संस्कारों का असर
संस्कारों का असर
कार्तिक एक लम्बे समय से दादा जी के साथ रहता था। अमृतसर में पुस्तैनी मकान था तो दादाजी व दादी जी अमृतसर में रहते थे पिताजी अलीगढ़ में आयकर अधिकारी की पोस्ट पर तैनात थे। पिताजी व माता जी दोनों ही जॉब की वजह से अलीगढ़ में ही रह रहे थे। शादी से पहले कार्तिक भी अलीगढ़ में ही रहता था लेकिन बाद में ज़ब उसकी पत्नी रचना ने जिद की तो वह दादा जी के पास रहने लगा और तब से यही था। उसके दो भाई पिताजी के साथ थे। कार्तिक ने अमृतसर तहसील में वकालत का काम प्रारम्भ कर दिया था।
"अरे दादा जी आप कहाँ से आ रहे है ? आपकी तबियत ठीक नहीं है फिर भी आप पता नहीं घर से कहाँ निकल जाते हैं ? मैं तीन बार दरवाजे तक देख चुकी हूँ आपको। आप ऐसे अकेले मत जाया करो। ये खाली बैठे है इनको साथ ले जाते। ” रचना ने बड़े ही अधिकार से दादा जी से कहा।
दादा जी मुस्कराकर धुप में पड़ी कुर्सी की तरफ बढ़ गए। बैठे तो घुटने में दर्द होने लगा। चेहरे से साफ झलकने लगा कि दर्द हो रहा है लेकिन कुछ कहा नहीं। यही तो आदत थी उनकी कभी कुछ कहना नहीं बस मुस्कराते रहना।
"बहु बेटा मैं जरा सुखविन्दर हलवाई तक चला गया था। गरम गरम इमरतियाँ बन रही थी तो बस मुझे कार्तिक की याद आई। उसे इमरतियाँ बहुत पसंद है बहु बेटा। वहीं थोड़ा देर हो गई। ”
" कोई बात नहीं दादा जी। अब आगे से अकेले ना जाया करो। आपको पता है लोग कैसे कैसे गाड़ियां चलाते हैं ? मान जाओ आप ना जाया करो।" रचना ने बच्चों की तरह समझाते हुए कहा।
"अच्छा बेटा अब नहीं जायूँगा। अब तो चाय पिला दो। " दादा जी ने कहा।
" मैं तो भूल ही गई। अभी लाती हूँ। ” कहकर रचना अंदर चली गई।
अंदर कार्तिक ने दादाजी और रचना की नौक झोंक की आवाज़ सुन ली थी। बाहर आकर वो दादा जी के चरणों में घास पर ही बैठ गया। दादा जी ने काफी कहा कुर्सी पर बैठने को लेकिन कार्तिक नहीं माना। जमीन पर बैठकर कार्तिक ने दादा जी के पैर दबाना शुरु कर दिया। दादाजी ने काफ़ी मना किया लेकिन रचना और कार्तिक को कभी आदत ही नहीं थी दादा जी की ऐसी बातो को मानने की क्युँकि उन्हें पता था दादा जी को कितनी भी तकलीफ क्यूँ ना हो लेकिन वो हमेशा मुस्कराते रहते थे और ज़ब कार्तिक ने पूछा तो कहने लगे - :
" बेटा बुढ़ापा ही बीमारी है। कब तक दुःख मनायूँगा इसका। अब जो चार दिन बचे है उन्हें रोकर नहीं तुम बच्चों के साथ हंसकर गुज़ारना चाहता हूँ। ”
रसोई की खिड़की बगीचे में जिधर दादा जी और कार्तिक बैठे थे उधर ही खुलती थी तो रचना भी सब देख रही थी। रचना की माँ ने उसको एक तेल बनाकर दिया था दादा जी के घुटनो के दर्द के लिए। उसने वो तेल गरम किया और कार्तिक के सामने रख दिया और बोली - " ज़ब आप पैर दबा रहे हो तो यह तेल भी लगा दो दादाजी को राहत मिल जाएगी। मैं तब तक चाय लेकर आती हूँ। ” कहकर चाय बनाने चली गयी रचना।
" दादा जी मैं एक बात कहूँ हम कितने भाग्यशाली है जो रचना जैसी महिला हमारे घर में है। मैं कभी कभी सोचता हूँ दादा जी अगर कही कोई लड़ाकू महिला हमारे घर में होती तो शायद हम और आप साथ भी नहीं होते। ”
"इसका एक और कारण है बेटा वो हैं संस्कार। मैं ज़ब तुम्हारी शादी में गया था तो मुझे जरा फ्रेस होने जाना था तो तुम्हारे पापा मुझे घर में छोड़ आये। मैंने जो वहा देखा उसका नतीजा ये बहु बेटा है। ” दादा जी ने कहा।
"ऐसा क्या देखा आपने वहाँ दादा जी ” कार्तिक ने उत्सुकतावश पूछा।
" मैंने देखा तेरी सासू माँ को अपने ससुर साहब की सेवा करते हुए उनसे बच्चों की तरह बात करते हुए। यह तो सत्य है हम भाग्यशाली है। मगर उससे बड़ी बात है उस माँ के संस्कार है जो अपने ससुर की सेवा करना जानते है और बेटा संस्कार का असर तुम्हैं तब समझ आएगा ज़ब तुम्हारे ये दोनों छोटे नन्हे मुन्ने ज़ब बड़े होकर तुम्हारी सेवा करेंगे। ज़ब तुम अपने दादा के साथ इतना करते हो वो भी तो वही देख रहे है। वो भी वही करेंगे " दादाजी ने मुस्कराते हुए इशारा किया।
कार्तिक ने पीछे देखा तो दोनों बच्चों के साथ रचना चाय लिए ख़डी थी। सभी चाय पीने लगे।
कार्तिक का बेटा जमीन पर नीचे बैठ गया और वो भी दादा जी के पैर अपने नन्हे हाथो से दबाने लगा। कार्तिक को संस्कारों का असर समझ आ रहा था।...