बादशाहत मेटी खान की !
बादशाहत मेटी खान की !
"सुनिए ...आपका नाम क्या है ? " ड्राइंग रूम से लगभग निकल चुके स्क्रिप्ट राइटर से कनिका ने सवाल पूछा।
"मैं.... मैं अतुल ..अतुल त्रिपाठी ! " लगभग हकलाते हुए वे बोल पड़े और फिर बिना किसी पल गवाए वे आगे बढ़ गए। उन्हें डर था मानो कनिका कुछ और न सवाल दाग दें !
प्रोड्यूसर माही की दी गई शानदार गाड़ी की पिछली सीट पर बैठकर अब अतुल वापसी यात्रा पर थे।अतुल अब अपने बचपन की यादों में उतरते जा रहे थे।जब 1953 में उनका जन्म गोरखपुर के एक गांव विश्वनाथपुर(सरया तिवारी )में हुआ था।5-6 साल की उम्र में शहर आना हुआ।पिताजी ने इलाहाबाद से पढ़ाई पूरी करके वकालत शुरु की थी।वे बचपन याद करते हैं तो उन्हें अब भी याद आने लगता है अलहदादपुर मुहल्ले का वह खपरैल का घर,आंगन में इस छोर से उस छोर तक फैला जालीनुमा एंटिना और उससे कनेक्टेड एक पतला सा तार जो बिजली के रेडियो सेट से जुड़ा था।बचपन की क्या कहें !जब उस भारी भरकम रेडियो सेट से कार्यक्रम आते तो मन में लगता कि कोई रेडियो में बैठा बोल रहा है ! जब सोकर सुबह उठते तो "वंदनवार" में भजन प्रसारित होते सुनते..और जब सोने जाते तो "हवा महल"..ख़ासतौर से उसकी सिग्नेचर ट्यून तो अब भी ज़ेहन में बसी है ।विविध भारती के सदाबहार गाने छुट्टियों के दिन में सुने जाते थे।जवानों के लिए विशेष "जयमाला" की भी याद आती है जिसे कोई न कोई फिल्मी हस्ती पेश करती थी।अंग्रेजी अच्छी तरह न जानते हुए भी क्रिकेट कमेन्ट्री सुनी जाती थी। उन दिनों आकाशवाणी गोरखपुर एयर पर नहीं था।रेडियो सीलोन से "बिनाका गीतमाला "ज़रूर आता था जिसे बिना व्यतिक्रम सुना भी जाता था।उस हफ्ते कौन सा गीत सरताज होगा इस पर शर्तें भी लगा करती थीं।आकाशवाणी पटना और लखनऊ भी अपना रेडियो पकड़ता था और ख़ासतौर से लोहा सिंह और रमई काका की बतकही बड़ी मज़ेदार हुआ करती थीं।जहां तक याद है उसके कुछेक साल में ही बड़ी बैटरी वाला इनबिल्ट एंटीना वाला ट्रांजिस्टर भी आ गया था जिसके लिए एंटीना ज़रूरी नहीं था।उसकी बैटरी बहुत बड़ी हुआ करती थी।डिसचार्ज होने पर खेलने के काम आती थी।कुछेक साल में छोटे ट्रांजिस्टर भी आ गये जो चलते फिरते मनोरंजन के साधन हो गये।बार्बर की दुकान हो या पान की,वे बजते ही रहते थे।शादी में दूल्हा( बाजा)ट्रांजिस्टर की भी मांग करने लगा था। सायकिल,रिक्शा, खेत,खलिहानों में रेडियो बजने लगे थे । हां,1962के युद्ध के दिनों की भी याद आती है जब सायरन बजते ही घटाटोप अंधेरे में हल्के वाल्यूम में सभी परिजन एक साथ बैठकर रेडियो सुना करते थे। युद्ध की ख़बरों का रोमांचक अनुभव आज तक सिहरन पैदा करता है।उन दिनों अद्यतन समाचार पाने का रेडियो ही एकमात्र साधन था।इन संचार साधनों की प्रगति के साथ साथ अतुल भी अपनी उम्र के सोपान चढ़ रहा था।उस समय यह नहीं जानता था कि एक दिन वह भी इसी रेडियो का एक ऐसा हिस्सा बनेगा जो प्रसारण की दुनिया में ढेर सारे कीर्तिमान स्थापित कर देगा !लेकिन अतुल के जीवन में समय पंख लगाकर उड़ता रहा और 1970के दशक में वे आकाशवाणी गोरखपुर से प्रसारण से जुड़े और वर्ष 1977में उन्होंने बतौर प्रसारण अधिशासी आकाशवाणी इलाहाबाद में ज्वाइन भी कर लिया था।
