Manish Gode

Romance

4.8  

Manish Gode

Romance

आइडेंटिटी क्राईसिस

आइडेंटिटी क्राईसिस

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“सॉरी, इस वक्त मैं कुछ भी कहने के मुड में नहीं हुँ।“ उसने कहा।

“क्यों क्या हुआ? सब ठिक तो है ना?” मैंने साशंकित होते हुए पुछा।

“मैंने कहा ना, अभी कुछ भी नहीं, बस!” उसने भडकते हुए कहा।

“ठिक है।“ मैंने अपने हथियार डालते हुए फोन रख दिया।

वह बरामदे में बरबस ही चहलकदमी करने लगी। उसे ना अपना ख्याल था ना अपने आसपास के परिवेश का। वह बमुश्किल अपने मन को काबु में कर पा रही थी। कल रात से उसने ना कुछ खाया था ना वह सोयी थी। बस वह कमरे के बाहर रखे बेंच पर बैठी थी। उसने सुबह एक कप चाय तब पी थी, जब एक चाय वाला लडका तेजी से उसके सामने से गुजर रहा था। वह रुका और उसे ना जाने क्या लगा, उसने उसके आगे चाय का एक कप सरका दिया। उसने उस चाय वाले को देखा और ना चाहते हुए भी वह चाय का कप उसके हाथ से ले लिया। अब भारत में तो चाय, ऐसे या वैसे, कैसे भी पी जा सकती है। अतः उसने भी उसी मानवी स्वभाव का अनुसरण करते हुए चाय पी ली। वह लडका चाय की केतली और पेपर कप लेकर उसी तेजी से आगे बढ गया। सुबह की सुनहरी किरणे उसके बुझे हुए चेहरे को तरोताजा करने का भरसक प्रयत्न कर रही थी, किंतु वे भी ऐसा करने में विफल रहीं।

मैं अब तक इसी उधेडबुन में था कि आज वह इतना अपसेट क्यों थी? उसकी आवाज में पहले जैसी खनक नहीं थी। उसने आज तक मुझसे कुछ भी नही छुपाया था। फिर आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि वह मुझसे बात तक नहीं करना चाहती।

हमने पत्रों के माध्यम से एक दुसरे को काफी हद तक जाना था। तब सेल फोन तो थे नहीं, महीने में एखाद बार एस.टि.डि. फोन कर लिया करते थे। हम एक दुसरे से एक रेडिओ कार्यक्रम के माध्यम से मिले थे। बस, फिर क्या था, हमारे स्वभाव एक दुसरे से मेल खा गये और हम पक्के पत्र-मित्र बन गये। हमें पता था कि पत्र का जवाब कौन सी तारीख को मिलेगा। तब तक एक लंबा इंतजार करना पडता था। लेकिन दो हफ्ते का वह इंतजार हमें इतना बडा नहीं लगता था, जितना आज सोशल मिडिया पर दो मिनीट से ज्यादा की देरी हो जाने पर लगता है।

खैर, हमारी पत्र-मित्रता कुछ ही समय बाद चाहत में बदलने लगी। पत्रों द्वारा हम अपनी बात बडी आसानी से एक दुसरे को बता सकते थे। कोई हिचक नहीं थी ना कोई भय, बस हम तब तक अपनी कलम से आगे पडे कागजों को अपने भावों में रंगते जाते थे, जब तक की जी ना भर जाये। कभी उदासी के आँसु तो कभी खुशी के गीत, सब कुछ उस कागज पर उँडेल देते थे। जैसा भाव, वैसा पत्र होता था। और उस पत्र को पोस्ट करने के बाद होता था, एक लंबा इंतजार। उन इंतजार के दिनों में हम कल्पना करते थे, कि अमुक बात को पढ कर वह हँसेगी, कभी उदास होगी तो कभी उसे ऐसा लगेगा कि वह उड कर हम तक पहुँच जाये और हमसे ढेर सारी बातें करे। गुलाब की ताजी पँखुडिया सभी पन्नों को अपनी खुशबू से भिगो देती थे। खास पत्र में रखने के लिये गुलाब के फुलों का इंतजाम किया जाता था। कभी-कभी तो कोई गिफ्ट भी पार्सल किया जाता था। उसे पाने के बाद जो खुशी, पाने वाले के चेहरे पर नहीं दिख पाती थी, वह पत्रों पर गिरे खुशी के आँसुओं की चंद बुँदों को छूकर प्राप्त होती थी।

मुझे याद आता है कि हमारा पहला पत्र कितना आदरणीय था। ‘आप’ और ‘आपके’ जैसे आदर युक्त शब्दों का उपयोग किया जाता था। आप कैसे है? आप क्या करते है? आपकी पसंद नापसंद क्या है? आपके रोल मॉडल कौन है इत्यादी इत्यादी। फिर धिरे-धिरे ‘आप’ की आत्मियता बढते बढते ‘तुम’ तक पहुँच गयी। तुम कितना अच्छा लिखते हो, तुम कितनी अच्छी लगती हो इत्यादी तकल्लुफ़ गढे जाने लगे। चाहत को प्यार में बदलते ज्यादा देर ना लगी। फिर हमने एक दुसरे को देखना चाहा, सो हमने एक दुसरे को अपने फोटो भेजे।

“तुम दिखने में उतने बुरे भी नहीं हो।“ उसने ना तारीफ की थी ना बुराई।

“किंतु, तुम मुझे बहुत अच्छी लग रही हो।“ मैंने अपने मन की बात सीधे-सीधे कह दी। अक्सर लडके साफ मन के होते है। जो कुछ दिल में होता है, वही जुबां पर भी होता है।

