कजरी
कजरी
कजरी की उम्र अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा होती जा रही थी, यह बात उसके माँ-बाप के लिये दिन-ब-दिन एक समस्या बनती जा रही थी। बढती उम्र की लडकी हर माँ-बाप के लिये किसी कर्ज से कम नहीं होती। जन्म लेने के बाद से ही उसके रंग-रूप को लेकर चर्चा होने लगती है। तीन-तीन बेटी का बाप सरजू उस दिन खेत पर ही रह गया, जब उसे पता चला कि उसे चौथी भी बेटी ही हुई है। देर रात जब घर आया तो उसकी अम्मा ने उसे बहुँ और बेटी से मिल आने को कहा। किंतु सरजू की ईच्छा नही हुई उनसे मिलने की। वह यों ही सर दुसरी ओर करके सोने लगा।
“राम जाने कब हमारे परिवार को कुलदिपक मिलेगा..?” सरजू की अम्मा पुटपुटा रही थी। “ये ससुरी चौथी भी बेटी बनकर हमारे ही घर पैदा हो गयी। राम जाने कब तक हमारी परिक्षा लेता रहेगा।”
सुबह सरजू की नींद अपनी नई-नवेली बेटी के रोने की आवाज से खुल गयी। रोने में एक मधुरता थी। एक संगीतभरा नाद था..! सरजू अपनी कमर सीधी कर उस रोने की आवाज को सुनने लगा। उसे वह आवाज सुनने को जी चाह रहा था और वह मंत्रमुग्ध सा आँखे बँद कर उसे सुनने लगा। आवाज कभी गँधार छोड पँचम को छू जाती तो कभी निषाद से सीधा षडज पर आकर रुक जाती..!
“अरे ओ माँ के लाल..! अब सोता ही रहेगा की जरा जाकर देख लेगा, क्यों रो रही है तेरी ये कलमुँही..!” सरजू की अम्मा बरामदे से उस पर चिल्ला रही थी।
सरजू को भी अपनी संगीत रजनी को मिलने की उत्कंठा हो उठी, वह अपनी पगडी सिर पर बाँधता हुआ कमरे के अंदर घुसा..! पालने में उसकी नजर एक साँवली सी बच्ची पर पडी..! अपने बाप को देख कर वह चूप सी हो गई और टुकूर टुकूर उसे ताकने लगी। बीच बीच में हँस भी देती। सरजू को देख वह जोर जोर से पाँव चलाने लगी, मानो कह रही हो, उठाओ... गोद में उठाओ मुझे..?
सरजू से रहा ना गया और उसने उसे अपने हाथों में उठा लिया। बाप के हाथों का स्पर्श पाते ही वह चुप हो गयी मानो इसी समय का इंतजार कर रही हो। सरजू को अपने आप पर गुस्सा आ रहा था, क्यों नही उसने पहले उसे अपने पास लिया..? आखिर उसकी अपनी संतान ही तो थी। सरजू ने उसे अपने गले लगा कर उसे खूब चुमा और कभी भी अपने से अलग ना करने की खुद से बात कह डाली।
“क्यों जी... अब बडा लाड आ रहा है अपनी बेटी पर..!” सरजू की पत्नी बिमला पिछे से अंदर आती हुई बोली। “कल से आये क्यों नही हमसे मिलने..? अब याद आयी तुम्हे हमारी..!” वह रूठ कर सरजू से बोली।
“ना री..., तुझसे भला क्या रुठना... सब भाग्य का लिखा है री..! चौथी भी बेटी ही सही, जैसे रब की मर्जी..!” सरजू लँबी साँस लेता हुआ जमीन पर बैठ गया।
“तुम मन मैला ना करो जी..! चारों बेटियाँ ही हमारा इहलोक के साथ-साथ उहलोक भी सुधार देगी, देखना तुम..!” बिमला सरजू से अपनी बिटिया को लेकर उसे दुध पिलाने बैठ गयी।
सरजू भी बाहर आकर कुँए से पानी निकालने लगा। नहा धोकर खेतो की तरफ जाना था। उसके खेतों में गेहूँ की बालियाँ लहलहा रही थी। इस बार फसल अच्ची हो जाये बस..! साहुकार का सारा कर्जा इकट्ठा ही उतार देंगे.., सोचता हुआ सरजू खेतो तक जा पहुँचा।
“कैसे हो सरजू भैया.., इस बार तोहार खेत मा अच्छी फसल हुई है भाई..!” पडौस के खेत से बिरजू दूर से चिल्ला कर हाथ हिला रहा था।
“सब राम जी की कृपा है भाई..!” कहकर सरजू खेत से फसल काटने की योजना बना रहा था। कम से कम पचास मन अनाज निकलने की उम्मीद थी उसे। अगले हफ्ते पुरनमासी से पहले कटाई हो जाये तो अच्छा होगा। फिर फसल को सुखाना, कितने ही काम बाकी है, तब कहीं जाकर अनाज मंडी तक पहुँचेगा..! वहाँ पर भी सही दाम नही मिले तो..! सोच सोच कर सरजू का दिल बैठा जा रहा था।
रात अपनी नन्ही बिटीया – कजरी के पालने को झुला देते हुये सरजू बिमला से बोला, “इस बार राम जी की कृपा से फसल अच्छी हुई है कजरी की अम्मा..! राम जी की ईच्छा हुई तो इस बार हम साहुकार का सारा कर्जा उतार देंगे..!”
