अपशगुन
अपशगुन


मन बहुत विचलित था, आज कुछ सही नहीं जा रहा था सुबह से मेरे साथ। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मुलाक़ात करने जाना था मुझे आज, उस मुलाक़ात पे मेरे "स्टार्ट-अप" का भविष्य बहुत हद तक निर्भर करता था। धड़कते दिल से मैं ईश्वर को प्रणाम करके घर से बाहर निकला कि हे भगवान जो भी गलती हुई है उसे माफ कर देना और मेरा काम बना देना। नियत समय पर मैं होटल पहुँच गया था और लॉबी में बैठा अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगा। वहाँ और भी कई मेरे जैसे लोग बैठे थे जो अपनी प्रजेंटेशन दिखाने के लिए आये थे।
सुबह जैसे ही उठा पानी पीने लगा तो पता नहीं कैसे गिलास हाथ से गिर गया और कांच का टूटना तो अशुभ माना जाता है। फिर उसे साफ करते-करते हाथ में चोट लग गई। पूजा करने गया तो पूजा का दीपक पता नहीं कैसे हवा के झोंके से बुझ गया, एक के बाद एक हुए इन अशुभ कार्यों की श्रृंखला ने मुझे विचलित करके रखा था। फिर मैंने सोचा मेरा लकी ब्लू शर्ट पहन के जाता हूँ आज पर हाय री मनहूसियत वो शर्ट तो प्रेस होकर ही नहीं आया था और आज शुक्रवार है तो लांड्री वाले ने भी दुकान बंद कर रखी है। मजबूरन मुझे सफेद शर्ट पहन के जाना पड़ेगा क्योंकि उसके अलावा बाकी सब कपड़े तो प्रेस होने गये है और सफेद मेरा "अनलकी" रंग है, मेरे मन में ये बात घर कर गई की मेरा आज जाना बेकार है, मेरा काम नहीं बनेगा। पर इतना बढ़िया मौका जाने भी कैसे देता, एक कोशिश तो करना ही था तो मैं दही और गुड़ खाके भगवान के सामने माथा टेक के मैं अपनी प्रजेंटेशन ले के निकल गया। अभी थोड़ी ही दूर चला था कि बाइक का टायर शायद पंक्चर हो गया। उफ्फ बड़ी कोफ्त आ रही थी मुझे इस पूरे सिलसिलेवार हुए मनहूस घटनाक्रम पर। खैर जैसे-तैसे मैं नियत वक़्त पर पहुँच ही गया, पर मन में एक डर सा बैठा हुआ था और मैं बार-बार बस बुदबुदाता जा रहा था कि ईश्वर मेरी मदद करदो।
मेरा बारी आने में काफी समय लग गया इसी बीच लंच-ब्रेक हो गया। जिस कंपनी को प्रजेंटेशन देना था उन्होंने सबके लंच का व्यवस्था किया हुआ था, तो मैं भी खाना खाने के लिए चल पड़ा होटल के रेस्टोरेंट में। वहां पर बुफे लगा हुआ था और सब अपनी मन पसंद के मुताबिक खाना ले रहे थे। मैंने भी 2 चपाती, पनीर का सब्जी, थोड़ा सा चावल , थोड़ा डाल और पापड़ ले के अनमने ढंग से एक टेबल की तरफ बढ़ गया। मेरे सामने एक महिला बैठी थी जो उम्र में मुझसे कुछ 15-20 साल बड़ी होगी। उसने मुझसे बात शुरू की।
वो - हाय, मेरा नाम नीलिमा है, आपका नाम?
मैं - जी मेरा नाम विश्वास... विश्वाश दुबे
वो - सुबह से देख रही हूं काफी परेशान दिख रहे हो, क्या बात है?
मैं - जी कुछ खास नहीं... बस ऐसे ही थोड़ा नरवस हूँ।
वो - ओह्ह, पहला प्रजेंटेशन ?