“तारीफ करना तो कोई तुमसे सीखे।“ उसने अगले पत्र में पहला वाक्य यही लिखा था। लडकीयों को समझना बडा कठीन है। तारीफ करो तो, “चल झुठे।“ कह कर शरमा जाना और ना करो तो, “तुमने मेरे बारे में कुछ भी नही लिखा, मैं कैसी दिखती हुँ। पता है दो घंटे लगे थे तैयारी करके फोटो खिंचवाने में।“

तो जनाब हम दोनो ने किसी तरह एक दुसरे को पसंद भी कर लिया। एक दो नुक्स हमने अनदेखे कर दिये थे। हमें कौन सी शादी करनी थी उस समय। जब तक पत्र मित्र है, तब तक ठीक है। एक बार शादी हो गयी, तो तुम अपने रस्ते और हम अपने। 

साल भर में हम एक दुसरे को चाहने लगे। वैसे ही जैसे आजकल ‘साईबर स्पेस’ में होता है। कभी-कभी तो साल दो साल बाद लडकी का पत्र एक भुचाल बन कर आ जाता है कि उसकी शादी होने वाली है, टाटा बाय-बाय! और ऊपर से एक उलाहना कि यदी तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो तो मुझे भविष्य में परेशान ना करना, कोई गलत कदम भी ना उठाना! यानी कि मुँह और नाक दोनों बंद। अब बंदा ना साँस ले पाता है ना ही छोड पाता है। और बेचारा प्रेमी, प्यार का मारा, अपनी माशुका से किये सच्चे प्यार के खातीर ताउम्र अपना मुँह सील लेता है।

किंतु मेरी पत्र मित्र आज भी मेरे संपर्क में बनी हुई है। अब वह पत्र मित्र नहीं रही, मेरी अच्छी दोस्त बन चुकी है। हम दोनों मुँबई के दो छोर पर रहते है। बातें या तो फोन पर हो जाती है या फिर विकएंड पर किसी समुद्र के किनारे मिलने पर हो जाती है। हमने अब तक शादी नहीं की थी। उसके जिंदगी का फलसफ़ा ही कुछ और था। उसकी ऐसी समझ थी कि शादी करने के बाद हम दोनों में वह बात नहीं रह जायेगी जो अब है। हालांकी यह भी उतना ही सच था कि वह मेरे अलावा किसी अन्य पुरूष के बारे में ना सोच सकती थी ना किसी को अपने निकट आने देना चाहती थी।

मैंने पुछा, “तुम शादी क्यों नहीं करना चाहती, जरा समझाओ हमें?”

“मैं अपनी आयडेंटिटी खोना नहीं चाहती।“ उसने वडा-पाव का एक बाईट मुँह में लेते हुए कहा।

“शादी के बाद मैं, मैं ना रह पाऊँगी!” उसने नैपकिन पेपर से अपना मुँह साफ करते हुए कहा।

“तुम, हमेशा मेरे लिये वही रहोगी, जो पत्र मित्रता के समय थी” मैंने कहा।

“मैंने कहा ना शादी नहीं करूँगी, तो नहीं करूँगी, बस।“ उसने अपना एक तरफा निर्णय सुनाते हुए नैपकिन पेपर से हाथ साफ किये और दूर समुद्र की ओर देखने लगी। मानों अपनी आयडेंटिटी के उद्गम को ढुँढने का प्रयास कर रही थी। मैं भी हर बार की तरह, अपना सा मुँह लेकर वापस घर लौट जाता था। मैं मुँबई सेंट्रल में रहता था, जहाँ मेरा अपना फोटो शुट करने का स्टुडियो था। यहाँ नये लडके लडकियाँ अपना पोर्टफोलिओ बनाने के लिये अक्सर आते थे। कभी-कभी किसी बडे कॉट्रेक्ट के तहत फोटो शुट करने के लिये विदेश भी जाना पडता था। और मेरी मित्र, विरार की एक सोसायटी में रहती थी। हालाँकी उसका ऑफिस विले पार्ले में था। जहाँ वह ‘मुँबई मिरर’ की सह-संपादिका थी। हमारे काम करने की जगह में करीब आधे घंटे का अंतर होगा, तो विकएंड पर मिलना हो जाता था या फिर अपनी मैगझिन में छापने के लिये किसी उपयुक्त फोटो के लिये वह अक्सर मेरे स्टुडियो में आ जाती थी या मुझे बुलवा लेती थी। पत्र-मित्रता अब प्रोफेश्नल रिलेशनशिप में तब्दिल हो चुकी थी। लेकिन चाहत का अंकुर, अब एक बडे वृक्ष का रूप ले चुका था। हम एक दुसरे को चाहते हुए भी आधे अधुरे से थे।

करीब दस साल पहले जब मैं लखनऊ की तंग गलीयों में रहता था और वह बिकानेर के किसी रजवाडे में, तभी से हम एक दुसरे के पत्र-मित्र बन गये थे। शुरू-शुरू में महिने में सिर्फ एक पत्र आता था, जिसमें बडी सावधानीपुर्वक बातें लिखी जाती थी, ताकी कोई और पढ भी ले तो भी कोई हर्ज ना हो। जब बात चाहत की हदें पार करने लगी तब हमारे पत्र ‘केअर-ऑफ’ एड्रेस पर भेजे जाने लगे। मुझे हालाँकी वह सीधे मेरे पते पर ही लिखा करती थी। लेकिन मेरे पत्र उसके सहेली के पते पर जाने लगे। वह शायद उसकी पक्की सहेली रही होगी, तभी तो बिना किसी रिश्वत के वह मेरे सारे पत्र इमानदारी से पहुँचा देती थी। क्या उसे कभी मेरी पत्र-मित्र पर जरा भी रश्क ना हुआ होगा? क्या कभी उसे ऐसा नहीं लगा होगा कि उसे भी कोई पत्र लिखे? पता नहीं, उसने कभी इस बात का मुझसे कोई जिक्र नहीं किया था।

