अपना घर तो अपना ही होता है!!
अपना घर तो अपना ही होता है!!


घड़ी का अलार्म बजा "ट्रिन ट्रिन.....ट्रिन ट्रिन"। बिस्तर से सीमा जी की बुढ़ी आंखें उस घड़ी पर पड़ी। रोज़ की तरह वो उठकर दैनिक दिनचर्या से निवृत हो कर अपने लिए एक कप चाय बना पीने बैठ गई। मगर आज़ चाय पीते-पीते अनायास ही वो अतीत की धुँधली यादों में खो गईं।
लगभग 30 साल पहले मेरे इसी घर के हर कोने मे क्या रौनक हुआ करती थी। सब लोग यहाँ साथ थे। उन्हे याद आती हैं वो बातें।
"अरे, बेटा मानव सीड़ी पर मत दौड़ो। गिर जाओगे।"
" हां मां"
" पकड़ो-पकड़ो"
" अरे काजल तू भी"
" मां भैया के साथ पकड़म-पकड़ाई खेल रही हूं।"
"अरे बाबा दिनभर भागदौड़। तुम लोगों का तो खेल ही खत्म नहीं होता। अच्छा मानव काजल आज खाने में क्या खाना है।"
दोनों बच्चे उत्साहित होकर एक साथ बोले "पाव भाजी"
"तुम दोनों को बस एक ही चीज पसंद है। चलो अच्छा बना देती हूं। अब खेलना बंद करो, पढ़ने बैठो, पापा आने वाले हैं।"
"हां जी मम्मा" कह के दोनों खेल में मशगूल हो गए।
मानव टेंथ में और काजल एर्थ में पढ़ती है। अशोक जी एक सरकारी कर्मचारी हैं। लगभग रोज 7:00 बजे तक दफ्तर से घरआ जाते। उसके बाद चाय पीते-पीते दिन भर का बच्चों का व सीमा का हाल-चाल लेते।
"मानव इस बार बोर्ड के एग्जाम है ना। कैसी तैयारी चल रही है।"
"हां पापा बढ़िया।" हां बेटा मैथ्स को रोज करना जो ना आए मुझसे पूछ लेना।"
"जी पापा"
"काजल तुम्हारी पढ़ाई"
"पापा मेरे तो पूरे नम्बर आते हैं"
"हाँ-हाँ, फिर भी खेलकूद के साथ मन लगाकर पढ़ना भी"
"ओके पापा।"
समय देखते-देखते पंख लगाए यूँ ही बीतता गया। कुछ सालों में मानव का इंजीनियरिंग भी कंप्लीट हो गया। उसके कॉलेज के कैंपस इंटरव्यू में उसका एक बाहर की कंपनी में सिलेक्शन हुआ वो वही जाकर जॉब करने लगा।
कुछ सालों में काजल भी एमबीए करने बाहर चली गई और वहां एक एनआरआई लड़के से शादी कर ली। शादी के कुछ महीने बाद आई तो अशोक जी ने उसकी एक बड़ी पार्टी अपने सभी रिश्तेदारों और दोस्तो को दे दिया।
अमेरिका में मानव के ऑफिस में भी एक भारतीय लड़की काम करती थी। जो मानव को पसंद थी। अशोक जी ने उनकी भी शादी भारत बुलाकर करा दी और कुछ दिन बच्चे घर पर रहने के बाद वापस अमेरिका अपने कामों पर चले गए।
अब घर में सिर्फ अशोक जी व सीमा जी रह गए। घर खाली- खाली वीरान सा हो गया पर दोनों को धीरे-धीरे अकेले रहने की आदत डालने के सिवाय कोई विकल्प भी तो न था। उनकी हालत उस चिड़िया सी हो चली थी जो अपने घोंसले मे पहले अंडो को आँधी तूफान व अन्य आपदाओं से बचाती, चूज़ों को एक-एक दाना खिलाती, उड़ना सिखाती, फिर वो ही चिड़िया के बच्चे एक दिन फुर्र कर के दूर उड़ जाते। यही नियति है।
