमारे और आपके लिए। " राजकरण के कुछ कहने से पहले ही श्रीसौम्या ने कहा।
राजवती तो पहले की तरह कुछ नहीं बोली। सभी पहुँच गए वृद्धाश्रम। राजकरण तो लौट आया लेकिन दीवान सिंह को एक अलग ही ख़ुशी मिल गई। उन्हें लगा जैसे लाचारी के बंधन से मुक्त हो गए हों।
समय बीतता गया। दीवान सिंह और राजवती देवी आनंद से रहने लगे। लगभग दो वर्ष बाद गांव से दीवान सिंह के छोटे भाई कानपुर किसी काम से आये तो सोचा भाई से मिल लू। घर पहुंचे तो पता चला भाई तो वृद्धाश्रम में हैं। मन अंदर से हिल गया।
" वाह बेटे तूने तो मौज कर दी। उस इंसान की वही सही जगह है। जो इंसानियत दिखाए उसका यही हस्र होना चाहिए। अगर मेरे भाई के अंदर इंसानियत ना होती तो तुम किसी गटर को साफ कर रहे होते। " राजकरण से उसके चाचा आसकरण सिंह ने कहा।
"कहना क्या चाहते हो आप। अपनी जबान को लगाम दीजिये चाचा जी " राजकरण ने उत्तेजित होते हुए कहा।
" अब जबान को लगाम तो नहीं लगेगी। आज तुझे तेरी औकात बता के जरूर जायूँगा। तू है क्या? अगर भाई साहब नहीं होते तो तू गटर तो छोड़ चोरी चकारी पता नहीं क्या क्या कर रहा होता। वही मोतीलाल जिनके वृद्धाश्रम में तू भाई साहब भाभी जी को छोड़ आया है ना उन्ही के अनाथश्रम से तुझे गोद लिया था ज़ब तू मात्र 6 माह का था। वाह रे क्या इंसानियत दिखाई तूने जिसने तुझे छत दी अपना नाम दिया, उसी को बेसहारा कर दिया। वाह जियो मेरे बच्चों.. " गुस्से में कहते हुए बाहर निकल गए आसकरण।
धम्म से बैठ गया राजकरण। उसके पैरो के नीचे की जमीन खिसक गई। देवता को ठुकरा चूका था। आत्मग्लानी ने उसे घेर लिए। श्रीसौम्या की जबान को भी लकवा लग चूका था।