अक्सर उसके पत्रों में मिठी बातों के अलावा, अपने करियर संबंधी बाते लिखी होती थी। आगे क्या करना है, कहाँ नौकरी करनी है, कौन सी प्रतियोगिता परिक्षा की तैयारी कर रहे हो इत्यादी। चुँकी मैं फोटोग्राफी में ज्यादा दिलचस्पी रखता था, अतः प्रतियोगिता परिक्षा देने पर मैं ज्यादा तवज्जो नही दिया करता था। कभी-कभार बैंक या रेल्वे का फॉर्म भर देता था, ताकी उम्र बढ जाने के बाद कोई पछतावा ना करना पडे। वह मास-कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर की छात्रा थी। उसके पास अनेक रास्ते थे, जिस पर चल कर वह अपने पैरों पर खडी हो सकती थी। जबकी मैं या तो फिल्म लाईन में या फिर फ्री-लाँसिंग के ही काबील था, सो मैंने मुँबई की राह पकड ली। मैंने उसे अपने इरादे के बारे में बताया, तो उसने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया और वहाँ जरूर जाने को कहा। फिल्में उसे भी पसंद थी। अक्सर फिल्म देख कर आने के बाद उसका पुरा पत्र उस फिल्म की समालोचना से भरा होता था। वह चाह रही थी कि उसे किसी फिल्मी पत्रिका में यदी नौकरी मिल जाये बस, । उसके घर पर उसके अलाव एक भाई था जो काफी छोटा था, सो वह अपने पँख पसार कर उडने को बेताब थी।

मैं करीब पाँच साल पहले मुँबई आ गया था। पहले एक फोटो स्टुडियो में कुछ महिने काम करके पैसे इकट्ठा किये तब जाकर मैं अपनी मंजील की ओर अपना दुसरा पैर बढाने का ढाढस कर सका। कई दिनों तक फिल्म सिटी के चक्कर काटने के बाद भी जब सफलता हाथ नहीं लगी, तो वापस फोटो स्टुडियो में आकर काम करने लगा। मैंने और दो साल में इतने पैसे इकट्ठा कर लिये थे कि मैं एक अच्छा कैमेरा ले सकुँ। मैं अपनी हर बात के बारे में उसे पत्र में लिखा करता था। वह मुझे हमेशा प्रोत्साहन दिया करती थी। उसके बल पर मैं इस अजनबी शहर में अपना मकाम बना सका। एक दिन अचानक मेरे स्टुडियो में एक फोन आया कि कोई मुझसे मिलने बाहर मेरा इंतजार कर रहा था। मैंने बाहर आकर देखा तो वह मुझे देखते हुए हाथ हिला कर मुस्कुरा रही थी।

“तुम, यहाँ कैसे?” मैं अचंबित होते हुए बोला। मैंने उसे पहली बार देखा था। फोटो के मुकाबले वह थोडी मोटी लग रही थी। हमने वह भी नजरअंदाज कर दिया था। एक बार मुँबई की हवा लग गयी तो अच्छे-अच्छों का वजन कम हो जाता है।

“मुझे आज ही अपना नया ऑफिस ज्वाईन करना है। मुझे ‘मुँबई-मिरर’ पत्रिका में जॉब मिल गया है।

“मुझे पत्र क्यों नहीं लिखा, मैं लेने आ जाता।“ मैंने एक अच्छे दोस्त होने का दावा किया।

“अरे, परसों ही तार मिला था और तुरंत ज्वाईन करने को कहा गया था, सो मैं ट्रेन पकड कर सीधे यहाँ चले आयी।“ उसने अपने चेहरे पर बडी सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा। उसकी आवाज में एक खनक थी। वह अब एक स्वतंत्र नारी बन कर माया नगरी में पदार्पण कर चुकी थी। और मैं यह भी जानता था कि इस महानगर में वह अपने लिये एक स्थायी जगह जरूर बनायेगी।

“चलो, मेरे रूम पर फ्रेश होकर, फिर इंटरव्हियु के लिये चली जाना।“ मैंने एक दोस्त का फर्ज निभाने का प्रयास किया।

“इट्स ओके, मैं रेल्वे स्टेशन से फ्रेश होकर ही आ रही हुँ। सोचा, पहले तुमसे मिल लुँ, फिर चली जाऊँगी।“ उसने कहा।

ठीक है, तुम रूको मैं छुट्टी लेकर आता हुँ।“ मैंने कहा और दो घंटे की छुट्टी लेकर उसके साथ उसके नये ऑफिस को चल दिया।

हम विले-पार्ले की ओर टैक्सी से रवाना हो गये। पच्चीस किलोमिटर के इस प्रवास के दौरान मैं उसे विभिन्न जगहों से अवगत करा रहा था। हम हाजी-अली होते हुए ‘बांद्रा-वर्ली सी लिंक’ से आगे बढ रहे थे। वह समुद्र के बीच में से गुजरते हुए बहुत रोमांचित हो रही थी। मैं उसके मुखमंडल पर आते जाते भावों को देख रहा था। मैं जानता था, वह एक दिन इस माया नगरी की रानी बन कर राज करेगी। तब मुझे उसे इस प्रकार संभालना नहीं पडेगा।