“सच..,” बिमला बोली, “सब अपनी कजरी के पुण्य कदम की कृपा है जी..!”
“शायद..!” सरजू को भी एक आस सी बँधी थी।
भाग्य सरजू का साथ दे रहा था। समय से फसल बन कर तैयार होकर मंडी पहुँच गई। भाव भी सवाई मिल गया था इस बार उसे। खुशी खुशी सरजू अपने घर को चल दिया। अगले ही दिन साहुकार का सारा कर्जा उतार कर सरजू कर्ज मुक्त हो गया था। कजरी के आते ही सरजू और बिमला के दिन सँवरने लगे थे। यह सब भाग्य का ही तो चमत्कार था। सरजू का भाग्य अब चमकने लगा था।
कजरी अब धिरे धिरे बढी हो रही थी। साथ ही साथ संगीत का रियाज भी बढता जा रहा था। सरजू जब थका मांदा घर वापस आता तो कजरी उसके बालों में तेल लगाते हुए गुनगुनाती रहती। उसकी आवाज में जैसे शहद घुला हुआ मालूम पडता था। सरजू उसकी आवाज में तल्लीन हो अपनी सुद-बुद खो बैठता..!
“बिल्कुल अपने दादा पर गयी है अपनी कजरी..!” सरजू अपनी अम्मा से बोला करता।
“हाँ-हाँ, क्यों नही..! रंग रूप तो अपनी माँ से ले लेती.., वह भी अपने दादा का ही ले लिया..!” उसकी अम्मा ताना मारती हुई बोली।
“अब बस भी करो अम्मा... रंग रूप क्या अपने हाथों में है भला..? कन्हैया भी तो साँवले सलोने थे, उन्हे कोई कुछ नही कहता..!” सरजू अपनी बेटी का पक्ष लेते हुए बोल उठा।
“अरे बाँवले, कन्हैया तो पुरूष थे, कजरी एक लडकी है..! कुछ समझ में आ रहा है तुझे..?” अम्मा बिफरते हुए बोली।
“समझ गया अम्मा.., राम जी ने कहीं तो जोडी बना रखी होगी कजरी की इस दुनिया में..!” सरजू हाथ मुँह धोने कुँए के पास चल पडा।
समय बितता जा रहा था। कजरी अब सयानी हो रही थी। जैसे तैसे उसकी तीनों बडी बहनों का ब्याह निपट गया। कजरी बीस बाईस की उम्र पार कर रही थी। इस उम्र में तो गाँव की लडकियाँ एक-दो बच्चों की माँ बन जाती है। कजरी का रंग साँवला होने की वजह से उसका रिश्ता जुडने में काफी परेशानी हो रही थी। आवाज में मिठास थी, किंतु उससे किसी को कुछ लेना-देना नहीं था। लडकी का रंग रूप उसके आने वाली संतान की सुंदरता को निरूपित करता था।
बच्चे के सुँदर होने के मौके उतने ही ज्यादा होते है, यदी उसकी माँ भी सुँदर हो, ये अवधारना आज भी हमारे सामाजिक जीवन में शादी के समय देखे जाने वाले प्रमुख मुद्दो में से एक हुआ करती है। फिर लडका कितना भी बदसुरत क्यों ना हो..! शायद आज भी बहुत कम लोगों को गुणसुत्रों का विज्ञान का पता हो कि लडकी के गुणसुत्र ज्यादातर बाप से प्राप्त होते है और लडके के गुणसुत्र अपनी माँ से..!
