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Sheel Nigam

Romance

4  

Sheel Nigam

Romance

यथार्थ के धरातल पर...

यथार्थ के धरातल पर...

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जब हम मिले थे ,

आदम और हव्वा की तरह .

सारी सृष्टि आलिंगन करती सी,

प्रेम के प्रतिबिम्बों को अंकुरित करती सी ,

सृजन से भरपूर ...

हमारे चारों ओर आलोड़ित थी .

मंद समीर मेरी अलकों से अठखेलियाँ कर रहा था 

और तुम ...

तुम आदम थे, बल और पौरुष के प्रतीक,

मैं कमसिन-कोमल, पर सहस्त्र-दल कमल सी पुष्ट . 

मेरे मदमाते यौवन में बसा था धड़कते हृदय का स्पंदन .

लज्जापूर्ण रक्ताभ कपोल और अधरों में था कम्पन .

तुमने मुझे मिलन-सुख से सरोबार कर दिया .

आकाश का चाँद हमारे मिलन का गवाह बना 

और चाँदनी को रिझाने लगा . 

सागर की लहरें उमड़-उमड़ कर आकाश को छूने लगीं .

सारी प्रकृति वासंती हो उठी .

और मैं ...

तुम में समाहित होकर तृप्त हो गयी .

पर लगता है तुम तृप्त नहीं हुए,

कैसे होते?

जितनी बार तुम मेरे पास आते

उतनी ही बार तुम्हारी पिपासा बढ़ती जाती .

तुम आदम थे बल और पौरुष के प्रतीक ,

तुम्हारा पौरुष तुम्हे तृप्त होने ही नहीं देता था .

मैं तुम्हारे प्रेम के उपहारों से लदी-फंदी सी

अपने आप में ही संयत रही .

और तुम ?

अपने पौरुष का बल दिखाने 

नयी-नयी मंज़िलें तलाशने लगे. 

मेरे आकर्षण से छिटक कर दूर ...

 न जाने कहाँ-कहाँ भटकने लगे . 

अधीर और बेबस होकर मैं ...

सिंदूरी अंगारे की तरह सुलगती रही 

और आज तक सुलग रही हूँ 

तन से भी मन से भी!



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