उसका गंतव्य आ गया था। हॉटेल आईबिस में उसका इंटरव्हियु था। मैं रिसेप्शन पर बैठा-बैठा उसका इंतजार कर रहा था। हॉटेल का वेटिंग लाउँज बडे करीने से सजा हुआ था। मैंने समय काटने के लिये एक कॉफी ऑर्डर की और ए.सी. की ताजी हवा का आनंद लेने लगा। बाहर ओव्हर-ब्रीज पर ट्राफिक पुरे गती से बह रहा था। करीब ढेड घंटे बाद वह फुल का कुप्पा बनी मेरी ओर दौडते हुए पहुँची और बोली,

“मुझे नौकरी मिल गयी!” उसकी आँखों में एक चमक थी। वह मुँबई जैसे महानगर में पहले दिन ही एक अच्छी नौकरी की हकदार बन गयी थी। जिस पर मायानगरी मेहरबान हो उसके वारे न्यारे हो जाते है, वरना अच्छे-अच्छे अपना वजन घटाकर वापसी का टिकट काट लेते है।

“मुबारक हो!” मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढाया। उसने भी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। मैंने उसका हाथ पहली बार अपने हाथों में लिया था। उसने कुछ क्षण बाद शरमा कर हाथ खिंच लिया।

*****

वह अपने नये काम में पुरी तरह मसरूफ हो गयी। नये काम को सीखना और अपनी जगह बनाना, कोई मामुली बात ना थी। अपनी पत्रिका के लिये नित नये विषयों को ढुँढ निकालना, यह हमेशा से उसके सामने एक बडी चुनौती बन कर खडी रहती थी। शुरू-शुरू में मैं उसे अपने साथ ले जाता था। फिर कुछ समय बाद वह इस नयी जगह से वाबस्ता हो गयी। अब उसके फोन सिर्फ शाम को ही आते थे, जब वह दिन भर की थकी-माँदी ऑफिस पहुँचती थी। 

“अगले अंक के लिये आर्टिकल लिखना है यार!” वह निढाल सी होते हुए फोन पर दिन भर की भाग-दौड के बारे में संक्षिप्त में बताती थी। मैं चाहता था कि हम साथ-साथ रहे, ताकी हम एक दुसरे का ख्याल रख सके। किंतु वह अपनी सो-कॉल्ड ‘पहचान’ बनाने के चक्कर में इस कदर खो गयी थी कि उसे ना खाने का होश था ना रहने पहनने का। मैं देर रात उसके लिये खाने का पैकेट लिये उसके ऑफिस के नीचे उसकी प्रतिक्षा किया करता था। वह आठ-नऊ बजे थक कर चुर मुझसे लिपट कर कहती,

“आज बहुत थक गयी यार!”

“इतना काम करना सेहत के लिये ठिक नही!” मैं उसे संभालते हुए उसके फ्लैट तक पहुँचा देता था।

“अब खाना खा कर सो जाओ, कल फिर वही भागा-दौडी मचेगी।“ मैं उसे बाय कहता हुआ बाहर निकल जाता।

“तुम मेरे लिये इतना सब, मत किया करो। मुझे बहुत ऑकवर्ड फील होता है।“ वह मुझे गुडनाईट किस करते हुए कहती, “मैं अपना काम खुद कर सकती हुँ।“ उसकी आँखे नींद की खुमारी के कारण गुलाबी होने लगी थी। “मैं अपनी पहचान खुद बनाना चाहती हुँ। मुझमें ताकत है अभी। जब बुढी हो जाऊँगी, तब तुम्हारे पास ही बैठा करूँगी, बस।“ वह मेरी नाक को अपनी उँगलीयों से पकड कर खिंचते हुए कहती।

“अपनी हालत देखो, पाँच-दस किलो वजन कम हो चुका है तुम्हारा।“ मैं उसकी कमर को अपने हाथों से भिंचते हुए कहता, “मुझसे शादी क्यों नहीं कर लेती।“

उसने मुझे जोर से धक्का देते हुए अपने से अलग किया और कहा, “कितनी बार कहा है कि मैं किसी से भी शादी नहीं करूँगी।“ वह अपनी आँखे तरेरते हुए कहती।

“तो क्या जिंदगी भर यों ही कुँवारी रहोगी?” मैं अपनी बात रखते हुए कहता।

“कुँवारापन का शादी करने या ना करने से क्या संबंध?” वह मेरी कॉलर पकड कर अपनी ओर खिंचते हुए शरारत भरे अंदाज में कहती।

“लेकिन यदी हमें साथ रहना है तो एक सामाजिक बंधंन के दायरे में तो रहना ही पडेगा।“ मैं अपनी कॉलर छुडाते हुए बोला। मैं सोचने लगा, क्या यह वही लडकी है, जो राजस्थानी रीती-रीवाजों में बंधी एक आज्ञाकारी छोरी हुआ करती थी?

“किस सोच में पड गये बाबु? यह बँबई है मेरी जान, यहाँ रोज-रोज हर मोड-मोड पर होता है कोई ना कोई, हादसा!” वह किसी फिल्मी गीत की लाईने गुनगुना रही थी। उस पर मुँबई पुरी तरह से हावी हो गयी थी। वह सबसे आगे निकलने की होड में बहती जा रही थी। प्रुफ रीडर से सह-संपादक और अब उसकी नजर संपादक की कुर्सी पर थी। मैं अपनी दोस्त को ऐसी बदहवासी में बहता हुआ नहीं देख सकता था। 

*****

मैं अपना खुद का स्टुडियो शुरू कर चुका था। उसने अपने कुछ पैसे मेरे इस नये प्रतिष्ठान में निवेश किये थे। वह कहा करती थी, “बैंक में डालने से तो अच्छा है मैं अपने पैसे तुम्हारी प्रॉपर्टी में इंवेस्ट कर दुँ। क्या कहते हो?”