छह बरस और बीत गये, किंतु कजरी को कोई भी पसँद नही कर पा रहा था। यद्यपी वह खूबसुरती के अलावा अमुमन सभी गुणों में कुशाग्र थी। बस कसर रह गयी थी तो सिर्फ रंग रूप की..! किंतु कजरी पर इसका कोई असर नही पड रहा था। वह तो अपनी ही दुनिया में खोयी रहती थी। उसे ना नापसंद करने का कोई गम था ना उसे अपनी बढती उम्र से कोई ऐतराज था। वह अपने माँ-बाप की सेवा करने में हमेशा मग्न रहा करती थी। कजरी तीस की उम्र को छू रही थी। अब नये रिश्ते आने बँद से हो गये थे। कजरी को इसकी कोई फिक्र नहीं थी। उसे यों लग रहा था कि भाग्य ने उसके लिये कोई खास रिश्ता बना रखा होगा, जिसका उसे सब्र से इंतजार करना था।
एक दिन उनके घर सरजू के दूर के रिश्तेदार लाला बनारसीलाल पधारे। वे अपने साथ एक रिश्ता लाये थे एक आदमी का..! हाँ एक विदूर का जिसे एक तीन साल का नन्हा बेटा था, जिसकी माँ चँद दिनों पुर्व चल बसी थी। सरजू और बिमला सोच में पड गये, हाय ये कैसी लीला है राम जी की..! अब क्या अपनी बेटी एक विदूर के गले में बाँध दे..! नही-नही.., ऐसा हमसे ना होगा..! हम क्या अपनी बेटी के दुश्मन है..? “ना...!” सरजू ने साफ मना कर दिया लाला बनारसीलाल को..!
“तो क्या यों ही बिठाये रहोगे अपनी बेटी को..?” लालाजी बोल पडे, “कुछ दिनों बाद ये भी रिश्ता नही मिलेगा जी..!”
“एक बार हम कजरी से पुछ तो लें, उसकी क्या राय है..?” सरजू ने हाथ टेकते हुये जवाब दे दिया और कजरी की ओर देखने लगे जो दरवाजे की ओट से उनकी बाते सुन रही थी। उसने धीरे से “हाँ” में सर हिला दिया..!
“तो ठिक है लालाजी, अगले ह्फ्ते उन्हे साथ ले आईये, एक बार सब एक दुसरे को अच्छी तरह जान पहचान लें..! क्या कहती हो कजरी की अम्मा..?”
“अजी, अगले हफ्ते क्यों, दो दिन बाद ही ले आते है उन्हे.., नेक काम में भला देर क्यों..!” लालाजी अपनी जीत पर मोहर लगाते हुये अपनी पगडी ठिक करने लगे।
दो दिन बाद रमेश अपने तीन साल के बेटे को साथ लिये कजरी के घर पर विराजे। टांगे से उतर कर घर में जैसे ही कदम रखा, उनका बेटा हाथ छोड कर आँगन में इधर से उधर दौडने भागने लगा..! पाँव धोकर यथोचित आदर सत्कार के बाद सभी लोग बरामदे में बैठ गये..! कजरी सभी के लिये अपने हाथों से बना जलपान ले आई। छोटु के लिये खास नारियल के लड्डू लायी थी। उसने एक लड्डू उठा कर उसे दिया..! लड्डू उसे बहूत पसँद आया..! रमेश को अपने बेटे के लिये एक अच्छी माँ की जरुरत थी। उसे कजरी पसँद थी। उसका खुद का मकान था, खेत खलीहान सब कुछ था। किसी को कोई ऐतराज ना होने की सुरत में ये शादी लगभग तय ही थी।
चँद दिनों बाद उनकी शादी हो गयी। सभी खुश थे अपने नये संसार में। रमेश कजरी का हर तरह से ख्याल रखता था। कजरी के माँ-बाप भी भगवान के इस फैसले से खुश थे। शायद उस नन्ही जान के पालन पोषन हेतु कजरी को बदसुरत बनाया गया, ताकी सही समय के आने तक वह सही सलामत इंतजार कर सके..! क्या यह भाग्य का निराला खेल नहीं..?
