आधी रोटी (कहानी)
आधी रोटी (कहानी)
दिल्ली से पाँच मज़दूरों के एक टोला जब कोई यातयात का साधन न मिला तो सात सौ किलो मीटर दूर अपने गाँव के लिए शाम चार बजे ही निकल चुका था। छः घंटे में चौबीस किलोमीटर का सफर करने के बाद इन्हें एक बस मिल गई। बस वाले ने सौ किलो मीटर दूर ले जाकर एक कसबे में छोड़ दिया। वहाँ के सब्जीमण्डी परिसार में इन्होंने पूरी रात गुज़ारी। वहाँ पहले से दिल्ली, हरियाणा और दूसरे प्रांतों से चले लगभग एक हज़ार मज़दूर एकत्रित थे। जो किसी न किसी प्रकार यूपी और बिहार के अपने अपने गाँव जाना चाहते थे।
इन मज़दूरों के टोले में आकाश ही एक ऐसा मज़दूर था। जो थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा था। ठंडी हवा के झोंकों ने थके हारे मज़दूरों को जल्दी ही नींद के आगोश में पहुँचा दिया। लेकिन आकाश से नींद कोसों दूर थी। उसके दिमाग़ में तरह-तरह के अनुत्तरित प्रश्न उठ रहे थे। ऐसा नहीं था कि ये प्रश्न आज ही उठे हों। इस से पहले भी उठते रहे थे। लेकिन अपने मन को दिलासा देने के लिए वह उनका कोई न कोई उत्तर खोज ही लेता। जिसका हल भविष्य की मेहनत और आशा के ऊपर ही टिका था।
कॅरोना वायरस के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े के आगे दुनिया के तमाम देश घुटने टेक चुके थे। चीन के वोहान शहर से शुरू हुई इसकी यात्रा, तमाम एशियाई देशों से होती हुई। यूरोप में बड़ी तबाही मचा रही थी। इटली, स्पेन और अमेरिका के बाद अब भारत की बारी थी। भारत के भी बड़े-बड़े शहर इसकी चपेट में आ चुके थे। क़ुदरत का क़हर आसमानी आफत बन कर गिर रहा था। जिसका कोई इलाज नहीं था। अगर इसे रोका जाना था तो सिर्फ और सिर्फ सोशल डिस्टेंसिंग के द्वारा ही संभव था। हमारे भारत वर्ष, जैसे घनी आबादी वाले देश में सोशल डिस्टेंसिंग को सख्ती से लागू करना एक दुष्कर कार्य था। लेकिन मरता क्या न करता। आखिरकार लॉक-डाउन ही इसका एक मात्र हथियार था जिसके दवरा इसको फैलने से रोका जा सकता था। आखिर वही हुआ इसको व्यापक रूप से पूरे देश में इसे लागू करने की घोषणा कर दी गई। फिर क्या था जो जहाँ था वहीँ लॉक होकर रह गया।
यूँ तो लॉक-डाउन सबके लिए ही था। जो लोग अपने घरों में थे उनके लिए तो लॉक-डाउन का मतलब केवल घर की ताला-बंदी से अधिक कुछ नहीं था। लेकिन जो मज़दूर, कामगार अपने गाँव, शहर से दूर रोज़ी रोटी की तलाश में परदेश निकले थे। उनके लिए तो एक बहुत बड़ी मुसीबत थी। कॅरोना वाइरस से अधिक भूख एक बहुत बड़ी समस्या थी। इनको डर सता रहा था कि कॅरोना तो बाद में होगा। कहीं हम उससे पहले भूख से न मर जाएँ। यही कारण था कि आकाश और उसके साथियों ने एन-केन-प्रकारेण अपने गाँव पहुँचने का संकल्प ले लिया था।
आकाश पर भी अब थकन हावी हो रही थी। इस थकन ने जल्दी ही नींद की खुमारी में डाल दिया। अब सुबह अगले सफर की तैयारी थी। एक ऐसा सफर जिसकी मंज़िल तो पता थी लेकिन पहुँचने का साधन केवल और केवल हौसला ही था। सभी साथी तैयार होकर बस स्टैंड पहुँच चुके थे। शायद यहाँ से कोई सवारी मिल जाए। सरकारी बसों को देख कर तो इनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही न था। सब लोग ख़ुशी-ख़ुशी बैठ गए। ये बसें इन्हें आगे के गंतव्य तक छोड़ने वालीं थीं। बस रवा
