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Snehil Thakur

Tragedy

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Snehil Thakur

Tragedy

यथार्थ

यथार्थ

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लिखने बैठी मैं 

'गरीबी' पर कविता,

समझ न पाई

आखिर लिखूं क्या!

असंख्य तर्क-कुतर्क के बाद

सिर्फ इस मत

पर पहुंची, कि

ऐसे नहीं

बन जाता कोई गरीब,

समाज हेय

दृष्टि से देखती है,

दर-दर ठोकरें

खानी होती है,

रिसते हुए छत के नीचे

सोना पड़ता है,

मां दोहराकर

फटे कपड़े सीती है,

कहां दो वक्त की थाली

नसीब होती है,

गरीबी का असली चेहरा

समझने के लिए

उनका यथार्थ जीवन

जीना पड़ता है!



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