अनजाने डर
अनजाने डर
हमारा संसार रहस्यों से भरा हुआ है I इसकी खास बात तो ये है कि हम अपने चारों ओर के जिन चीजों को जानते है उसके गुणों को पहचानते है वे सब हमें जाने पहचाने लगते हैं तथा जिसे नहीं पहचानते हैं उनके लिये हम और वे हमारे लिए अनजाने होते हैं I
एक दिन की बात है मैं शाम को अपने पास के जंगल में सुहानी ठंडी हवा का आनन्द लेते हुए धीरे धीरे चल रहा था I जंगल में शाम का असर धीरे धीरे हो रहा था,I ठंडक बढ़ती जा रही थी, पक्षियों के झुंड इंसानी आभास से एक अजीब सी आवाज में हल चल मचा रहे थे I कभी-कभी सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट जंगल की स्तब्धता भंग कर रही थी जिससे मुझे जानवरों के अपने शरण स्थल की ओर जाने का अनुमान करता।
मैं जिज्ञासावश में जंगल के अन्दर की ओर बढ़ने लगा मुझे ये वक्त मनोरम लग रहा था I शाम अपने गहरी चादर से जंगल को ढकने लगी थी चारों तरफ खामोशी धीरे से छाने लगी I इस वक्त हवा के मद्धिम आघात से भी मुझे सिहरन महसूस होने लगा शायद मैं जंगल के बहुत भीतर तक आ गया था I दूर सियारों के आवाज जो निश्चित समयावधि में प्रायः वे किया करते हैं से मैं चौंक गया लगभग आठ बज गए होंगे, आसमान में चाँद अपनी पूरी आकार से जंगल को प्रकाशित करने की कोशिश कर रही थी I पर चाँदनी जंगल की स्तब्धता के सामने फीकी पड़ रही थी।
मैंने अब वापस लौटने का निश्चय किया धुंधले चाँदनी में रास्ता स्पष्ट नहीं दिख रहा था, मुझे रास्ता भ्रम होने लगा । मैं निर्णय करने में असमर्थ महसूस कर रहा था कि वापस किस रास्ते पर जाऊं, अब मुझे डर लगने लगा।
मैं अंदर तक हिल गया अब क्या होगा कैसे वापस जा पाऊंगा। रात को और किसी के इस ओर आने की कोई गुंजाइश भी नहीं था क्योंकि ये रास्ता कोई आम रास्ता नहीं था जो किसी दूसरे गांव को जोड़ता हो।
कुछ समय पूर्व का सारा आनंद जो इस प्रकृति को निहार कर प्राप्त किया था सब उड़ चुका था उसके स्थान पर एक अनजाने भय ने डेरा जमा लिया मैं अपने को दोषी ठहराने लगा कि अब मजा लो जंगल का I
अब हर आहट पास में लगे जा रहे थे जो कुछ समय पहले दूर लगते थे I
संसार में हर चीज के दो पहलू है जीवन मरण ,आशा निराशा, दिन है तो रात है कोई जागता है तो कोई सोता है।
जंगल मे भी दो प्रकार के जीवन होते हैं। दिन में विचरण करने वाले और रात में विचरण करने वाले ,अब रात का पहर का अदला बदली होने लगा था, एक वर्ग सोने लगा तो दुसरा वर्ग सक्रिय होने लगे । मुझे इनका स्मरण होते ही पसीने आने लगा। सहसा अचानक पक्षियों के कोलाहल से वातावरण गुंजायमान हो उठा मैं चाँदनी में देखने की कोशिश करने लगा पर पेड़ पौधों की सघनता एवं चांदनी के छांव के कारण मैं स्पष्ट देखने में असमर्थ रहा। पर मैंने देखा कि कुछ दूरी पर एक मानव आकृति का आभास हुआ जो मेरे लिए विस्मयकारक था कि इतने रात में ये कौन है ,और मैं डर से कांपने लगा। सर से पांव तक पसीने आने लगे ।
डर क्या चीज होता है ये मुझे आज अनुभव हो रहा था। मैं समझ पा रहा था कि इस अवस्था मैं कैसे आदमी को आसानी से भयभीत किया जा सकता है।
मुझे ये संसार अनजाना लगने लगा जहां मुझे कोई न जानता था न ही मैं इस अंधेरे में सिमटे संसार को।
क्रमशः------ अगले लेख में