विधवा

विधवा

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"आप होली पर रंग क्यूँ नही खेलती माँ।" रवि ने अपनी माँ से मासूम सा सवाल किया।

"नहीं खेल सकती बेटा क्योंकि मैं विधवा हूँ और विधवा को हक नही होता हैं रंग खेलने का।" माँ ने रवि को सर पर हाथ फेरते हुए समझाया।

"विधवा? वो क्या होता हैं माँ?" रवि की जिज्ञासा बढ़ गयी।

"जिस औरत का पति गुजर जाता हैं वो विधवा होती हैं।" माँ ने बताया।

"तो क्या किसी भी विधवा को होली खेलने का अधिकार नही होता?" रवि ने पूछा।

"नहीं बेटा। इस गाँव में ये हक किसी विधवा को नही हैं कि वो किसी भी ख़ुशी के मौके में शामिल हो।" माँ ने फिर कहा।

"और ये हक़ कौन देता हैं?" रवि ने अपनी माँ को पूछा।

"चलो छोडो। काफी रात हो रही हैं। सो जाओ। सुबह तुम्हें रंग खेलने जाना हैं।" कहकर माँ रवि को थपकिया देने लगी।

मगर रवि की आँखों में नींद की जगह कई प्रश्न अब तैर रहे थे लिहाजा वो उठ बैठा और पुनः पूछा- "अच्छा माँ तो जिस पुरुष की औरत मर जाती हो उसको भी तो होली खेलने नही देते होंगे न।"

"नही बेटा। ऐसा नही हैं। उनको तो ऐसी कोई बंदिश नही होती हैं।" माँ ने लम्बी साँस भरी।

"क्यूँ नही होती। जब विधवाओ पर हैं तो विधुरों पर भी होनी चाहिये।" रवि की आपति थी।

"शायद ये सब नियम कायदे बनाने वाले पुरुष हैं तो वो अपने को इससे दूर रखे हो।" माँ ने समझाया।

"कौनसे पुरुष ये नियम बनाये हैं मान?" रवि के प्रश्न जारी ही रहे।

"जो गाँव के पंच होते हैं वो ये कायदे बनाते हैं।" माँ ने कहा।

"और ये पांच कौन बनता हैं?" रवि के इस प्रश्न में कुछ ज्यादा ही उत्सुकता थी जैसे इस प्रश्न के पीछे को बड़ा उद्देश्य छिपा हो।

"गाँव वाले सब मिलकर ही पांच बनाते हैं।" रवि की शंका का समाधान करते हुए माँ ने कहा।

ये सुनकर रवि फिर से माँ की गोद में सर रखकर सो गया और आकाश में टिमटिमाते तारो को देखते हुए बोला_

"माँ। मैं भी बड़ा होकर पांच बनुगा। और फिर ऐसे सभी कायदों को ख़त्म कर दूंगा। कोई भी विधवा को किसी भी ख़ुशी का त्यौहार मानाने से किसी प्रकार की रोकटोक नही होगी। हर स्त्री को पुरुषो के बराबर अधिकार होंगे। कोई भी विधवाओ को ज्यादा दबाने की कोशिश करेगा। उस पर मैं ऐसी बंदिशे लगा दूंगा। "

रवि की मासूम बाते रात की खमोश फिजा में घूल रही थी। आँखों में आंसू और होंठो पर मुस्कान लिए माँ उसके मुखड़े को गौर से निहार रही थी। बातें मासूम थी मगर सच्ची थी, अच्छी थी। काश ये बाते पंचों के भी समझ में आ पाती।


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