गणेश
गणेश
एक सच्ची कहानी है। गोपनीयता बनाए रखने के लिए मैंने नाम और स्थान में परिवर्तन किया है।
सिर पर बहुत लंबे साफे की कसकर बनाई हुई एक बड़ी सी पगड़ी, लंबा कुर्ता और धोती। ज़्यादातर उसका पहरावा सफेद रंग का रहता था। यह अलग बात है वह बहुत धो-धो कर थोड़ा पीले रंग पर आ जाता था। शायद नील नहीं लगाता होगा। नील लगाने लायक, इतने पैसे उसके पास होते ही कहां होंगे? शरीर गठीला था। कद पांच फुट, पांच इंच की रही होगी। आंखें छोटी छोटी थी, थोड़ा अंदर को धंसी हुई। चलता धीरे-धीरे था। दोनों पांव के अंगूठे में एक-एक धागा कस कर बांधे रखता था। एक बार मैंने पूछा भी था कि यह धागा किस लिए बांधते हो। तो उसने बताया था कि कमर में दर्द रहता है इसीलिए यह धागा बांधता हूं ताकि कमर की नसें थोड़ा ठीक रहें। मेरी उम्र तब शायद सात या आठ बरस की रही होगी।
हमारी शहर में बहुत बड़ी लोहे की दुकान थी और वह उस पर नौकरी करता था। उसका नाम गणेश था। हमारा घर चक्रवर्ती मोहल्ले में था और हमारे मोहल्ले से दुकान ज़्यादा दूर नहीं थी। रास्ते में सारा बाजार पढ़ता था। और किसी ना किसी काम से गणेश का घर पर आना-जाना बना रहता था। दिन में एक-दो चक्कर तो उसके लग ही जाते थे। कभी कोई सामान देने आता था, तो कभी घर का कोई काम करने आता था।
बात मेरे जन्म से बहुत पहले की है। सन् 1954 में दादाजी ने एक पुरानी बिल्डिंग खरीदी जो कि छोटी ईंटों की बनी हुई थी। उन्होंने इस बिल्डिंग को गिरवाकर बनवाना शुरू करवाया। गणेश थानेसर गांव का एक जुलाहा था। किसी काम की तलाश में, पहले अकेला कुरुक्षेत्र शहर आया। जब उसे पता चला कि कोई चिनाई का काम चल रहा है, तो यह बाउजी के पास काम मांगने आया और बाउजी ने भी इसे काम पर रख लिया। जितने भी मजदूर थे, सब में बढ़िया काम गणेश करता था। सुबह-शाम तराई करना जैसे बहुत से काम गणेश के जिम्मे थे। इस इमारत को बनने में तकरीबन पूरा एक साल लगा। जब काम शुरू हुआ तब मिस्त्री की दिहाड़ी दो रुपए थी और मजदूर की आठ आने थी। दुकान पूरी बनने के बाद, बाउजी को इसका काम बहुत पसंद आया। वह बोले, "अगर तुझे हमारे पास काम करना है, तो हमारी दुकान पर लग जा।" तब तक थोड़ी महंगाई बढ़ गई थी, तो मजदूर की दिहाड़ी एक रुपए हो गई थी। यह साठ रुपए महीने पर नौकर लग गया और हमारे यहां काम करने लगा।
गणेश बेहद ईमानदारी से काम करता था। फिर यह अपने परिवार को भी गांव से ले आया। पेशे से जुलाहा था, तो सुबह-शाम खेस भी बुनता था। गणेश को बीड़ी पीने की आदत थी, बार मैंने हरियाणा रोडवेज की बस में यात्रा करते हुए, कुछ उत्सुकतावश और कुछ समझाने की धुन में, एक टिकट कंडक्टर से यह बात पूछी कि जब बीड़ी नुकसान करती है तो तुम क्यों पीते हो। उसने जवाब दिया था,"बीबी, जब पास में कुछ खाने को नहीं होता, तो भूख मिटाने के लिए बीड़ी पीता हूं।" हक्की बक्की सी तब मैं, अपने ही प्रश्न पर शर्मसार हुई थी, क्योंकि इससे पहले स्मोकिंग यानी धूम्रपान करने के, इस पहलू से मैं अनजान थी और शायद भरे पेट इस बात का मर्म समझना बेहद मुश्किल है। पर मैं यह कभी समझ नहीं पाई कि साधन-संपन्न लोग सिगरेट क्यों पीते हैं?
खैर, अनपढ़ होने के बाद भी गणेश सारा हिसाब-किताब कर लेता था। कितनी बार बाउजी गल्ला भी उसके ऊपर छोड़ जाते थे। तो इसने कभी बेईमानी नहीं की। एक बार की बात है इसका एक साथी, वह भी किसी लोहे वाले की दुकान पर काम करता था। लेकिन वह गल्ले से पैसे चुराता था। उसका नाम मनमौजी राम था, एक दिन उसने कृष्णा चौक से एक पैसे की जलेबी खरीदी और गणेश के साथ बैठ कर खाई। जलेबी खाने के बाद, एक दिन तो कुछ नहीं हुआ। लेकिन अगले दिन गणेश ने हमारे गल्ले से एक पैसा चुराया और उसकी जलेबी खाई। फिर उसको सारी रात नींद नहीं आई। अगले दिन आकर वह बाउजी के पैरों में गिर गया। बाउजी ने पूछा, "क्या बात हुई गणेश?" वह बोला, "लाला जी मुझसे तो बहुत बड़ी गलती हो गई। मैंने जिंदगी में पहली बार, आपके गल्ले से एक पैसा चुराया और उसकी जलेबी खाई।" बाउजी ने पूछा, "गणेश, यह बता, तू इतना ईमानदार आदमी। यह बात तेरे साथ कैसे हुई? तूने कहीं.. किसी से लेकर कुछ खाया तो नहीं?" गणेश बोला, "हां, लालाजी, वह मेरा साथी मनमौजी राम है और वह जहां काम करता है, एक पैसा उस दुकान से चुराया और उसकी जलेबी खाई और मुझे भी खिलाई। लालाजी, उस चोरी की जलेबी का अंश मुझ में आ गया। जिसने मुझे भी चोरी करने के लिए प्रेरित किया। मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं। कृपया आप अपना ये एक पैसा पकड़ो।" धन्य हो! गणेश जैसे इंसान जिनकी अच्छाई और सच्चाई की वजह से दुनिया में ईमानदारी जिंदा है। तो दोस्तों, जीवन में परिस्थिति चाहे कैसी भी हो सत्यनिष्ठा का दामन नहीं छूटना चाहिए। गणेश की इस घटना ने जीवन का एक बहुत बड़ा सबक दिया, इसीलिए शायद वह मेरी स्मृतियों में रह गया।