अनजान सफर-भाग -2
अनजान सफर-भाग -2
सुबह लगभग 5 बजे हम सभी उठ गए। जंगल की हवा में एक अजीब सी नमी थी—जैसे रात की कोई अनकही घटना अब भी पेड़ों के बीच फुसफुसा रही हो। पक्षियों की चहचहाहट शुरू हो चुकी थी, लेकिन उनमें भी एक बेचैनी थी। ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी अदृश्य खतरे से हमें आगाह कर रही हों।
हमने सारा सामान समेटा और आगे की चढ़ाई शुरू की। एक घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद हम पहाड़ की चोटी पर पहुँचे। उसी समय सूर्योदय हो रहा था। बगल में झरना कलकल करता बह रहा था, और सामने फैली प्रकृति की सुंदरता इतनी गहरी थी कि कुछ देर के लिए हम सब बस मौन हो गए। सूरज की किरणें धीरे-धीरे जंगल के भीतर उतर रही थीं, लेकिन पेड़ों की छाया अब भी रहस्यमयी बनी हुई थी।
दरअसल इस जगह पर आने का मुख्य कारण यही था—प्रकृति की गोद में कुछ पल बिताना। लेकिन इस बार हम यहाँ अतुल भैया के कहने पर आए थे।
मैंने कहा, "अतुल भैया, बहुत-बहुत धन्यवाद ऐसी जगह लाने के लिए।"
सुधीर भैया और राकेश ने भी उनकी खूब तारीफ़ की।
अतुल भैया मुस्कुराए और बोले, "अभी देखते जाओ... आगे और भी बहुत कुछ मिलेगा।"
उनकी मुस्कान में एक रहस्य था—जैसे वो कुछ जानते हों जो हम नहीं जानते।
कुछ देर आराम करने के बाद हम आगे बढ़े। जंगल जितना सुंदर था, उतना ही रहस्यमय भी। यहाँ की खामोशी में एक अजीब सी गूंज थी—जैसे कोई पुरानी कहानी हर पत्ते में छिपी हो। हवा में एक हल्की सी गंध थी, जो मिट्टी और किसी पुराने धूप की मिलीजुली महक जैसी लग रही थी।
असल में इस यात्रा का एक और उद्देश्य था। अतुल भैया 'पैरानॉर्मल इन्वेस्टिगेशन में अनजान जगहों के विषय' पर पीएचडी कर रहे थे। वो ऐसी जगहों के रहस्यों को उजागर करने में माहिर थे। लेकिन उनकी एक बात मुझे हमेशा खटकती थी—उनका ईश्वर में विश्वास न होना।
दोपहर हो चुकी थी और भूख भी लगने लगी थी। हमने एक साफ जगह पर रुककर खाना बनाया। इस बार हमने सत्तू के पराठे और नींबू का अचार खाया—जंगल में यही सबसे टिकाऊ और आसान भोजन था। लेकिन जैसे ही खाना तैयार हुआ, राकेश ने कहा—
"भाई... ये अचार की खुशबू कुछ अजीब लग रही है... जैसे इसमें कुछ और मिला हो..."
मैंने उसे समझाया कि शायद जंगल की हवा का असर है। लेकिन जब मैंने पहला निवाला लिया, तो ऐसा लगा जैसे ज़बान पर कोई धातु का स्वाद हो।
हम सबने थोड़ा-थोड़ा खाया, लेकिन किसी को भूख नहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे खाना हमें निगल रहा हो। राकेश ने खाना बीच में ही छोड़ दिया और चुपचाप बैठ गया। उसकी आँखों में वही डर था जो पहली रात को था।
खाने के बाद हम फिर चल पड़े। अँधेरा होते-होते हम उस जगह पर पहुँचे जहाँ हमें रुकना था। लेकिन वहाँ पहुँचते ही सबके चेहरे पर एक अजीब सा भाव आ गया।
सुधीर भैया बोले, "अरे ये क्या... इस जंगल में गुफा? कौन आता होगा यहाँ?"
गुफा बहुत पुरानी लग रही थी। उसके द्वार पर काले धागों से उल्टा स्वस्तिक बना था, और सिंदूर की लकीरें दीवारों पर फैली थीं—जैसे किसी ने जानबूझकर डर को आमंत्रित किया हो।
अतुल भैया खुश थे। गाँव वालों ने उन्हें इस जगह के बारे में बताया था—लेकिन साथ ही यहाँ आने से मना भी किया था। यह बात उन्होंने हमसे छुपाई थी।
उन्होंने कहा, "ये एक पुरानी गुफा है... मंदिर है यहाँ। गाँव वाले महाशिवरात्रि और श्रावण में दर्शन करने आते हैं।"
लेकिन यह झूठ था। इस गुफा में कोई मंदिर नहीं था। और जब मेरी नज़र उन उलटे स्वस्तिक और राख से बने अजीब निशानों पर पड़ी, तो मेरे भीतर कुछ टूटने लगा।
गुफा के पास की मिट्टी काली थी, जैसे वहाँ कुछ जलाया गया हो। दीवारों पर उकेरे गए चित्र—मानव आकृतियाँ जिनके चेहरे नहीं थे, सिर्फ आँखें। कुछ चित्रों में लाल रंग से बने हाथ थे, जैसे किसी ने दीवार पर खून से छाप छोड़ी हो।
अतुल भैया ने कहा, "आज हम यहीं रुकेंगे।"
मेरा मन नहीं मान रहा था। लेकिन अकेले नहीं रह सकते थे, इसलिए मैंने कहा, "जहाँ रुकना है, वहाँ मैं और राकेश देख आते हैं। आप लोग लकड़ियों की व्यवस्था कीजिए।"
गुफा से कुछ दूरी पर हमने टेंट लगाए। लेकिन राकेश पहले दिन की घटना के बाद से ही डरा हुआ था। वो उस रात की आवाज़ों का ज़िक्र फिर से नहीं करना चाहता था।
रात का खाना बनाकर हम सोने की तैयारी करने लगे। तभी मैंने देखा—अतुल भैया गुफा के द्वार पर खड़े थे। वो बस उस गुफा को देख रहे थे... और मुस्कुरा रहे थे।
मैंने पूछा, "भैया, आप मुस्कुरा क्यों रहे हैं? आपको तो मंदिर और ईश्वर में आस्था नहीं है... फिर यहाँ क्यों रुकना?"
मैंने मज़ाक में कहा, "आपको भी डर लग रहा है क्या?"
अतुल भैया हँसे। लेकिन उनकी हँसी में कुछ अजीब था—जैसे वो किसी और के लिए हँस रहे हों। उन्होंने कहा,
"सो जाओ बाबू... कल इसका जवाब तुम्हें मिल जाएगा।"
उनकी आँखों में एक चमक थी—लेकिन वो इंसानी नहीं लग रही थी।
मैंने ज़्यादा सोचने की कोशिश नहीं की और टेंट में चला गया। लेकिन उस रात... जंगल की हवा में एक अजीब सी गंध थी। जैसे कोई पुरानी चीज़ सड़ रही हो।
गुफा की ओर से एक धीमी सी गूंज आती रही—जैसे कोई मंत्र फुसफुसा रहा हो।
राकेश ने करवट बदलते हुए कहा, "भाई... अगर कल कुछ अजीब हो... तो वापस चलेंगे।"
मैंने कुछ नहीं कहा। क्योंकि अब मुझे लगने लगा था—हम यहाँ सिर्फ घूमने नहीं आए थे।
हम यहाँ बुलाए गए थे।
शेष कहानी अगले भाग में...

