Ruchi Singh

Abstract Inspirational

3.4  

Ruchi Singh

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क्या मैं बोझ हूं?

क्या मैं बोझ हूं?

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टिंग -टोंग दरवाजे की घंटी बजी... जल्दी में बिना चश्मा लगाए दरवाजा खोलने सुरभि गई। एक जाना पहचाना सा चेहरा दरवाजे पर खड़ा था। सुरभि की कमजोर आंखें उसको बहुत पहचानने की कोशिश की और उसे अपनी बचपन की सहेली आरती दिखाई दी। देख कर उसे बहुत ही आश्चर्य और खुशी हुई। लगभग 15 साल बाद आरती उसके घर आई थी। दोनों सखी मिलकर गले लग कर कुछ देर तक रोती रही साथ ही बहुत खुश भी हुई।


सुरभि ने कभी नहीं सोचा था कि इतने सालों बाद दोबारा आरती से मुलाकात होगी। दोनों बचपन की सखी बैठकर अपनी पुरानी बातें करती रही।


15 साल पहले आरती भी इसी शहर में रहती थी पर उसके पति का ट्रांसफर होने से सुरभि को बिना बताए एकाएक आनन-फानन में उसे जाना पड़ा और दोनों अंतिम समय मिल भी नहीं पाई.... नाही फोन नंबर व घर का पता एक दूसरे को ले दे पाई। फोन नंबर व पता ना होने से दोनों का मिलना जुलना बिल्कुल बंद हो गया। और तब सुरभि ने सोच लिया था कि आप कभी आरती से मुलाकात नहीं हो पाएगी।


आज अचानक इतने साल बाद आरती को देख सुरभि खुशी से पागल हो रही थी। उसके बाद से दोनों अब अक्सर ही मिलने लगी और साथ घूमने फिरने लगी।


1 दिन अचानक आरती, सुरभि के घर शाम के समय पहुंची। उसने देखा सुरभि बहुत ही परेशान व बुझी- बुझी है। उसने उसका कारण जानना चाहा पर सुरभि बताने में आनाकानी करने लगी। थोड़ी देर बाद आरती ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला "मैं तुम्हारी बचपन की सहेली हूं मुझसे भी तुम अपनी बातें सुख- दुख नहीं बताओगी तो क्या फायदा हमारी दोस्ती का? अपने जी हल्का कर लो अपने मन की बात कह दो... बहन।


सुरभि आंखों में मोटे मोटे आंसू भरकर बोली कि आरती जब से तेरे जीजा जी का देहांत हुआ है तब से मेरे बेटे बहू रोहन वा मिताली का व्यवहार बहुत ही बदल गया है। दोनों बेटा बहू अपनी नौकरी में इतने बिजी रहते हैं कि कोई मेरे पर ध्यान ही नहीं देता। कोई मुझसे बात भी नहीं करता और यदि मैं करूं तो चुप रहने को बोलते हैं। बस मेरा काम है खाना खाना और मुंह बंद करके रहना। जरा भी किसी बात पर अपनी राय दो तो दोनों कुछ ना कुछ सुना देते है। एक ही बेटा होने से मुझे कोई दूसरा ऑप्शन ही नहीं है कि मैं कहीं और जा सकूं। मन मार के यही रहना पड़ता है। मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मैं इनके ऊपर बोझ हूं।" रोते हुए सुरभि बोली। और साथ ही यह भी कहा ....यह अच्छा है कि तेरे तो दो बेटे हैं तू आराम से दोनों में से किसी के साथ भी रह सकती है। एक नहीं ध्यान रखेगा... तो दूसरा तो है ना।"


सुरभि की दुख भरी बातें सुनकर आरती ने उसको समझाते हुए बोला "बेटा एक हो या दो.... सेवा करने वाले होते हैं तो एक भी करता है। और नहीं करने वाले होते हैं तो दोनों ही नहीं करते.... । बच्चे मां-बाप को बेसहारा छोड़ देते हैं। सुरभि सही मानो तो मुझे लगता है अपने को ही स्वस्थ और सबल रखना चाहिए।


सुरभि दुनिया को देख कर मुझे ऐसा एहसास होता है कि आज के जमाने में कोई किसी का कुछ नहीं करना चाहता। अपने को स्वस्थ रखो और कहीं व्यस्त रखो। सुखी जीवन का यही सबसे बड़ा मूल मंत्र है।" कहते कहते आरती की आंखें भी नम हो गई।


थोड़ी देर बाद फिर आरती ने कहा "मैंने तुझे कभी बताया नहीं...... हम एक ही मकान में तीन अलग-अलग मंजिल पर रहते हैं। सब साथ मिलते जरूर है... पर सब का खाना पीना अलग है। जिससे ना उनके घर में कोई दिक्कत है और ना मेरे घर में कोई परेशानी। सब अपनी- अपनी लाइफ आराम से जी रहे हैं अपनी मनमर्जी से। हम सब आजाद रहते हैं और खुश भी हैं। जरूरत पड़ने पर साथ भी हैं वैसे अलग-अलग। हमारे मेहमान हमारे घर के बारे में कुछ जान नहीं सकते। हमारा ड्राइंग रूम भी कॉमन है जिसमें हम सब लोग साथ बैठ लेते हैं जब कोई आता -जाता है.... जिससे आने वाले को कुछ पता ही नहीं चलता। इसलिए तुम थोड़ी देर के लिए आई थी और तुम्हें कुछ पता नहीं चला।" आरती ने समझाते हुए बोला।


थोड़ी देर बाद सुरभि मुस्कुराते हुए अपने आंसू पोछते हुए बोली "मुझे लग रहा है कि तुम सही कह रही हो दोस्त .... हमें अपने आप को कहीं व्यस्त रखना चाहिए... दुनिया में अकेले आए हैं औरअकेले ही जाना होगा। इसलिए अपने को सबल और आत्मनिर्भर बनाना चाहिए। तथा अपने को कहीं ना कहीं व्यस्त रखना चाहिए। मैं कल ही जाकर पास के झुग्गी- झोपड़ियों में गरीब बच्चों को पढ़ाने में अपना समय बिताऊंगी। अब मैंने यह सोच लिया।" गंभीरता के साथ सुरभि लंबी सांस भरते हुए बोली।


आरती ने बोला "ठीक है अब मैं भी तेरे साथ ही चला करूंगी। हम दोनों सखियां बुढ़ापे में कुछ नेक काम करेंगे और अपने बुढ़ापे को अच्छा बनाएंगे। तथा अपनी जिंदगी में कुछ बदलाव लाकर अपने दम पर दूसरों की जिंदगी में भी बदलाव लाने की कोशिश करेंगे। कहकर दोनों दोस्त दृढ़ विश्वास के साथ एक दूसरे का हाथ थामकर मुस्कुराने लगी।



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