Jeet Jangir

Classics Romance Tragedy

5.0  

Jeet Jangir

Classics Romance Tragedy

बदनाम गली

बदनाम गली

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"अरे यार। मतलब हद है मुर्खता की। तुम वहां गये हो।" 

"गया तो कोई बात नहीं मगर इतना रिस्क कौन लेता है।,

" सभी जाते हैं। तुम नहीं जाते क्या?"

"जाता हूँ मगर इन महाशय की तरह पैसे बाँटने नहीं।"

"खैर इनको दस बीस हजार से क्या फर्क पड़ता है? महीने भर की ही तो सेलेरी थी।"  

"और जब तुमको साथ चलने को कहा था तब तो तुम्हें बड़ी शराफत चढ़ रही थी।"

दोस्तों द्वारा की जा रही सवालों की इस बारिश के बीच रणजीत सहमा हुआ खड़ा था।

"तुम लोगों को साथ चलना हैं तो चलो वरना मना कर दो और वैसे भी मुझे कोई शौक तो है नहीं पैसे बाँटने का। उसने कहा कि मुसीबत में हूँ, कल तक लौटा दूंगी। और उसके चेहरे से और उसके आंसुओ से पता चल रहा था कि वो जरुर किसी मुसीबत में है" रणजीत ने टोकते हुए कहा।

"अच्छा। तुम्हें चेहरा पढ़ना बड़ा अच्छा आता है? चेहरा तो रावण ने भी साधू का बना लिया था। तू कहता है तो चल लेते हैं मगर मुझे उम्मीद नहीं हैं कि वो पैसे वापिस मिलेंगे।" विनय ने अविश्वास जताते हुए कहा।

सभी दोस्त धीरे धीरे उस गली की ओर बढ़े। हर तरफ अपनी ओर बुलाते इशारे और भटकते कदमो के अलवा कुछ नहीं था। ठीक एक घर के आगे जाकर तीनो दोस्त रुक गये। 

"अन्दर आ जाओ।" बरामदे में बैठी एक अधेड़ उम्र की औरत बोली।

"अन्दर आने नहीं आये हैं। कुछ काम है। वो पिंकी कहाँ है?" विनय ने कहा।

"गाँव गयी है। अन्दर आ जाओ और भी कई हैं। उनको एक बार देख लो पिंकी को तो भूल ही जाओगे ।" औरत ने कहा।

"क्या कहा? गाँव गयी है? कौन से गाँव?" रणजीत ने हैरत से पूछा।

"ये धंधा है इनका। लोगो से पैसे ऐंठकर दूसरी जगह भेज देते हैं।" विनय ने समझाते हुए कहा।

"पैसे ऐंठकर मतलब क्या पिंकी ने तुम्हीं से पैसे लिए थे?" औरत ने पूछा।

"हाँ। वो भी पूरे बीस हजार।" रणजीत ने कहा।

"तो इतनी देर कैसे कर दी आने में? उसने कहा था कि कोई रणजीत बाबू आएँगे उनको देना है। सप्ताह भर से मैं तुम्हारी राह देख रही हूँ। रुको मैं आती हूँ।" कहकर वो औरत अन्दर चली गयी।

अब रणजीत ने सवालिया निगाहों से विनय की और देखा। विनय ग्लानी और अचरज से भरा दिख रहा था। थोड़ी देर बाद वो औरत आई और रणजीत के हाथ में पैसे थमाते हुए बोली- "ये लो आपके पैसे और बहुत बहुत धन्यवाद तुम्हारा जो तुमने हमारे जैसे लोगो पे विश्वास कर पिंकी की मदद की।" 

अब रणजीत को अपने पैसे और विनय को अपने वहम का जवाब मिल चुका था। लौटते क़दमों ने मुडकर पुनः उन चेहरों की ओर देखा जो मानो कह रहे हो- "कसूर तुम्हारा नहीं है बाबु। इन गलियों का है जो जिस्म बेचकर भी आज तक जमाने का भरोसा नहीं कमा सकी। ये बात और हैं कि हमने जिस्म बेचा हैं जमीर नहीं।"


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