मैं तो खुशी से गदगद हुआ जा रहा था। मेरे सगे रिश्तेदारों ने भी कभी मेरी इतनी मदद नहीं की थी। मैंने उसे जोर से भिंचते हुये कहा, “मेरे अपनों ने कभी मेरे लिये इतना नही सोचा होगा और तुम सिर्फ दोस्त होते हुए अपना पैसा बेहिचक मुझे दे रही हो?”

उसने अपने हाथ से मेरी पिठ थपथपाते हुए मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा, “जो कुछ मेरा है वह तेरा है, और जो तेरा है वह मेरा भी तो होगा!”

“तो हम शादी कर लें, मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।“ मैं बेताब होते हुए कहता।

उसने फिर से धक्का देते हुए चेतावनी दी कि वह कभी किसी से भी शादी नहीं करेगी। मैं फिर से मुँह लटकाटे हुए धम्म से नीचे बैठ गया।

“तुम्हें शादी के अलावा और कुछ नहीं सुझता क्या?” वह मुझे डाँटते हुए बोलती।

“मेरे लिये तुम्हारे साथ एक होने के लिये शादी करना बहुत जरूरी है।“ मैं बहकते हुए कहा करता।

“ठिक है, क्या हम ‘लिव्ह-इन-रिलेशनशिप’ में रह सकते है। सिर्फ ग्यारह महिने। यदी हम अच्छे पती-पत्नी नहीं बन सके तो हम फिर से दोस्त की तरह अलग हो सकते है।“ उसने मेरी ओर देखते हुए कहा। उसे अब मुझ पर दया आ रही थी।

मैं इस अस्थायी रिश्ते को ढोने के लिये तैयार न था। मेरा लालन-पालन लखनवी तौर-तरीके से हुआ था। परिवार में हर उम्र के सदस्य होते थे, जो एक से बढ कर एक अनुभव रखते थे। अम्मा के हाथ की उडद की दाल और नर्म रोटियाँ, भाभी के हाथ के दही-भल्ले और दिदी के हाथों से बनी बिर्यानी तो हम ऊँगलियाँ चाटते हुये खाते थे। हमारे लिये शादी, एक साथ सोने के लिये किया गया अनुबंध ना होकर, एक सामाजिक बंधन था। बडे बुजुर्गों की छत्र छाया में जीवन का आनंद ही कुछ और होता है। कितनी ही परेशानीयाँ, चुटकियों में सुलझ जाती थी। सभी अपना दुःख दर्द मिल बाँट कर कम कर लिया करते थे, तो खुशीयाँ सभी में बाँट कर बडा लिया करते थे। और यही संस्कार, यही बातें हमें अपनी आने वाली पिढी तक पहुँचानी थी। लेकिन वह तो जैसे अपनी ही बात पर अडी हुई थी। पता नहीं उसे शादी से इतनी नफरत क्यों थी। मेरी तो यह समझ के बाहर था।

***** 

सुबह-सुबह उसका फोन आया, मैंने रिसीवर उठाते हुए कहा, “हलो, कौन?”

“तुम्हारी जान..! जो तुम कल रात मेरे पास छोड आये थे।“ वह चहकते हुए बोली।

“कहो..।“ मैंने आँखे मलते हुए कहा।

“आज रविवार है, क्या तुम मेरे साथ चलोगे?” उसने प्यार से कहा।

“कहाँ जाना है?” मैं बिस्तर से बाहर निकलता हुआ अंगडायीयाँ लेने लगा।

“नाला-सोपारा..!” उसने कहा, “मेरी बॉस ने एक नये विषय की खोजबीन करने के लिये वहाँ जाने को कहा है। साथ में एक कैमेरामन चाहिये। तो तुम चलोगे? मैं तुम्हे अपने ऑफिस से टि.ए.-डि.ए. भी दिलवा दुँगी।“

मुझे इसमें कोई आपत्ती नजर नहीं आयी, सो मैंने हाँ कर दी और उसे ग्यारह बजे तक पहुँचने का वादा कर, तौलिया लपेटते हुए वॉशरूम की ओर चल दिया।

मैंने, अपनी कैमेरा बैग कंधे पर अटकायी और मुँबई सेंट्रल से आठ बजे की लोकल पकडी, जो कल्याण होते हुए मुझे नाला-सोपारा वेस्ट तक ग्यारह बजे के करीब पहुँचाने वाली थी। स्टेशन के बाहर भागते दौडते हुए पहुँचा था, सो साँस फुलने लगी थी। मैंने चलते-चलते दो वडा-पाव पैक करवा लिये थे। एक अपने लिये, दुसरा उसके लिये। मेरी जान जो थी वह। और अपनी जान की परवाह तो सभी को होती ही है, नहीं?

वह स्टेशन के बाहर मेरा इंतजार कर रही थी। उसने मुस्कुरा कर मेरा हाथ पकडा और अपनी बैग से सैण्डविच का एक पैकेट निकाल कर मुझे दिया। मैंने भी उसे अपने साथ लाया वडा-पाव का पैकेट थमा दिया। हमने एक दुसरे की ओर प्यार भरी निगाहों से देखा। यदी हम पब्लिक प्लेस में खडे ना होते तो निश्चित ही एक दुसरे को बाँहों में भर लेते और मन ही मन कहते, “तुम्हें मेरी कितनी परवाह है ना, बस जिंदगी भर ऐसे ही प्यार करते रहना?”