ना होते ही हलकी सी हवा लगी और आकाश ने सपने में अपने घर में बैठा पाया।
- माँ, तू मना कर रही थी न। देख मैं आ गया। अब कहीं नहीं जाऊँगा।
- हाँ बेटे, मैं तो पहले ही कहती थी। पराये देश की पूरी रोटी से अपने गाँव की आधी रोटी ही अच्छी है। लेकिन तेरे को तो औरों की देखन देखी शहर जावे धुन सवार थी। । देख लइ जाके। अरे दूर के ढोल सुहावने होत हैं। बड़ों ने एसई-नई-कई है। तू, तो पढ़ो लिखो है। अपने पिताजी के कामों में हाथ बटायगो तो दुगनी फसल हो जे।
- हाँ माँ, अब मैं पिताजी जो कहेंगे वही करूँगा।
इतने में बस कंडक्टर ने किराया मांगने के लिए जगाया तो नींद खुल गई। आशुतोष तो किराया देने को तैयार था। लेकिन उसके साथियों का कहना था कि यह बस सरकार ने हम लोगों के लिए भेजी है। जबकि कंडक्टर का कहना था कि सरकार ने बस भेजी जरूर है लेकिन किराये के स्पष्ट आदेश नहीं दिए हैं। बस के चलने के साथ-साथ बहस बाजी भी चलती रही। अंत ये हुआ कि जो दे सकता है वह दे दे। बस अपने नियत स्थान पर उतार चुकी थी।
जैसे ही बस ने उतारा, पुलिस वालों ने आकर घेर लिया।
सब लोग लाइन में दूर-दूर खड़े हो जाओ। अपने नाम पते लिखवाओ। अभी कॅरोना वाले आएँगे। सब की जाँच करेंगे। इंस्पेक्टर ने सख्ती से कहा।
- अरे सर हमारे नाम पते भले ही लिख लें। लेकिन सर, आगे जाने की व्यवस्था करवाने की कृपा करें। महाराज।
तभी हाई वे पर ट्रक को आता देख, इंस्पेक्टर ने सिपाही को उसे रुकवाने के लिए बोला।
आकाश समझ गया था कि इंस्पेक्टर अब थोड़ा पिघल गया है लेकिन उसने शर्त रखी कि जांच के बाद ही जाने देंगे। वह तो अच्छा रहा किसी में कॅरोना के लक्षण नहीं दिखे।
- साहब हम जितने लोग इसमें खड़े हो सकते हैं, उनको तो जाने दीजिये .बड़ी मिहरबानी होगी। आकाश ने कहा तो इंस्पेक्टर ने हाँ में सर हिलाया। जितने लोग चढ़ सकते थे चढ़ गए।
जैसे-जैसे ये लोग आगे बढ़ते जा रहे थे लॉक-डाउन का सख्ती से पालन हो रहा था। जिसके कारण रोड पर गाड़ियों का आवागमन कम होता जा रहा था। ट्रक ने इन्हें रोड पर ही उतार दिया था। अब गाँव केवल पाँच किलोमीटर दूर ही बचा था।
खेत मेड़ों के सहारे ये पाँचों मज़दूर चले जा रहे थे। गाँव की सोंधी मिटटी की खुशबू ने एक बार फिर इनका स्वागत किया। ठण्डी-ठण्डी मस्त हवा के झोंकों ने इनके सफर की थकान को दूर कर दिया था। एक सुखद सा अहसास घर पहुँचने का इनको गुदगुदा रहा था।
तभी आकाश ने अपने दोस्तों से कहा, "देखो हमारे गाँव के सारी खलिहानों में फसल कटी पड़ी है। कितना कुछ काम अभी बाकी है। फसल को मण्डियों तक पहुँचाने के लिए।"
- हाँ, आकाश। तुम सही कहते हो। अब हम शहर नहीं जाएंगे। जो कुछ भी होगा इसी गाँव में रहेंगे। चारों ने भी सुर में सुर मिलाया।
तभी आकाश ने कहा - "हाँ, भाइयो, मेरी माँ भी यही कहती है। शहर की पूरी रोटी से तो गाँव आधी रोटी भली है।" अब हम अपनी मेहनत-मशक्कत से इस गाँव को ही स्वर्ग बनाएंगे।