वैसे तो उनका शहर गोरखपुर उन दिनों पूरे विश्व में अलग अलग क्षेत्र में नाम रोशन कर ही चुका था .... पर आज तक उनके गाँव गिरांव से जुड़े दो शख्स बरबस ही याद आते रहते हैं जिन्होंने फर्श से अर्श तक का सफ़र अपनी मेहनत और लगन से तय किया था।एक तो विश्वनाथपुर सरया तिवारी के मेंटी खान नामक वह भयंकर डील डौल वाला इंसान जो बाबा भानु प्रताप का मुलाजिम था....| और दूसरे पास ही के एक गाँव रुद्रपुर ( खजनी ) के पहलवान ब्रह्मदेव मिश्रा का.. जिन्होंने लाहौर मल हुसेना, हजारा पहलावान ,करमुल्ला पहलवान , महाराष्ट्र के बाबा पहलवान , कश्मीर के शेरे तूफ़ान पहलवान और दारा सिंह को ही नहीं सिंगापुर और अमेरिका के अनेक पहलवानों को अखाड़े में धूल चटाई थी। उसे तब बहुत गर्व हुआ जब देश के जाने माने पहलवान दारा सिंह ने अपने इंटरव्यू में बताया था कि 1950 में जब वो 21 साल के थे तो पहलवानी लड़ने कोलकाता गए थे जहां अखाड़े में उनका सामना गोरखपुर के पहलवान ब्रह्मदेव मिश्रा से हुई थी। उन्होंने बताया कि ना जाने ब्रह्मदेव मिश्रा ने ऐसा कौन सा दांव खेला जिसको मैं समझ ही नहीं पाया और ब्रह्मदेव ने चंद मिनटों में ही मुझे धूल चटा दी थी। उन्ही के भतीजे राम नारायण मिश्र (बुच्चन मिश्र के बेटे) और पौत्र चन्द्र प्रकाश मिश्रा , भारत केसरी उर्फ़ गामा पहलवान ने भी आगे चलकर देश विदेश में नाम कमाया था।
लेकिन मेटी खान तो अद्भुत थे। लगभग 6 फीट की ऊंचाई , 56 इंच का सीना और लगभग एक कुंतल बीस किलो का वज़न लिए ये मेटी खान असल में पठान थे और बचपन में ही अफगानिस्तान से किसी काफिले के साथ भारत विभाजन से पूर्व किसी अंग्रेज़ के साथ गोरखपुर आये थे और जब अँगरेज़ वापस जाने लगा तो अपने यहाँ आने जाने वाले एक जमींदार पंडित भानु प्रताप को उनको यह कह कर सौंप गया था कि आदमी तो कई मिलेंगे लेकिन मेटी खान जैसा वफादार सिपाही आपको नहीं मिलेगा।यह बात 1938-39 की है।तब से अपनी मृत्यु तक मेटी खान उस परिवार से जुड़े रहे।जमींदार परिवार में ढेर सारे मुलाजिमों की भीड़ में उनकी अलग पहचान थी।उनको लगान वसूली और डकैतों से बचाव के लिए मुस्तैद किया गया था। जमींदार के हाथी और घोड़ों का भी वे प्रबन्धन देखा करते थे।बिगडैल से बिगडैल हाथी को भी वे अपनी शारीरिक ताक़त और चातुर्य से कंट्रोल में कर लिया करते थे।
बहुत पूजा पाठ और मान मनौउल के बाद जन्में उस जमींदार परिवार के कुलभूषण अरविन्द बाबू जब युवा हुए तो उनको पह्लावानी, घुडसवारी,हाथी सवारी आदि का ज़िम्मा भी मेटी खान को सौप दिया गया था। कुश्ती के क्या क्या तो दांव वे जानते थे - निकाल , टांग,मुल्तानी, ढाक,बहरल्ली,पुट्ठी,मोतीचूर,कालाजंग .और जाने क्या क्या ! अरविन्द बाबू को प्रतिदिन एक किलो घी,आधा किलो पिसा बादाम,पांच किलो दूध,और फल - फूल दिया जाता था।वे आधा खाते , आधा अपने उस्ताद मेटी खान को खाने के लिए मिन्नतें किया करते थे।सबसे बड़ी बात यह कि मेटी खान खुद भी एक सांस में 2500 बैठक और 1500 दंड लगाया और अरविन्द बाबू से लगवाया करते थे।उन्हीं दिनों जब अकाल पड़ा था तो रुद्रपुर (खजनी) के पंडित महादेव मिश्र ने अपने पाँचों पुत्रों को इन्हीं जमींदार के यहाँ स्थित गुरुकुल में दाखिला दिला दिया। दोनों परिवारों में यह अंतरंगता बढ़ती गई और आगे चलकर कुश्ती के दांव पेंच भी इन्हीं मेंटी खान से वे पांचो भाई सीखने लगे थे।बताते हैं कि एक साथ वे पांचो भाइयों से कुश्ती लड़ा करते थे।ब्रम्हदेव पहलवान ने उनसे बहुत कुछ सीख लिया था जो आगे चलाकर उनके बहुत काम आया। मिट्टी के अखाड़ों में कराई जाने वाली कुश्ती को यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग से आगे चलकर मान्यता मिल गई है लेकिन ब्रम्हदेव मिश्र जैसा पहलवान देखने को नहीं मिला जिसके लिए एक अंग्रेज़ समीक्षक ने कहा था -" He is the man who never saw the sky ."
एक झटके में गाड़ी रुक गई थी और स्क्रिप्ट राइटर अतुल अपनी यादों की रहगुजर से बाहर निकल चुके थे।
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