बचपन की वह होली
बचपन की वह होली
होली आते ही पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। सबसे पहले तो बचपन की होली याद आती है। होली से एक दो दिन पहले से ही कपड़े ढूंढने शुरू हो जाते थे। होली पर कौनसा कपड़ा पहनकर होली खेलें ।जो कपड़े पहनेंगे वे होली के बाद दान कर दिये जाते हैं। और कपड़े ऐसे पहनने हैं कि होली का रंग खिलकर आये। अधिकतर सफ़ेद या हल्के रंग के कपड़े पहनते थे जो पारदर्शी न हों और ठण्ड से बचाव भी करें। सब को होली मनाने का उत्साह रहता था।
बहुत सारे पलाश के फूल जिन्हें टेसू कहते थे, पहिले से ही मंगाकर रख लिये जाते थे। इन टेसू के सूखे फूलों को रात भर बहुत बड़े भगौने में भीगने और फूलने के लिये रख दिया जाता था और सुबह होते ही बड़े से चूल्हे पर उसे पकने के लिये चढ़ा दिया जाता था। पकने पर फूलों का रंग पानी में आ जाता था। इस तरह तीन -चार बड़ी बाल्टी भरकर बड़ा अच्छा पीला रंग तैयार हो जाता था। वह सुगन्धित और उष्ण होता था और छानकर बाल्टियों में भर लिया जाता था। बचे फूलों को फिर से पकने के लिये रख दिया जाता था। इस तरह फूलों का ही रंग बना लिया जाता था।
होली के दिन मेहमानों को देने के लिए मॉं घर पर ही गुझिया बनाकर रखती थीं। वे बहुत स्वादिष्ट गुझिया होतीं,उनमें मेवा भरी रहती। मॉं होली के रंग से बचने के लिए दो मंज़िलें पर जाकर गुझिया बनातीं, पर चाचाजी वहाँ जाकर भी उनको छेड़ते और गुलाल छिड़क आते।
बड़ी सी कड़ाही में बहुत सारी गुझिया गाय के शुद्ध घी में बनाई जातीं। बनने पर उनको बड़ी सी टोकरी में भरकर रखा जाता ।और मेहमानों को देने के लिये बड़े से चाँदी के थाल में उनको सजाकर नीचे बरामदे में टेबिल पर रख दिया जाता।साथ ही एक अलग चाँदी की तश्तरी में सब मेवा सजा दी जाती जिनमें काजू, अखरोट, बादाम, पिस्ते और किशमिश आदि होते। एक अलग तश्तरी में सौंफ इलायची मिश्री लौंग और कसा हुआ नारियल रखा जाता। पास ही रंग बिरंगे गुलाल एक थाल में रखे रहते। इस तरह मेहमानों के स्वागत की पूरी तैयारी होती।
हम सब सुबह ही सुबह कपड़े बदलकर नाश्ता कर तैयार हो जाते । अपनी अपनी पिचकारी में टेसू का रंग भर लेते, और मेहमानों के आने का इंतज़ार करते । होली पर मिलने आने वालों का ताँता शुरू हो जाता तो सबसे पहले हम लोग अपनी पिचकारी से उनका स्वागत करते। हम छिपकर रंग छोड़ते,उन्हें पता भी नहीं चलता कि कहॉं से रंग की फुहारें आयीं। होली पर वे लोग सब आपस में गले मिलते, अबीर गुलाल लगाते जो वहीं तश्तरी मे सज़ा रहता था। फिर गुझिया वग़ैरह उन्हें पेश की जाती है जो वे बड़े प्रेम से लेते और तारीफ़ के पुल बाँध देते।
अब उसके बाद जमकर होली का रंग बरसता, लोटे से मेहमानों पर रंग डालकर उन्हें सराबोर कर दिया जाता। बड़े आंगन में खड़े होकर वे लोग होली खेलते, हम बच्चे ऊपर छत पर चढ़कर उन पर रंग छोड़ते। रंग की बारिश सी हो जाती।
कोई रंग डालने का बुरा नहीं मानता था, बल्कि कोई कोई तो कमर पर रंग डालने को कहते कि इससे कमर का दर्द दूर होता है। रंगों की इतनी बरसात होती कि पूरा आंगन रंग से गीला हो जाता। हँसी ठहाके गूँजते रहते। मेहमानों से घर का बड़ा अॉंगन भरा रहता। दो तीन घंटे बाद फिर सब धीरे धीरे विदा होते।
होली की ये यादें स्मृति में ऐसे सुरक्षित हैं जैसे अभी की बात है। वह साफ़ सुथरी निश्छल हँसी ठहाके वाली होली अब यादों में ही सुरक्षित है। छोटे लोग बड़ों के पैरों में गुलाल डालकर उन्हें प्रणाम् करते थे और बड़े उन्हें माथे पर टीका लगाकर आशीर्वाद देते थे।
आज कल गुलाल की जगह होली का हुड़दंग चलता है, बड़े छोटों का कुछ ख़्याल नहीं है। होली का त्योहार ख़ुशी का, प्रेम का, सौहार्द का त्योहार होता है, इसे शालीनता से अच्छे व्यवहार के साथ मनाना चाहिये। प्रकृति के तालमेल के साथ मनाना चाहिये। इस समय प्रकृति अपने मोहक रूप में होती है। वृक्ष फूलों से लदे हैं, जलाशयों में कमल खिले हैं,पवन सुगन्धित और दिवस रमणीय हैं,संध्या सुखकर है। वासन्ती बयार प्रसन्नता जागृत कर देती है। सहकार वृक्षों पर बौर लग गए हैं।विकसित पुष्पों का पराग चारों ओर फैल गया है। खिलते फूल, खिली खिली प्रकृति और हरे भरे पेड़ पौधों में नवपल्लव मन को प्रमुदित करते हैं। प्रकृति हमें निरन्तर खिले ख़ूबसूरत फूलों की तरह आगे बढ़ने की सीख देती है।
समूची सृष्टि में उल्लास का रंग बरसता स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है, हम भी इसमें क्यों न भीगें और औरों को भी सराबोर करें। होली पर रससिक्त हो नए उत्साह से आगे बढ़ें।