“चलें..?” उसने मेरी विचार शृंखला तोडते हुए कहा।

“तो आज का विषय क्या है?” हम खाते-खाते आगे बढ रहे थे।

“हमें बेसहारा बच्चों पर एक आर्टिकल लिखना है और तुम्हें ऐसे बच्चों की तस्वीरें खिंचनी है। मुझे कुछ ‘ब्लैक एण्ड व्हाईट’ क्लोज-अप्स भी चाहिये।“ वह मुझे निर्देशित करती हुई अपने अवतार में समाहित होने लगी थी। मैं उसका असिसटंट बनता हुआ उसके पिछे-पिछे चल रहा था। आज उसने आयवरी कलर की गार्डन वरेली साडी पहन रखी थी। उस पर बडे-बडे फुल बने थे जो उसके व्यक्तित्व को और भी निखार रहे थे। उस पर पिंक कलर का लंबी बाहों वाला ब्लाऊज, जो साडी पर बने फुलों से मैच कर रहा था। वह किसी फिल्म एक्ट्रेस से कम नहीं लग रही थी। जब मुँबई आयी थी तो कितनी मोटी थी। साल भर मुँबई की खाक छानते हुए वह एकदम ‘स्लिम एण्ड ट्रिम’ नजर आ रही थी। मैं सोचने लगा, काश वह मेरी बीवी होती तो, कितना अच्छा होता। मैं उसके हर बढते कदमों को पिछे से निहारता हुआ बहक रहा था। इससे पहले की मेरी साँसे गर्म होने लगे और मैं कुछ कर बैठता, मैंने उसके साथ-साथ चलना ही मुनासिब समझा।

हम एक गंदी बस्ती के पास से गुजर रहे थे। एक सुंदर युवती को अपनी बस्ती में देख कर बच्चे हमारे आस-पास मंडराने लगे।

“आप बहुत अच्छी दिख रही हो।“ एक चार-पाँच साल की बच्ची ने उसके साडी का पल्लु पकडते हुए कहा। उसने अपनी बैग से एक और सैण्डविच का पैकेट निकाला और उस बच्ची को देते हुए पुछा, “आप कहाँ रहती हो?”

उसने दूर एक दो मंजीला इमारत की ओर इशारा कर दिया। हम दोनों रास्ते के किनारे बने चाय की टपरी पर पहुँचे और वहाँ चाय वाली काकू से पुछा,” वह कौन सी इमारत है?

“काही विचारू नका बाई, तिथं समदे कशे बशे राहतात बिचारे!” उसने मराठी में बताया।

“क्या?” हमने पुछा।

“अजी, सरकारी अनाथालय हय वो..! वाँ रयते हय ये बच्चा लोक..!” उसने टुटी फुटी हिंदी में हाथ हिलाते हुए बताना चाहा। हमने चाय पी और उस इमारत की ओर चल दिये। तब तक मैंने आठ दस फोटो खिंच लिये थे।

“यहाँ कौन-कौन रहता है?” उसने उस बच्ची से पुछा।

“हम सब काका-काकू के साथ रहते है।“ उसने बताया।

तभी वहाँ एक अधेड उम्र की एक औरत आयी। उसने बताया कि वह यहाँ काम करती है और यहीं इन बच्चों के साथ रहती है। हमने उन सभी से काफी लँबे समय तक बातचीत की और वहाँ की दयनीय स्थिती को अपने कलम और कैमेरा में कैद कर लिया। हमें व्यथित होता देख कर उन्होंने कहा कि यदी समाज ने इन बच्चों का किसी भी कारण से परित्याग किया हो तो इसी समाज से कोई और आकर इन्हें अपना लें तो कोई तकलिफ की बात ही नहीं होगी!

बात हमारे दिल पर लग गयी। हम अपना काम पुरा करके भारी मन से स्टेशन की ओर चल पडे। उसने विरार की और मैंने अपनी लोकल पकडते हुये विदा ली। वह गुमसुम सी लग रही थी। उसने ज्यादा बातचीत नहीं की। सिर्फ फोटो जल्द पहुँचाने की बात कर वह चली गयी। मैं उसकी ओर तब तक देखता रहा, जब तक वह मेरी नजरों से ओझल नहीं हो गयी।

‘मुँबई-मिरर’ का नया अंक बुक स्टॉल पर आ चुका था। उसने पुरे मुँबई में धुम मचा दी थी। हर तरफ उसकी वाह-वाही हो रही थी। हर तरफ उसके आर्टिकल ने लोगों को सोचने पर मजबुर कर दिया था। ऑफिस में उसे काफी सराहना मिली और प्रमोशन के रूप में संपादक का अतिरिक्त पद भी प्राप्त हो गया। उसे मदद के लिये जुनियर्स मिल गये, जो अब ‘फिल्ड वर्क’ संभालने लगे। उसका काफी वक्त अब ऑफिस के मैंनेजमेंट में गुजर रहा था। एक दो महीने में बात आयी गयी हो गई। वे अनाथ बच्चे अब भी रास्तों पर आवारागर्दी करते हुए घुम रहे थे। वह इस बात से काफी चिंतित थी कि लोग अपनी जवाबदारी कब समझेंगे।

“लोगों को ना हमेशा डेमो देना पडता है।“ उसने एक रात फोन कर मुझसे कहा, “झुँड के साथ सब चलने को तैयार रहते है, जब अकेले निर्णय लेने की बारी आती है तो सभी दुम दबा कर भाग जाते है सा..” उसने एक गाली देते हुए जोर से कहा। मैं चुपचाप उसकी बात सुन रहा था। उसे एक श्रोता की जरूरत थी, जो उसके अंदर के गुबार को बाहर निकालने में मददगार बन सके। दस-पंद्रहा दिन बीत गये। मैं मॉरिशस के लोकेशन पर शुट कर रहा था। मैंने उसे साथ चलने को कहा, ताकी उसका मन बहल सके। लेकिन उसने कुछ काम होने की बात बता कर साफ मना कर दिया। मैंने उसके लिये कुछ गिफ्ट्स खरीदे और वापसी के लिये पैक-अप कर रहा था।

