अनजान सफर-3
अनजान सफर-3
अतुल भैया और मैं अपने-अपने टेंट में सोने चले गए, लेकिन कल रात की बात मेरे मन में बार-बार घूम रही थी। इतने में राकेश ने धीमे स्वर में पूछा, "भाई, नींद नहीं आ रही क्या?"
मैंने कहा, "बस भाई, सोने की कोशिश कर रहा हूँ।"
"क्यों, कोई बात है क्या?"
"नहीं भाई, चलो सोते हैं," मैंने बात टाल दी।
रात लगभग 1 बजे मेरी आँख खुली। देखा कि सुधीर भैया और अतुल भैया के टेंट में लाइट जल रही थी और सुधीर भैया परेशान से दिख रहे थे।
मैंने पूछा, "क्या हुआ भैया?"
सुधीर भैया बोले, "अतुल टेंट में नहीं हैं... और उसका बैग भी नहीं दिख रहा है।"
ये सुनकर राकेश भी जाग गया। हम तीनों ने टॉर्च जलाई और चारों तरफ देखने लगे, लेकिन अतुल भैया कहीं नहीं थे। जंगल में मोबाइल नेटवर्क नहीं था, और यही सबसे बड़ी परेशानी थी।
हम तीनों अंधेरे में डरते हुए अतुल भैया को खोजने निकल पड़े। एक घंटे की खोज के बाद हम गुफा के पास पहुँचे। उसका विकराल द्वार देखकर हमारी हिम्मत जवाब देने लगी।
सुधीर भैया बोले, "क्या किया जाए दीपेश बाबू?"
मैंने भगवान का स्मरण कर कहा, "चलिए भैया, जो होगा देखा जाएगा।"
राकेश दौड़कर बैग से चाकू, रस्सी और लाठियाँ ले आया। मुझे लग रहा था कि गुफा में कोई जानवर हो सकता है। टॉर्च की रोशनी पर्याप्त नहीं थी, इसलिए हमने मशाल बनाई और लाइटर से आग जलाकर गुफा में प्रवेश किया।
गुफा का मुख्य द्वार बेहद भयानक लग रहा था। अंदर कुछ दूर जाने पर मशाल की रोशनी से चमगादड़ों का झुंड ऊपर से उड़ गया। हम सब डर गए। थोड़ी और आगे बढ़े तो एक गुप्त गुफा दिखाई दी—जिसे अभिमंत्रित करके बंद किया गया था। उल्टे स्वस्तिक, राख, सिंदूर और काले धागों से ढकी दीवारें किसी तंत्र-मंत्र की गवाही दे रही थीं।
उस गुफा का द्वार पत्थर से बंद था, लेकिन किसी ने उसे खिसका रखा था। हम समझ गए कि ये काम अतुल भैया का ही हो सकता है।
हिम्मत करके मैंने हाथ जोड़कर हनुमान चालीसा का पाठ शुरू किया और अंदर बढ़ा। राकेश और सुधीर भैया मेरे पीछे-पीछे आ गए। डर था कि कहीं अतुल भैया की इस गलती का भुगतान हमें अपनी जान से न करना पड़े।
लगभग 50 मीटर अंदर जाने के बाद एक अजीब सी आवाज़ सुनाई दी—मानो कोई तेज़ नदी बह रही हो या कोई आंधी चल रही हो। राकेश इतना डर गया कि बोल भी नहीं पा रहा था। मैंने राकेश से पहले दिन की आवाज़ का ज़िक्र किया, तो सुधीर भैया उदास होकर बोले, "लगता है अतुल अब हमें नहीं मिल पाएगा।"
मैंने कहा, "भैया, अब आर या पार। राकेश, तुम यहीं रुको। मैं और सुधीर भैया आगे देखते हैं। अगर हमें कुछ हो जाए तो तुम वापस चले जाना।"
राकेश बोला, "मैं नहीं रुकूंगा। मैं भी साथ चलूँगा।"
बस फिर क्या था—हम तीनों आगे बढ़ गए।
कुछ ही दूरी पर हमें ज़मीन पर गिरे हुए अतुल भैया दिखे। उनकी साँसें चल रही थीं। सुधीर भैया ने उन्हें कंधे पर उठाया और हम बाहर की ओर भागने लगे। मैं पीछे था, राकेश मशाल लेकर आगे चल रहा था। मशाल बुझने ही वाली थी।
गुप्त गुफा का द्वार दिख रहा था और एक हल्की रोशनी उम्मीद की किरण बनकर चमक रही थी। राकेश बाहर निकला, सुधीर भैया की मदद करने लगा। मैं भी बस बाहर निकलने ही वाला था कि तभी...
