भूख
भूख
रात में मच्छरों के काटने से उसे नींद नही आ रही थी। दरवाजे के संध से उसे बाहर रह रह कर चमकती हुई रोशनी नजर आई। वह दरवाजा खोलकर आसमान की ओर देखा। स्याह रंग में तब्दील हो चुका आसमान किसी फ्यूज ट्यूबलाईट की तरह लगातार जल बुझ रहा था। बादलों की गड़गड़ाहट धीमें आवाज में दूर किसी नगाड़े की तरह सुनाई दे रही थी। कुछ इस तरह जैसे उसे मानसून के आगमन के स्वागत में लगातार बजाया जा रहा हो। वह वापस अंदर आया और आँखे बंद कर सोने का प्रयास करने लगा। कुछ देर में उसे नींद आ गई।
सुबह हुई तो बारिश के शोर से आँखें स्वतः ही खुल गईं। वह दरवाजा खोलकर बाहर झांका। पानी की एक लहर पर बारिश की बूंदें अठखेलियाँ कर रही थीं। उसने हाथ जोड़कर बौछार को नमस्कार किया। वह मन ही मन बुदबुदाया - 'धरती की प्यास और किसानों की आस पूरी करना भगवन।'
भीगते हुए ही उसने नित्यक्रिया सम्पन्न कर, आँगन में रखे खाद्यतेल के एक बड़े डिब्बे में भरे पानी से नहा लिया। वह तैयार होकर बारिश रूकने का इंतजार करने लगा। लगभग तीन घंटे बाद बारिश रूकी और वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ गया।
एक बड़े से हाॅल में बनी रसोई में उसे कोई चहल पहल नजर नही आई। असहायों के लिए बनने वाले खाने के पैकेट में सहयोग करने वाले स्वयंसेवक भी नजर नही आये। कुछ देर तक वह अन्य लोगों की प्रतीक्षा में बैठा रहा। जब एक स्वयंसेवक वहाँ पहुँचा तो उसने बताया कि बारिश के कारण पैकेट बनाने का काम स्थगित कर दिया गया है।
वह भौचक्का रह गया। वह बोला - "तो क्या आज सभी को भूखा ही रहना पड़ेगा ?"
उस स्वयंसेवक ने कहा कि पूरी रसोई अस्त व्यस्त है, सड़कों में पानी भर गया है इसलिए जरूरतमंदों तक पैकेट पहुंचाना मुश्किल है।
उस स्वयंसेवक की बात सुनकर पहले तो वह निराश हुआ फिर कुछ सोचते हुए बोला - "अगर आप साथ दो तो कुछ पैकेट तो बनाये जा सकते हैं, कितने ही लोग खाने की उम्मीद से राह तकते होंगे।"
वह स्वयंसेवक थोड़ा असमंजस में दिखा फिर खाना बनाने के गंजे को उठाते हुए बोला - "ठीक है, चलो कोशिश करके देखते हैं।" दोनो खाना बनाने में जुट गये।
वह पिछले कई हफ्तों से सैकड़ों लोगों के लिए खाना बना रहा था, बिना किसी मेहनताने या मजदूरी के। बदले में उसे भी पेट भर खाना खाने को मिल जाता। दानदाताओं के सहयोग एवं स्वयंसेवी युवाओं के उत्साह से दोपहर तक खाने के पैकेट तैयार हो जाते और फिर स्वयंसेवक अपनी अपनी गाड़ियों में रखकर जरूरतमंदों को बांटने निकल जाते। लेकिन बारिश के कारण उस दिन खाना बांटने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया था। अगर उसने प्रयास न किया होता और उस एकलौते स्वयंसेवक ने हामी न भरी होती तो न जाने कितने ही असहाय जनों को उस दिन भूखे ही रहना पड़ता। अन्य स्वयंसेवकों की अनुपस्थिति के कारण उस दिन खाना कम मात्रा में और देर से बना, लेकिन आखिरकर बंटने के लिए काफी पैकेट तैयार हो गये।
खाने के उन पैकेटों को बांटने वह पहली बार उस स्वयंसेवक के साथ स्वयं निकला। भूख से व्याकुल कई असहाय उनके आने वाले रास्ते की ओर टकटकी लगाये बैठे थे। खाने का पैकेट पाते ही उनकी आँखें तृप्त नजर आने लगतीं। उस दिन वह उस स्वयंसेवक के साथ मिलकर सांयकाल तक खाने के पैकेट बांटता रहा मगर इस बीच उसे एक बार भी भूख का अहसास नही हुआ जबकि वह सुबह से ही भूखा था।
खाने के कम पैकेट बने होने के कारण वे सभी के पास नही पहुंच पाये इस बात का उसे बड़ा मलाल हुआ। वे सारे पैकेट बांट दिये। वापस आकर बर्तन धोने के पहले उसे गंजे के तले में लगे अन्न के कुछ दाने दिखे। उन्हीं दानो से उसका पेट भर गया। बारिश की रिमझिम में भीगते हुए घर वापस लौट कर वह कपड़े बदला फिर लेट गया। उसे बड़ा सुकून महसूस हो रहा था। लेटे लेटे ही उसने आँखें बंद किया अचानक उसे कुछ बदलाव महसूस हुआ। उस रात उसे मच्छरों की भिनभिनाहट और चुभन जरा भी महसूस नही हुई।
पानी बरसते ही मच्छरों का हमला बढ़ जाता है लेकिन अचानक से उस रात मच्छर उसके घर से जैसे गायब हो गये। वह मन ही मन बुदबुदाया - 'लगता है मच्छरों ने भी आज उपवास रखा है।'
धीरे-धीरे वह नींद के आगोश में समा गया।