अनजान सफ़र -पहला दिन
अनजान सफ़र -पहला दिन


कॉलेज के दिनों की बात हैं मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय के लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास मैं रहता था। घर से दूर होने के कारण तीन चार दिन की छुट्टियों में घर नहीं जा सकता था क्यूंकि मुझे आने जाने में दो दो दिन का सफर करना पड़ता था। इसलिए अक्सर हम कुछ मित्र छुट्टियाँ आस पास के जगह पर घूम कर ही बिताते थे। लगभग सभी मित्रों के पास बाइक थी, लेकिन मेरे पास नहीं थी इसलिए जब कभी भी कहीं जाना होता था तो हम दोनों सुधीर भैया की बाइक ले जाते थे। वो कभी भी हमें मना नहीं करते थे, और जब भी मुसीबत में होते तो वही मुसीबत से निकालते थे।
सभी मित्र अपने घर चले गए थे, इसलिए इस बार की छुट्टी में हम सभी ने पास ही के एक जगह पर घूमने के प्लान बनाया। शुक्रवार को शाम के लगभग 3 बजे मैं, राकेश, सुधीर भैया और अतुल भैया दो बाइक से घूमने निकल गए! सफर 3 दिन का था इसलिए मैंने और राकेश ने तैयारी कर रखी थी! इस बार हम जा रहे थे वो बहुत ही सुनसान जगह थी। लेकिन कैंपिंग के लिए बहुत ही सुन्दर जगह थी! लगभग 3 घंटे के सफर के बाद हम लोग 6 बजे हम अपने कैंपिंग के जगह पर पहुंच गए! वास्तव में जगह बहुत ही सुन्दर थी कुछ देर के लिए मैं चारों तरफ बस देखता ही रह गया।
लगभग अँधेरा होने लगा था, और मौसम भी सुहाना हो गया था। मैंने और राकेश ने २ टेंट लगा दिए और इतने में सुधीर भैया और अतुल भैया ने पानी और रात के खाना बनाने के लिए लकड़ियों की व्यवस्था कर दी।
अंधेरा हो चूका था,लेकिन आज चाँद बहुत ही ज्यादा चमकदार लग रहा था। खाना बनाने के लिए राकेश ने पत्थरों को जोड़कर एक चूल्हा बनाया और लकड़ी जला दी। खाना बनाने जिम्मेदारी मेरी थी, हम सभी बाते कर रहे थे और पुराने गानों और पुरानी बातो का आनंद ले रहे थे! खाना तैयार हो गया और था। मैंने दाल बाटी और चोखा बनाया था क्यूंकि हमारा ये कैंपिंग ३ दिन का था। खाना खाने के बाद हम लोग सो गए क्यूंकि सुबह हम लोगों को आगे की यात्रा पैदल ही करनी थी गाड़ी हम लोगों ने पास ही के एक गाँव में रख दी थी। हम लोग सो गए थे तभी रात लगभग १२ बजे राकेश की आँख खुली तो उसने मुझे भी उठाया और कहा - "भाई दीपेश मुझे कुछ आवाज सुनाई दे रही हैं।"
मैंने कहा-"क्यों मजाक कर रहे हो भाई सो जा और मुझे भी सोने दे!"
मैं तो सो गया लेकिन राकेश को नींद नहीं आई!
फिर से उसने मुझे जगाया और कहा भाई मुझे फिर से वो आवाज़ सुनाई दी ! फिर मैंने कहा-भाई कैसी आवाज़ ?"राकेश की बात मुझे अब अजीब सी लग रही थी क्यूंकि अब मुझे भी उस आवाज़ का आभास हो रह था ! न जाने कैसे आवाज़ थी , इस आवाज़ को मैं अपने शब्दों में बया नहीं कर सकता था लेकिन मानो कोई हमें आगे न जाने का संकेत दे रहा था !
राकेश को समझाकर मैंने सोने के कहा और हम दोनों सो गए लेकिन मेरे मन में एक सवाल अब घूमने लगा था,और मैं बस यही सोच रहा था की इस बार का सफर कैसा होगा? क्या ये असाधारण सफर होगा या कोई डरावना सफर ?
शेष कहानी अगले भाग में जारी हैं...