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suvidha gupta

Inspirational

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suvidha gupta

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एकल या संयुक्त परिवार

एकल या संयुक्त परिवार

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       किसी ज़मीन के टुकड़े या मकान को घर नहीं कहते। जिस मकान में इंसान के साथ, उसकी उम्मीदें, उसके सपने, उसके अपने, सब मिलजुल कर रहते हैं उसे घर कहा जाता है। इसमें रहने वाले लोग इसे प्यार से सींचते हैं तो यह घर, घर बनता है। सभी एक दूसरे का सम्मान करते हैं, परस्पर अटूट विश्वास करते हैं, अपने सुख-दुख बांटते हैं, मुसीबत पढ़ने पर एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं, तो सही मायनों में परिवार बनता है। और ऐसे ही असंख्य मज़बूत परिवारों से, एक सुदृढ़ समाज बनता है। इसी मज़बूत समाज की नींव पर, एक खुशहाल और विकसित देश की इमारत खड़ी होती है।


         प्राचीन काल में प्रायः लोग संयुक्त परिवार में रहते थे। सुख-दुख सांझा करते थे। धीरे-धीरे समय और परिस्थितियां बदलीं, तो परिवार के मायने बदलने लगे। पहले जब विज्ञान का विकास अधिक नहीं था और लोगों की महत्वकांक्षाऐं भी कम थीं, तो ज़्यादातर बच्चे अपने मां-बाप का अनुसरण करते हुए, उन्हीं के काम को अपनी जीविका का साधन बना लेते थे और उन्हीं के साथ जिंदगी बिताते थे।

समय बदलता रहा और विज्ञान भी बहुत तेजी से उन्नति करने लगा। लोगों की महत्वकांक्षाऐं भी आकाश छूने लगीं। बदलते वक्त के साथ, शहर और विदेशों की चकाचौंध और नौकरियों ने बच्चों को बड़े शहरों और विदेशों की ओर आकर्षित करना शुरू कर दिया। और न‍ई पीढ़ी भी अपने पैतृक घर-परिवार, गांव को छोड़कर, बड़े शहर या दूसरे देशों में जाकर अपनी गृहस्थी जमाने में लग गई। ऐसे में शुरुआत हुई संयुक्त से एकल परिवारों की।


       बहुत से परिवारों में ऐसा भी देखने में आता है कि बड़ों की अपेक्षाएं बच्चों से इतनी अधिक होती हैं कि बच्चे उनके नीचे अपने को दबा हुआ महसूस करते हैं। प्यार से प्यार पनपता है और कड़वाहट से कड़वाहट जन्म लेती है। नये परिवार में अगर बहू को प्यार, सम्मान और विश्वास ना मिले तो वह भी खुद को ठगा सा महसूस करती है। कईं परिवारों में ऐसा भी देखने में आता है कि नयी बहू के आते ही घरेलू काम-काज की सारी जिम्मेदारी, उस पर डाल दी जाती है। कहां तो मां-बाबुल का लाड और उनके प्यार के छांव की मौज-मस्ती और कहां अचानक से इतने सारे काम का बोझ। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि इक्कीसवीं सदी में भी भारतवर्ष में, बहुत से परिवारों में बहू के मां-बाप से यह कहकर सारी उम्र दहेज की अपेक्षा की जाती है, हमें तो कुछ नहीं चाहिए आपने जो देना है अपनी बेटी को देना है। ऐसे में मनमुटाव और तकरार तो स्वभाविक ही है। ऐसी विषम परिस्थितियां भी परिवार के बिखरने का कारण बन जाती हैं और परिवार संयुक्त से एकल हो जाते हैं।


       अब हम चाहे संयुक्त परिवार में रहें या एकल में, महत्वपूर्ण यह है कि मां-बाप और बच्चों के बीच का प्यार और विश्वास बना रहे। दोनों एक दूसरे के सुख-दुख में साथ रहें। एक दूसरे की परवाह करें और एक दूसरे के पूरक बने। ऐसे में संबंधों की कड़ियां आपस में मजबूती से जुड़ी रहेंगी, तो कैसी भी विपरीत या विकट परिस्थिति जीवन में आए, हम उसका मुकाबला कर ही लेंगे। पर अगर यह कड़ियां ढीली होंगी, तो राह में आया कोई भी तूफान हमें नुकसान पहुंचा सकता है। एक ही छत के नीचे रहकर,संबंधों का माधुर्य खो देने से भयावह, जीवन में कुछ और नहीं। थोड़े से प्यार, विश्वास, समझदारी और सहनशीलता से अगर रिश्ते निभाए जाएं, तो उनकी चमक हमेशा कायम रहती है। सारा घर-परिवार एक ही बंधन से बंधा हुआ, खूब फलता- फूलता है और उसकी खुशबू से सारा समाज महकता है। 



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