ये ऊंची-ऊंची इमारतें
ये ऊंची-ऊंची इमारतें
ये शहरों की ऊंची-ऊंची,इमारतें
बता रही जनसंख्या के आंकड़े
गर अब भी हम लोग न सम्भले
बहुत जल्द होंगे बड़े-बड़े हादसे
कम चीजों से ज्यादा की चाहते
इससे हो रही,हादसों की आहटें
बढ़ रहा,भूमि पर अतिरिक्त बोझ
कत्ल हो रहे,नित ही,भू कालजे
बिगड़ रहा,पारिस्थिकी संतुलन
मनुष्य का बहुत बिगड़ गया,मन
बहुत बड़े,प्रकृति छेड़छाड़ किस्से
कुल्हाड़ी,पांवों पर खुद ही मार रहे
ये शहरों की ऊंची-ऊंची,इमारतें
मिटा रही गांवों की मासूमियतें
फूल दबा रहे है,पत्थरो के तले
बहुत बिगड़ गई,हमारी आदतें
गर वक्त रहते हम लोग न सुधरे
बढ़ी जनसंख्या,पार करेंगी हदें
भुखमरी से बढ़ेगी,इतनी मौतें
एक आम खाने,मरेंगे सो-सो जने
प्रकृति से जो हम छोड़ेंगे जड़ें
फिर तो हम सूख कर ऐसे मरेंगे,
जैसे जेठ दुपहरी में बदन जले
व्यर्थ की आधुनिकता छोड़ चले
जो भी कार्य प्रकृति को हानि दे
वो कार्य हम लोग कभी न करे
जितना हम प्रकृति से जुड़ सके,
वो कार्य हम लोग अवश्य ही करे
प्रकृति मां की गोद मे सोने चले
ओर अपने सारे ही गम भूल चले
ये ज़माने की ऊंची-ऊंची इमारतें
आज तक कोई संग लेकर न चले
जिओ-जीने दो,सिद्धांत पर चले
ओर निःस्वार्थ कर्म करते हुए चले
जिसने जिंदादिली के जलाएं दीये
उसकी रोशनी से,अंधेरे चमकने लगे।