मैं - नहीं, सातवाँ है।
वो - फिर तो अपनी पिछली गलतियों से काफी कुछ सीख गए होंगे फिर क्यों नर्वस??
मैं - जी बस ऐसे ही..
और तभी मेरे शर्ट पे पनीर का सब्जी गिर गया और मैं बोल पड़ा ...उफ्फ एक और अपशगुन... मुझे नहीं लगता आज मेरा काम होगा । मैं रुआँसा हो गया। और मैं वाशरूम की तरफ भगा उसे साफ करने। महिला भी मेरी बात सुन रही थी, जब मैं लौटा तो वो बोली - क्या बात है आज बहुत अपशगुन हो गए क्या?
मैंने झिझकते हुए सुबह से हुआ घटनाक्रम उसे सिलसिलेवार बता दिया। उसने कहा अगर मन में अपने प्रोजेक्ट को लेकर कोई संशय नहीं है तो कोई अपशगुन कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तुम बस अपने काम पे फोकस करो।
इस तरह उसने काफी देर तक मुझे मोटिवेट किया।
मैं- नहीं, मेरे साथ होता है ये, अपशगुन होता है तो मेरे काम नहीं बनते।
वो - मतलब फिर तो तुम्हें घर पे ही पता था रिजल्ट तो यहां अपना वक़्त बर्बाद करने क्यों आये?
मैं - मैं मौका नहीं खोना चाहता था ।
वो - बस यही तो बात है, ये शगुन-अपशगुन बस अंधविश्वास है , तुम्हारा नाम विश्वास है खुद पे विश्वास रखो बस।
मैं - हम्म , पर मेरा तो शर्ट भी खराब हो गया, ऐसे हाल में कैसे जाऊँगा मैं कंपनी के उच्च अधिकारियों के सामने?
वो - चलो कुछ करते हैं।
और वो फिर कंपनी के इस प्रजेंटेशन प्रबंधक के पास गई और पूछा लगभग कितना देर बाद आ पायेगा मेरा नंबर , वहाँ से पता चला अभी करीब 1 घन्टा लगेगा, तो मुझे ले के कुछ ही दूर 1 कपड़े के शो रूम में ले गई। और मुझे बोली तुम्हें ब्लू रंग के शर्ट पे भरोसा है ना? तो ब्लू शर्ट ही ले लो.. शायद तुम्हारा आत्मविश्वास आ जाये कुछ हद तक। मुझे ये बात जंची और मैंने वहाँ से ब्लू शर्ट लेकर उसे पहन लिया। उसने मुझे शुभकामनाएं दी और अपना कार्ड दिया और कहा कि मुझे विश्वास है यहाँ तुम्हारा काम बन जायेगा और अगर न भी बने तो ये है मेरा कार्ड, मुझसे संपर्क करना , कुछ न कुछ जरूर करेंगे। इतना कहकर वो चली गई।
मैं होटल पहुँचा और थोड़ी देर बाद मेरा प्रजेंटेशन का बारी आ गया। तब तक मैंने उस महिला की बात को आत्मसात किया कि ये सब शगुन- अपशगुन का अंधविश्वास परे रख कर खुद पे विश्वास रखो और कर्म करते जाओ। अब मैं आत्मविश्वास से लबरेज होकर अंदर गया।
मैंने प्रजेंटेशन दी, सभी पदाधिकारियों को वो बहुत पसंद आई और वो चाहते थे कि एक फाइनल प्रजेंटेशन अपने हेड के सामने दी जाए। मैं ताज्जुब कर रहा था कि इतने अपशगुन हुए पर फिर भी मेरा काम लगभग बन गया।
2 दिन बाद उनके हेड को प्रजेंटेशन देने गया और वो भी अपनी सफेद शर्ट पहन कर और बिना दही-गुड़ खाये। क्योंकि अब मैं समझ चुका था कि ये शगुन-अपशगुन बस अंधविश्वास है , और अगर आपका काम सही है तो आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।