Dr Jogender Singh(jogi)

Abstract

4.0  

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बेवज़ह

बेवज़ह

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उसके घुँघराले बालों से आती खुशबूं रंजीत को बहुत अच्छी लगी !संजौली में रेलिंग किनारे जब हिमाचल रोडवेज़ की बस को हाथ देकर रोका , तभी पिछले दरवाज़े से सटी खिड़की से घुँघराले बालों से लदा सिर दिखाई दिया ! बस रुकी नहीं , पर मोड़ तक जाते जाते चूँ की आवाज़ के साथ बस रुक गयी । कंडक्टर ने हाथ के इशारे से रंजीत को बुलाया । ड्राइवरों की यह आदत सब को मालूम है , अकेले लड़के को देख बस दूर ले जा कर रोकेंगे । दौड़ लगा कर रंजीत बस में चड़ गया । सीट की तलाश में नज़र दौड़ाई , वाह एक ही सीट ख़ाली वो भी पिछले गेट के पास । सीट पर बैग रख कंडक्टर से टिकट ली ।फिर बैग को सेट कर बैठ गया । 

सितम्बर की शुरुआत हो गयी थी , हलकी / हलकी ठण्ड पड़ने लगी थी । रंजीत हॉस्टल से घर जा रहा था , दशहरे की छुट्टियों में। उसने पूरी बाँह की शर्ट पहनी थी , स्वेटर घर से लाने वाला था । कनखियों से रंजीत ने अपनी सहयात्री को देखा “गोरी है ” , अपनी और के गाल को देखा वाह सुन्दर है । चश्मा चड़ाये सुंदरी की आँखे हाथ में पकड़े नॉवल में गड़ी थीं । खिड़की खुली थी , ठण्डी हवा के झोंके रंजीत को अंदर तक कंपा रहे थे।

"प्लीज़ ! खिड़की बंद कर लेंगी आप ? "

उसने चश्मे के पीछे से अपनी बड़ी बड़ी आँखो से रंजीत को देखा, फिर धीरे से खिड़की बंद कर दी।

घमण्डी लगती है, क्या करना मुझे ? रंजीत खिड़की के बाहर देखने लगा । बादलों के छोटे छोटे समूह आसमान में दिख रहे थे । बारिश न होने लगे ? देखता हूँ , छः घण्टे कम से कम लगेंगे घर पहुँचने में । उसने आँखे बंद कर ली । माँ इंतज़ार कर रही होगी , कल सुबह सुबह काली मन्दिर लें जायेंगी , कोई न कोई मन्नत माँगी होगी मेरी सलामती की । रंजीत मुस्कुराया ,उसे मंदिर में जाना बिल्कुल पसंद नहीं ,पर माँ का दिल रखने वो चला जाता ।पता नहीं कब उसकी आँख लग गयी । बस रुक गयी थी । कंडक्टर चिल्ला रहा था , आधे घण्टे ही बस रुकेगी सब लोग खा - पी लो ।रंजीत ने आँखे खोली , ओह सराहन आ गया , दो घंटे और । "आप उठेंगे ? मानो कोयल कूकी हो ।"रंजीत अलपक देखता रह गया ,बला की ख़ूबसूरती । "जी , जी" रंजीत हकलाया।हड़बड़ी में उठ कर किनारे हो गया, वो धीरे से मुस्कराकर बस से उतर गयी ! रंजीत ने राजमा-चावल का ऑर्डर दिया ! चोरी-चोरी उसको देखता जा रहा था ! ग़ज़ब की खूबसूरती, रंग ऐसा मानो छुने से मैला हो जायेगा !बड़ी-बड़ी पलकें, चेहरा गोल मानो चांद निकल आया हो? रंजीत को अपनी धड़कन सुनाई दे रही थी ! पेट में एक अजीब सी गुदगुदी हो रही थी ! यह क्या हो गया मुझे? खुद से उसने सवाल किया ! जो भी हो अच्छा लग रहा था !

 सब लोग उठो टाइम हो गया, कन्डक्टर ने आवाज़ लगाई ! "जल्दी करो ! सुनो लड़के तुम्हें नहीं चलना, यहीं रहोगे? उठ जा भाई प्लेट खाली हो गई है !" "आया " , रंजीत झेप गया ! 

"क्या भाई प्लेट भी खाने का इरादा था ।" कंडक्टर बेपरवाही से बोला ।

"नहीं अंकल" , रंजीत जल्दी से सीट पर बैठते हुये बोला ।

डेड़ घंटा और लग जायेगा । रंजीत को खाने के बाद ठिठुरन होने लगी ।

“शाल ओढ़ लो ” शाल देते हुये वो बोली , मीठी आवाज़ फिर से । "ले लो उतरने पर दे देना ।"

"जी थैंक्स" रंजीत हकलाया । उसने फिर से किताब में आँखे गड़ा दी ।

शॉल से भी हल्की हल्की ख़ुशबू आ रही थी ।

"आप कहाँ रहती हैं ? "

"रानीताल के पास ।"

"अच्छा , मैं कच्चे जोहड़ पर रहता हूँ , देखा नहीं कभी आपको ? "

"मैंने अपनी सारी पड़ाईं चंडीगढ़ से की है ।"

"फिर आप शिमला क्या करने आयी थी ?" 

वो मुस्कुराई कोई जवाब नहीं दिया ।रंजीत की फिर से पूछने की हिम्मत नहीं हुई ।पर मन उसके सपने देख रहा था ।बाक़ी रास्ते में कोई बात नहीं हुई ।

दिल्ली गेट पर बस से दोनो उतर गये ।

"आपका शाल , आपको छोड़ दूँ घर तक ?", रंजीत ने बड़ी उम्मीद से पूछा ।

"नहीं , मेरे पति आयें है , वो देखो खड़े है पान की दुकान पर" वो मुस्कुराई ।

"अच्छा" रंजीत झेंपते हुये बोला । "बाई थैंक्स " रंजीत तेज़ी से मुड़ गया । 

बिना सोचे - समझे क्या क्या सोच लिया । मन ही मन हँस पड़ा । 


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