भूतों की बात

भूतों की बात

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एक घने जंगल में जहां सिर्फ खामोशी फैली थी, वहीं एक पुरानी हवेली थी।

अमावस की अंधेरी रात थी, वहां हो रही भूतों में बात थी।

एक छोटे भूत ने ने मन का राज खोला और एक बूढ़े बहुत से बोला- 'भूत दादा। आज कल दिल्ली में हमारा रिकॉर्ड टूट रहा है, इंसानी जाने इंसान ही लूट रहा है। मुझको ये माजरा समझ मे नही आता है, अपनी जात वालो को इंसान कैसे खाता है।'

इस पर भूतों के दादा में समझाया, अपना अनुभव सुनाया- 'किसी जमाने में भूतों का डर हुआ करता था, या यूं कहें भूत ही भय का घर हुआ करता था। इंसान इंसानो के काम आता था, इंसानियत का पहला नाम आता था। मगर अब हमें उनसे डरना पड़ता हैं और अगर ना डरे तो मरना पड़ता हैं। अब इंसान इंसान की नही सुनता है, सदा कपट के जाल बुनता हैं। अब हमारा नाम कोई नही लेता डराने के लिए, इंसान ही काफी उनको खाने के लिए। तुम अच्छे हो क्योंकि भूत के बच्चे हो। इंसान खा जाता हैं इंसान कच्चे ही और छोड़ता नही है बच्चे भी।

ये अनुभव छोटे भूत के मन में डर बो गया और वो अंदर जाकर अपनी माँ की गोद में सो गया।


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