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Manish Gode

Inspirational

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Manish Gode

Inspirational

भाग्यविधाता

भाग्यविधाता

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सरला और अनिकेत के विवाह को हुये तीन बरस बीत चुके थे। किंतु अब तक उन्हे कोई बच्चा न हो सका। किसी को भी कारण समझ में नही आ रहा था, ना डॉक्टर को, ना उन दोनो को। दुनिया भर के टेस्ट करवा लिये थे उन्होने, लेकिन नतीजा पुराना ही निकला; वही, ढाक के तीन पात..! यहाँ तक कि अनिकेत तो अपना वीर्य-टेस्ट भी करवा चुके थे..!

कुछ दिनो पहले तक सरला की भौंए तनी रहती थी, क्यों कि उसके सारे टेस्ट सही निकले थे। तो अब बारी अनिकेत की ही रह गयी थी..! शायद अनिकेत में ही कुछ कमी हो.., सरला के शक की सुई अब सीधे अनिकेत की ओर इंगीत कर रही थी..! किंतु उन्हे कहे भी तो कैसे..? पुरुष अहंकार को जल्दी चोट पहुँचती जो है..! अब सरला खुलकर आमने-सामने की लडाई लडने को तैयार हो चुकी थी।

“अनिकेत, बस अब बहुत हुआ..! अब मैं और ताने नहीं सुन सकती, डॉक्टर के कहे मुताबिक तुम अब अपना वीर्य-टेस्ट करवा लो..!” सरला एक दिन बिफरते हुए बोल पडी थी अनिकेत से।

“ये क्या कह रही हो सरला..? अब तुम भी...?” अनिकेत भौंए ताने सरला की ओर आश्चर्य से देखने लगा।

“मैं क्या करू अनिकेत... मुझसे अब और नहीं सहा जाता, सब लोग मुझे ही दोषी समझने लगे है। सबको बच्चे की पडी है, किसी को मेरी कोई परवाह ही नही..!” सरला फफक फफक कर रो पडी। उसके सब्र का बाँध अब टुट चुका था। अनिकेत उसे अपने पास लेकर साँत्वना देने लगा। उसने अब तय कर लिया था कि अपनी प्यारी बीवी के लिये ये परिक्षा भी दे ही देगा।

दो दिन बाद शाम को अनिकेत टेस्ट रिपोर्ट लेकर घर लौटा और सरला के हाथ पर रिपोर्ट का लिफाफा रख कर, हाथ मुँह धोने गुसलखाने में घुस गया। सरला को एक आस सी बँधी, पहली बार किसी बीवी को अपने शौहर के हार पर अपनी जीत का जश्न मनाने का मौका जो मिलने वाला था..! कितना विरोधाभास है, नहीं..? सरला ने आँख बंद करके लिफाफे से रिपोर्ट निकाली और सबसे पहले आखरी पँक्ति पर नजरें दौडाने लगी और वह निराश हो गयी, उसकी होने वाली जीत, हार में तब्दिल हो गयी थी। अनिकेत की रिपोर्ट नॉर्मल निकली थी..!

अनिकेत तौलिये से बालों को पोंछते हुये गुसलखाने से बाहर निकला..! सरला अपने आँसु पोंछते हुये निःशब्द, निस्तेज खडी हुई थी..! शब्द नही निकल रहे थे उसके मुँह से.., नाक लाल हो रही थी। अनिकेत धिरे धिरे उसकी ओर बढा और उसे पास लेकर उसकी पीठ पर से हाथ फेरते हुए साँत्वना देने लगा। सरला रो रो कर उसका कँधा भीगो चुकी थी। सब भाग्य का खेल है, कहती हुई वह मुँह धोने नल के पास जा पहुँची।

खाना खा लेने के बाद सरला टि.वी. खोलकर उसके सामने बैठ गयी। उस पर स्वामीजी का प्रवचन चल रहा था। भाग्य बदलने के सुत्र - इस अध्याय पर उपदेश चल रहा था। स्वामीजी कह रहे थे, “बुरे कर्मो को काटने का कोई उपाय नहीं है..! उन्हे भोगकर ही उनसे मुक्ति मिल सकती है..!”