वापस आने के बाद उसने मुझे फोन कर घर बुलाया था। मैं शाम को उसके घर पहुँचा तो वही लडकी उसके पास बैठा देख कर थोडा चकरा गया। वह एक नया फ्रॉक पहने किसी खिलौने से खेल रही थी। मुझे देख कर वह उसके पास चली गयी।

“यह यहाँ कैसे?” मैंने पुछा।

“सोचो तो जरा?” उसने मेरी ओर देखते हुए कहा, “मैंने इसे एडॉप्ट किया है और अब ये मेरी बेटी बन चुकी है! क्यों है ना?” उसने उसकी ओर देखते हुए कहा। उस बच्ची ने सिर हिला कर जवाब दिया। मैं उसके इस ढाढसी कदम से काफी प्रभावित हुआ था।

“मैंने यह फ्लैट खरीदने का विचार कर लिया है, ताकी यह अपने आप को बेसहारा महसुस ना करें।“ मैं उसकी ओर बडे फक्र से देख रहा था। वह अब ‘सिंगल मदर’ बन चुकी थी। उसका सारा संसार उस बच्ची के इर्द गिर्द सिमट कर रह गया। नित नये कपडे, खिलौने और उसे स्कुल में दाखिला भी दिलवा दिया। अब मुझे मिलने उसके घर पर जाना पडता था। उसके फोन भी कम आने लगे थे और फोन भी करती तो किसी काम से। अब वह पहले जैसी शोख और चंचल भी नही दिखती थी। ऐसा लगता था मानों वह सचमुच उसकी माँ हो।

एक बार आधी रात को उसका फोन आया, “सुनो, क्या तुम अभी आ सकते हो?”

“मेरे पास कोई गाडी नहीं है, लोकल भी बंद हो चुकी होगी, मैं कैसे आ सकता हुँ? बाई द वे, बात क्या है?” मैंने पुछा

“बच्ची को साँस लेने में तकलीफ हो रही है। शरीर और आँखे भी पीली नजर आ रही है।“ वह चिंतीत नजर आ रही थी।

“तुम किसी अस्पताल से एम्बुलंस बुलवा सकती हो। इस प्रकार उसे फस्ट एड भी मिल जायेगा और डॉक्टर का उपचार भी।“ मैंने कहा, “सुबह मैं पहली लोकल पकड कर आता हुँ।“

उसे मेरी बात ठिक लगी। उसने डिरेक्टरी खोल कर विरार में स्थित हॉस्पिटल ढुँढ कर फोन कर दिया। कुछ ही देर में संजीवनी हॉस्पिटल से एम्बुलंस आ पहुँची और बच्ची को तुरंत ऑक्सिजन दी गयी। वह रात भर हॉस्पिटल के कॉरिडोर में बैठी रही। मैं सुबह चार बजे की लोकल पकड कर करीब आठ बजे उसके फ्लैट पर पहुँच तो पता चला वह संजीवनी हॉस्पिटल में बच्ची को ले गयी थी। मैं ऑटो पकड कर वहाँ पहुँचा, तो उसे अस्ताव्यस्त हालत में बैठा पाया। जैसे ही मैं उसके पास पहुँचा वह मेरा हाथ पकड कर रो पडी। मैंने उसे किसी तरह शांत किया और उस बच्ची का हाल जानने की कोशिश की। पता चला उसके शरीर में ऑक्सिजन लेवल बहुत कम हो गयी थी, इसलिये उसे आई.सी.यु. में रखा गया है। मैंने भीतर झाँक कर देखा, वह बेड पर निस्तेज पडी हुई थी। उसकी हार्ट बिट्स बहुत कम थी।

“डॉक्टर ने क्या कहा?” मैंने उससे पुछा।

“अभी डॉ. शैला मुखर्जी के आने के बाद ही कुछ पता चलेगा। फिर रिपोर्ट्स भी आने वाली है अभी थोडी देर में है। कल रात को ही ब्लड सैंपल ले गये थे।“ उसने चिंतीत होते हुए कहा।

“तुम घर जाकर फ्रेश हो जाओ, मैं बैठता हुँ यहाँ।“ मैंने उसे ढाढस बँधाते हुए कहा। वह घर जाने को राजी हो गयी। हॉस्पिटल में रात भर रूकी गहमा-गहमी फिर से शुरू हो गयी। मैं सिर्फ आते जाते लोगों और नर्स को देख रहा था। हर कोई इधर से उधर भागा जा रहा था। मेरा दिल यह सब देख कर बैठा जा रहा था। मैं यही प्रार्थना कर रहा था कि सब कुछ जल्द से जल्द ठिक हो जाये।

*****

सारे रिपोर्ट्स के आ जाने के बाद पता चला कि उस बच्ची के खुन में लाल रक्त कोशिकाएँ ना के बराबर थी। उसे ‘थेलेसिमिया’ हो गया था। यह एक अनुवांशिक बिमारी थी और यह दस लाख बच्चों में से एक को होता है, ऐसा डॉक्टर ने बताया। इसका इलाज नहीं था, उसे हमेशा नया खुन चढाते रहना पडेगा। जो काफी महँगा उपचार साबित होने वाला था।

“मैं इसका इलाज करवाऊँगी।“ उसने डॉक्टर से कहा। उसे तुरंत नया खुन चढाया गया। एनिमिया हो जाने के कारण वह पीली पड गयी थी। उसे पौष्टिक आहार की भी जरूरत थी। किंतु यह मात्र अस्थायी समाधान था। उसे हर बार नये खुन की जरूरत पडने वाली थी। उसने अपनी पत्रिका के नये अंक में थेलेसिमिया के बारे में विस्तार से लिखा और सभी को नियमित रक्तदान करने का अग्रह किया ताकी उस बच्ची जैसे अनेक मरीजों को नया रक्त मिलता रहे और उनकी जिंदगी कुछ दिनों के लिये और बढ जाये।

