1970-इक था बचपन
1970-इक था बचपन


यादों को समेटने की कोशिश में जिंदगी बिखरती गई। कभी एक कोना पकड़ा तो दूसरा छूट गया, दूसरा पकड़ा तो पहला हाथ से फिसल गया। हथेली में रेत लेकर चली थी तो कहां से संभलती, खाली मुट्ठी रह गई। बचपन कब सुनहरे ख्वाबों में बीत गया, पता ही नहीं चला। बीस-बाईस लोगों से घिरे परिवार में हर पल गहमा-गहमी का माहौल रहता था। जिंदगी किसी नाव सी थी जो हवा की दिशा में यंत्रवत बहती रहती थी। चप्पू तो थे पर उनका आभास शायद नहीं था। ऐसा महसूस होता था जैसे जिंदगी की नाव पवन के इशारे पर चलती हो। मां-पिताजी हमें पालने में, हमारे जरूरतें पूरी करने में जी-जान से व्यस्त थे। अकेलापन कभी खला ही नहीं। भाई-बहनों और दोस्तों का हुजूम भी हर समय घेरे रहता। उन सब के साथ कब कितने गलियां-चौबारे नापे कोई हिसाब ही नहीं। और हिसाब हो भी क्यूं ? इसकी कोई गिनती थोड़ी ना हो सकती है और गिन कर करना भी क्या था। क्या आनंद था,बचपन के खेलों का 'पोशम पा भई पोशम...' और 'काली-पीली-डीलियो' में दीवारें रंगने का। छुपन-छुपाई के लिए अपने चार कमरों की परिधि ही नहीं सारे मोहल्ले की हवेलियां ही अपनी थी। कोई सीमा नहीं कोई बंधन नहीं।
जीवन की नवीन शैली हमसे कोसों दूर थी। मिट्टी के बर्तन रोज नये बनाते और उनसे खेलते। रोज खिलौना नया बनता तो रोज नया लगता। हम चारपाईयों की दो-तीन मंजिला इमारत बनाकर अपने दुपट्टे से दीवारें खड़ी करते थे और रोज एक नवीन खेल खेलते घर-घर का। कितना आनंद था, कितना सुकून भरा जीवन था।
आधुनिकता की चमक से अनजान दिन-महीने, साल में बदल गए और कब विद्यालय से विश्वविद्यालय में पहुंच गए पता ही नहीं चला। अब कुछ नया नजर आने लगा। गली-मोहल्ले छोड़कर, अब हम शहर के नए रिहायशी इलाके में एक बड़े घर में आ गए। एक ही हवेली में एक साथ रहने वाला, बीस-बाईस लोगों का परिवार
अब छोटी छोटी इकाइयों में बट गया था। घर बड़ा हो गया था, पर परिवार छोटा हो गया। संयुक्त से एकल जो हो गए। सुख-दुख सांझा करने का वक्त भी अब कम हो चला था। क्योंकि बड़े घर के रख रखाव में अब काफी समय चला जाता था। एक दूसरे के साथ मिलजुल कर बैठने का समय अब कम होता जा रहा था। रिश्तों में अब नया रंग घुलने लगा था। समय का पहिया अब और तेजी से चलने लगा। घर की रौनकें, मां- बाबुल की चिड़ियाएं, जिनकी हंसी से सारे घर आंगन चहकते-महकते रहते थे, सारी बहनें एक-एक करके अपने-अपने ससुराल चली गईं। मायके की गलियां सूनी हो गईं।
वक्त कहां थमता है, ज़िंदगियां बह जाती हैं। अपने-अपने परिवारों में, अपनी- अपनी गृहस्थी की व्यस्तताओं में कब दो-तीन दशक निकल गए, पता ही नहीं चला। अब नई पीढ़ी के कुछ बच्चे अपनी उड़ान उड़ चले और कुछ बच्चे उड़ने की तैय्यारी में थे। धीरे-धीरे घरौंदें फिर खाली हो गए। मां बाप फिर अकेले रह गए।
मायके की गलियां सूनी करने का असली एहसास तो तब हुआ जब अपना घरौंदा खाली हो गया। अब बचपन और ज्यादा याद आया। संयुक्त परिवार का एहसास तो जैसे कल्पना मात्र रह गया। फिर वही गलियां, चौबारे, हवेलियां, बाजार, सड़कें सब नापने का मन कर रहा था। पर अकेले कैसे जाऊं? बचपन के सभी संगी-साथी कहां से लाऊं? सभी की इतनी व्यस्तताओं के बीच, सबके साथ का सामंजस्य कैसे बिठाऊं ? अब उम्र और हौंसला भी पहले वाला कहां रहा? जीवन की कड़ियां भी ढीली हो चली हैं। पर ये मन है कि फिर भी आस लिए हुए है... कभी तो जिंदगी से कुछ लम्हे उधार के मिलेंगे जब मिल बैठेंगे सब पुराने लोग, वही पुराने माहौल में, वही पुरानी गलियां होंगी, वही पुराने चौबारे होंगे। वही एक रिक्शा में बैठकर, परियों की कहानियां सुनते सुनते, गली- मोहल्ले, बाजार-सड़कें शायद सब नाप लेंगे।