सरला अब सजग होकर आगे सुनने लगी।

“भोगना ही काटना है..!” स्वामीजी महाराज कहने लगे, “यदी आपको सुख की आशा है तो उसके लिये एक ही उपाय है, अच्छे कर्म करो..! अच्छे कर्म करने से ही सुख की प्राप्ती हो सकती, बुरे कर्मो से सिर्फ दुःख की ही प्राप्ती होगी..! आपको यदी अपने पाप काटने है, तो ये ना समझो कि पुण्य कर लेने से सुख प्राप्त हो जायेगा..! उन्हे बडे संयम से भोग कर ही खत्म किया जा सकता है।”

सरला को कुछ-कुछ समझ आने लगा कि ये उसके या दोनो के पुर्व कर्मो का फल है जिन्हे भोगे बगैर उन्हे बच्चा नही हो पायेगा..! सुख प्राप्ति नही हो सकेगी।

महाराज आगे कहने लगे, “हमे कर्मो की धारा बदलनी होगी, यही समाज के लिये उचित होगा। समाज मे चोरी रोकना हो तो दान करो..! जब चोर के पास खाने के लिये पर्याप्त भोजन होगा तो वह चोरी ही नही करेगा..! यही समाजवाद का नियम है..!”

सरला को अपने लिये एक सुत्र मिल गया था। दान करो... दान करने से शायद मेरे पाप कुछ तो कम हो जायेंगे.., कम से कम नैराश्य से मुक्ति तो मिलेगी..! क्या पता, किसी भुखे की दुआयें काम कर जाये और मेरी सूनी गोद भर जाये...! सरला सोचते सोचते आँख मुँदने लगी..!

अगले ही दिन उसे अपने द्वार पर एक बुढा दरिद्र व्यक्ति खडा मिला, जो कुछ संकोच के साथ उसकी ओर देख रहा था। शायद वह भिखारी नही था किंतु पेट की भुख उसे हाथ फैलाने पर मजबुर कर रही थी। पेट की आग अच्छो-अच्छो को झुकने पर मजबुर कर देती है। सरला कुछ सोचते हुए बाहर आयी और उस बुढे से पुछा, “भुख लगी है बाबा..?”

उस बुढे ने सकुचाते हुए धिरे से सर हाँ में हिला दिया। सरला उसे रुकने को कह कर अंदर गयी और एक पत्तल पर दो रोटी और सब्जी रख कर देने निकली, लेकिन कुछ सोचते हुए एक पुरानी जर्मन की थाली में उसने वह पत्तल रख कर उस बुढे बाबा को दे दी। एक लोटे में पानी भी रख दिया। खाना खा लेने के बाद वह बुढा अब थोडा प्रसन्न नजर आ रहा था। सरला ने वह थाली भी उसे दे दी और कहा, “बाबा इसे अपने पास ही रहने दो, काम आयेगी..!”

चंद दिन बित गये, वह बुढा अपने नियत समय पर आ जाता और सरला उसे जो बना वह परोस देती। कभी कभी गाय को भी गुथे हुए आटे का भोग लगा देती थी। इस प्रकार जितना बन पडा उसने दान-पुण्य किया, बिना किसी इच्छा आकांक्षा के वह नित्य पुजा पाठ में भी लीन रहने लगी। पँद्रहा बीस दिन बाद उस बुढे ने आना बँद कर दिया। सरला दिन में कई बार बाहर आकर देख लेती, कहीं वह आया तो नही..?

धीरे धीरे सरला भी उसे भूल सी गयी। और फिर करीब तीन माह बाद सरला की गर्भ धारना हो गई। नियत समय पर उसने एक सुंदर बेटी को जन्म दिया। अब सरला और अनिकेत बहुत खुश थे। उन्हे अब समय कम पडने लगा, कब सुबह होती और कब शाम, पता ही नहीं चल पाता।

भाग्य को बदलते देर नही लगती। ना समय से पहले किसी को कुछ मिला है ना किस्मत से ज्यादा..! संयम से अपने बुरे वक्त को काटने से ही सुख के दिन पुनः प्राप्त किये जा सकते है। यदी आप चाहते है कि आपको या आपके परिवार को कम से कम दुःख हो तो कभी बुरे कर्म ना करे। भाग्य का उदय या अस्त होना अपने ही हाथ में है। सत्कर्मों से ही अनंत काल तक सुखी रहा जा सकता है। वही हमारा भाग्यविधाता बनता है।


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