हमसे जितना हो सका हमने रक्त दान और बल्ड-बैंक से रक्त लेते रहे किंतु दिन-ब-दिन कॉल्पिकेशंस बढते ही जा रहे थे। वह अपना बहुत सा पैसा उस बच्ची पर लगा चुकी थी। फ्लैट खरीदने के लिये दिया गया एडवांस भी उसने वापस ले लिया था। मुझसे उसकी बेबसी देखी नहीं जा रही थी। शायद उसका मुँबई में आना और उस बच्ची को बचाने के बीच कोई पुर्वजन्म का संबंध रहा होगा, जो वह इस जनम में उसे वापस लौटा रही थी।

पाँच-छह महिने गुजर गये। वह अब थोडी चिड-चिडी रहने लगी। उसके हाथ से समय की रेत मानों फिसलती जा रही थी। वह भी नहीं जानती थी कि वह बच्ची और कितने दिन बची रहेगी। उसका शरीर कभी-कभी नया रक्त अपने में लेने से इंकार कर रहा था। ऐसे में वह फिर से कमजोर रहने लगी। रक्त में लोह की मात्रा कम होती जा रही थी। सभी बेबस उसे मरता देख रहे थे। उसे हफ्ते में तीन-चार बार हॉस्पिटल में लाया जाने लगा। उसे सलाईन से शरीर को लगने वाले जरूरी तत्व दिये जाने लगे। वह अक्सर आई.सी.यु. में भर्ती रहती।

एक दिन मैंने हॉस्पिटल में फोन लगा कर रिसेप्शन पर उसे बुला कर पुछा, “कैसी हो तुम, कई दिनों से तुमने फोन भी नहीं किया?”

“सॉरी, इस वक्त मैं कुछ भी कहने के मुड में नहीं हुँ।“ उसने कहा।

“क्यों क्या हुआ? सब ठिक तो है ना?” मैंने साशंकित होते हुए पुछा।

“मैंने कहा ना, अभी कुछ भी नहीं, बस!” उसने भडकते हुए कहा।

“ठीक है।“ मैंने अपने हथियार डालते हुए फोन रख दिया।

मैंने आज उसे मिलने का फैसला कर लिया था। मैं फटाफट तैयार होकर हॉस्पिटल पहुँचा, तो वह विक्षिप्त सी बैंच पर बैठी थी। नर्स ने बताया ये कल से यहाँ बैठी थी, ना कुछ खाया ना घर गयी थी। उस बच्ची की पल्स कम होते जा रही थी। डॉक्टर ने अब अपनी असमर्थता जाहीर कर दी। वह बच्ची अपनी आखरी साँसे गिन रही थी। मैंने उसके पास जाकर उसके कँधे पर हाथ रखा तो अचानक दहाडे मर कर रोने लगी। वह हार रही थी। टुट चुकी थी वह। उसे मेरा हाथ एक संबल की तरह लग रहा था। वह मेरी ओर देख रही थी मानों विनंती कर रही हो कि उस बच्ची को कैसे भी कर के बचा लो, प्लिज..! मैंने उसे इतना निरह कभी नहीं देखा था। मुझे उस पर बढी दया आ रही थी। किंन्तु मेरे हाथ में कुछ भी ना था। कुछ बाते प्रकृती अपने हाथों में थामे रहती है। मनुष्य जन्म तो दे सकता है किंतु मृत्यु को टाल नहीं सकता। मैं किंकर्तव्यविमुढ सा खडा यह सब देख रहा था।

रात को ही उस बच्ची ने आखरी साँस ली और वह चल बसी। वह फफक-फफक कर रोने लगी। वह मेरी कमीज को अपने हाथों से पकड कर रो रही थी। “मुझे मेरी बच्ची चाहिये, मुझे मेरी बच्ची चाहिये..!” वह पागलों की तरह रो रही थी। मैं किसी तरह उसे अपने घर ले आया। वह खामोश रहने लगी थी। जैसे उसमें जान ही ना हो। घंटो दिवारों को देखते हुए कहीं खोयी रहती। कुछ दिन यों ही बीत गये। मुझसे उसका दुःख देखा नहीं जा रहा था। मैंने उससे पुछा, “क्या तुम वापस बिकानेर जाना चाहती हो? शायद मुँबई की यादें वहाँ कुछ कम हो जाये।“

छह महिने बाद बिकानेर से उसका फोन आया, “क्या तुम मुझसे शादी करोगे?” उसने पहला वाक्य बोला।

मैं अगले दो दिनों में उसके घर, बीकानेर में था।

“क्यों नहीं, अपनी पत्र-मित्र से, जो मेरी दोस्त बन कर इतने साल मेरे साथ रही, उसके साथ देर से ही सही, बची हुई जिंदगी काटने के लिये मैं बिल्कुल तैयार हुँ।“ मैंने उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहा। उसने अपने होंट मेरे होंटो पर रख दिये। देर तक चुमने के बाद उसने अपनी उखडी साँसे संभालते हुए मुझसे कहा, “मेरी आइडेंटिटी तुम्हारे बिना अधुरी है! जिस दिन हम एक हो जायेंगे, उस दिन मेरी पहचान पुर्ण हो जाएगी। उस दिन मुझे मेरी खरी आइडेंटिटी मिल जायेगी।“ वह मेरी बाँहो में अपनी आँखे बंद कर कहीं भविष्य में खो गयी।


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