आवारा सी सड़कें
आवारा सी सड़कें


सड़कें बिलकुल आवारा होती हैं घर के बाहर भटकती रहती हैंं। मंज़िल का क्या ?सड़कों की कोई मंज़िल थोड़े ना होती हैं !!!
गाँव देहात वाली मिटटी की बचपन की वह पगडण्डी जो जवानी में किसी चमचमाते शहरों की सड़क बन जाती हैं।नही लगता की सड़के भी जैसे उम्र के फ़ासलों को तय करती हैं।
क्या सड़के भी फ़ासलें तय करती हैं?नही....वह तो हमारे फ़ासलें कम करती हैं.... आदमी फासले तय करता है... सड़कें तो बस पसरी रहती है.... आमतौर पर सड़कें होती तो डामर की लेकिन कुछ सड़कों के क्या कहने? जैसे कि हाई वे वाली सड़कें!!एकदम साफ और प्लेन।रात भर रोशनी से नहायी रहती है।लगता हैं जैसे चांदी का चम्मच मुहँ में लेकर पैदा हुयी हों......
कुछ तो हमेशा ही ऊबड़खाबड़ या फिर गढ्डों से भरी होती हैं।जैसे उनकी किस्मत ही ख़राब हो।
कुछ सड़कें तो पहाड़ियों से जाती और उतरती हैं जैसी वे अठखेलियाँ खेल रही हो।वे बड़े ही मजे से आड़े टेढ़े रास्तों पर चलती जाती हैं...... बिलकुल बेफ़िक्र होकर ...... सदियों से सड़कें पसरी सी हैं जहाँ तहाँ...... गाँव गाँव ..... शहर शहर ..... और देहात मे...... किसी अपने की बाट जोहती सी....... "वह" आता तो हैं लेकिन बेध्यानी से उसे रौंदकर आगे बढ़ता जाता हैं अपनी मंजिल की ओर.......