"दोबारा मत आना..."
"दोबारा मत आना..."
वही आवाज़... वही कंपन... वही चेतावनी जो हमने पहले दिन महसूस की थी। मैंने पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं की। दादाजी की बात याद आई—"अनजान आवाज़ को कभी पलटकर मत देखना।"
मैंने हिम्मत जुटाई और बाहर निकल गया।
सुधीर भैया ने पूछा, "क्या हुआ बाबू?"
मैंने कहा, "भैया, राकेश और मैं इस पत्थर को वापस लगा देते हैं।"
"जो करना है जल्दी करो, अतुल बेहोश हैं," उन्होंने कहा।
हमने पत्थर को वापस उसी जगह पर रखा। मैंने हनुमान चालीसा का जाप करते हुए फिर से धागों से द्वार को बाँध दिया। लेकिन उस आवाज़ में सिर्फ चेतावनी नहीं थी—वो किसी आने वाली अनहोनी का संकेत भी थी।
मैंने अपने पास पड़ा चाकू ईश्वर का नाम लेकर वहीं गाड़ दिया—शायद ये मेरी तरफ से उस गुफा को बंद करने की एक कोशिश थी।
बिना समय गँवाए हम बाहर की ओर भागे। थोड़ी देर बाद हम गुफा से बाहर निकल चुके थे। सुबह हो चुकी थी।
हम टेंट में पहुँचे और अतुल भैया को लिटाकर पानी छिड़का। थोड़ी देर बाद उन्हें होश आया। हम बिना कुछ बोले गाँव की ओर चल पड़े। बाइक ली और शाम होते-होते हॉस्टल पहुँच गए।
डर इतना था कि हमने किसी से बात तक नहीं की। हॉस्टल पहुँचते ही सब चुपचाप अपने-अपने कमरे में चले गए।
इस सफर का ऐसा अंत हमने कभी नहीं सोचा था।
अतुल भैया की तबीयत बिगड़ गई थी। कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद जब हमने उनसे बात करने की कोशिश की, तो उन्होंने इशारे में मना कर दिया। वो अब उस घटना का ज़िक्र नहीं करना चाहते थे।
हमने तय किया कि अब कभी किसी अनजान जगह पर नहीं जाएंगे। लेकिन डर की परछाई हमारे साथ ही लौट आई थी। हॉस्टल में लौटने के बाद भी, रात को टेंट की छाया, गुफा की गूंज और वो अंतिम चेतावनी हमारे ज़ेहन से मिट नहीं रही थी।
कुछ दिन बाद, जब मैं अकेले लाइब्रेरी में बैठा था, मुझे एक पुरानी किताब मिली—धूल से ढकी, बिना शीर्षक के। उसके भीतर एक पन्ना था, जिस पर सिर्फ एक वाक्य लिखा था:
"जो पत्थर हटाता है, वो खुद पत्थर बन जाता है।"
उसके नीचे एक हस्ताक्षर था—A.B.
मैं सन्न रह गया। क्या ये अतुल भैया का ही लिखा हुआ था?
मैंने तुरंत उन्हें दिखाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने किताब को देखते ही मुँह फेर लिया। उनकी आँखों में डर नहीं था... बल्कि एक अजीब सी शांति थी। जैसे वो अब किसी और दुनिया से जुड़ चुके हों।
रात को जब मैं सोने गया, तो मेरी टेबल पर वही किताब खुली पड़ी थी। और उस पन्ने पर एक नया वाक्य लिखा था:
"तुमने चाकू गाड़ा था... लेकिन दरवाज़ा अब भी साँस ले रहा है।"
मैंने खिड़की की ओर देखा। बाहर कोई नहीं था। लेकिन हवा में वही गंध थी—जैसे राख, सिंदूर और किसी पुराने तंत्र की।
अगली सुबह, हॉस्टल के पीछे वाले मैदान में एक पेड़ की जड़ के पास मिट्टी ताज़ा खुदी हुई मिली। और वहाँ... वही चाकू पड़ा था।
मैंने उसे उठाया नहीं। बस देखा... और धीरे-धीरे पीछे हट गया।
गुफा बंद हो चुकी थी।
लेकिन उसका द्वार... अब भी किसी को पुकार रहा था।
और हम चारों में से कोई... शायद फिर से वहाँ जाएगा।
क्योंकि कुछ आवाज़ें...
कभी चुप नहीं होतीं।