अब वो दोनों एक साथ ही टीवी देखते और वॉक करने जाते। पडोसियों के साथ मिलना-जुलना। कुछ मिलाकर दिन ठीक ठाक से गुजरने लगे। तभी एक दिन अशोक जी को अकस्मात दिल का तेज दौरा पड़ा और पड़ोसियों ने उनको तुरंत हॉस्पिटल पहुंचाया, मगर विधि को कुछ और ही मंजूर था, दो ही दिनों में उनके शरीर ने साथ छोड़ना शुरू कर दिया और मल्टी ऑर्गन फेल्यर होने के बाद अन्ततः उनका देहावसान हो गया। कोई समझ नहीं पाया। यह सब अचानक कैसे हुआ। यह वज्रपात उनके परिवार व सीमा जी पर बहुत भारी पड़ा।
पिता के देहांत के बाद सारे क्रिया कर्मों के खत्म हो जाने पर मानव जाते समय अपनी मां को भी अपने साथ ले गया। सीमा जी से अपना घर छोड़ा नहीं जा पा रहा था। सारी पुरानी यादें इसी मकान से जुड़ी थी। पर मानव माना नहीं और उनको उसके साथ जाना पड़ा।
वहां पहुंच अगले दिन से बेटा बहू दोनों ऑफिस चले जाते हैं और देर रात में लौट के आते। सीमा जी को परदेस मे सब कुछ नया-नया, बदले-बदले लोग, बदली भाषा, अपरिचित जगह तथा बच्चो कि बिज़ी लाइफ के कारण अत्यधिक अकेलापन महसूस होता। उनका बिल्कुल मन नहीं लगता। वह किसी तरह लगभग दो महीना काटने के पश्चात, फिर वापस इंडिया आने का जिद्द करने लगीं। मानव उनको आने नहीं दे रहा था।
"नहीं मम्मा, आप वहाँ कैसे अकेले रहोगी।"
"अरे बेटा वहां पास में तेरी मौसी, मामा तो है ना। जरूरत पड़ी तो वह लोग है। और हमारी सोसाइटी में हमारी फैमिली फ्रेंड मिश्रा जी भी तो है बेटा। मेरा यहां बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा। मुझे अपने घर की याद आ रही है। किसी तरह तुम्हारा मन रखने के लिए इतने दिनों यहां रही पर अब बेटा मुझे अब वापस जाना है। मैं वहां अपने दोस्तों और गरीब बच्चों को पढ़ाने का जो सोशल वर्क कभी-कभी करती थी, उसी मे फिर से पूरा मन लगा लूंँगी।"
"पर माँ मैं आपको अकेला नहीं छोड़ सकता।" मानव दुखी होकर बोला।
सीमा जी मुस्कुरा कर बोली, "अरे बेटा तो तू भी इंडिया में ही जॉब देख ले या तो इसी कंपनी में हो सके तो अपना ट्रांसफर इंडिया में ले लो।"
मानव चुप हो गया। मानव के कंधे पर हाथ रखते हुए सीमा जी बोली, "अरे बेटा, मैं तो मजाक कर रही थी।" तुम्हारी ज्यादा तरक्की तो यहीं होगी, मुझे पता है और बहु सुरभि की भी तरक्की तथा जॉब यहीं पर है। पर बेटा मुझे तो अब जाना है। कभी -कभी मै आ जाया करुंगी।"
"ठीक है माँ एक हफ्ते बाद का टिकट देख लेता हूं।"
"ठीक है बेटा।"
फोन की घंटी लगातार बजी जा रही थी। सीमा जी तब अपनी यादों से बाहर आ दौड़कर फोन उठाती हैं "हांं बेटा मानव"
"मां आप कैसी हैं"
"बेटा मैं वैसे ही मस्त हूं। जैसे तेरे पास से आई थी।" सीमा जी हँसती हुई बोली फिर मानव ने कुछ औपचारिक बातें की।
"मां आप अपना ध्यान जरूर रखना।" यह कह के फोन रख दिया।
रीमा जी को खाली घर तो कभी-कभी बहुत कचोटता, पर अपना घर तो अपना ही होता है। आज बस अपने घर, अपने देश, अपने लोगों में वह खुश हैं,सन्तुष्ट हैं।