यथार्थ के धरातल पर...
यथार्थ के धरातल पर...
जब हम मिले थे ,
आदम और हव्वा की तरह .
सारी सृष्टि आलिंगन करती सी,
प्रेम के प्रतिबिम्बों को अंकुरित करती सी ,
सृजन से भरपूर ...
हमारे चारों ओर आलोड़ित थी .
मंद समीर मेरी अलकों से अठखेलियाँ कर रहा था
और तुम ...
तुम आदम थे, बल और पौरुष के प्रतीक,
मैं कमसिन-कोमल, पर सहस्त्र-दल कमल सी पुष्ट .
मेरे मदमाते यौवन में बसा था धड़कते हृदय का स्पंदन .
लज्जापूर्ण रक्ताभ कपोल और अधरों में था कम्पन .
तुमने मुझे मिलन-सुख से सरोबार कर दिया .
आकाश का चाँद हमारे मिलन का गवाह बना
और चाँदनी को रिझाने लगा .
सागर की लहरें उमड़-उमड़ कर आकाश को छूने लगीं .
सारी प्रकृति वासंती हो उठी .
और मैं ...
तुम में समाहित होकर तृप्त हो गयी .
पर लगता है तुम तृप्त नहीं हुए,
कैसे होते?
जितनी बार तुम मेरे पास आते
उतनी ही बार तुम्हारी पिपासा बढ़ती जाती .
तुम आदम थे बल और पौरुष के प्रतीक ,
तुम्हारा पौरुष तुम्हे तृप्त होने ही नहीं देता था .
मैं तुम्हारे प्रेम के उपहारों से लदी-फंदी सी
अपने आप में ही संयत रही .
और तुम ?
अपने पौरुष का बल दिखाने
नयी-नयी मंज़िलें तलाशने लगे.
मेरे आकर्षण से छिटक कर दूर ...
न जाने कहाँ-कहाँ भटकने लगे .
अधीर और बेबस होकर मैं ...
सिंदूरी अंगारे की तरह सुलगती रही
और आज तक सुलग रही हूँ
तन से भी मन से भी!

