यादों में सफर
यादों में सफर


कुछ सोचना पड़ेगा
मेरी गाँव की यादों को
शब्दों में बाँधने का
किस किस लम्हें को बाँधू
एक नहीं कई यादों की रस्सियाँ है
जो मुझे अपनी ओर खींचती है
एक रस्सी बाँधती है
मुझे हैंडपंप के उस डंडे से
जहाँ गिरते पानी से भरती है
कई गगरियां मेरी यादों की।
एक याद की रस्सी छींके पर लटकी है,
चूल्हे पर सिंकते होरो( चनाबूट) के पास,
जहाँ गरमाती है मार्च की हल्की सर्दी में
नानी की चार राजकुमारों की कहानी।
एक रस्सी बाँधे है मुझे नाना की
ऊपर वाली अटारी से,
जहाँ मुंगफलियों की बोरियाँ होती थी
वही पर गिरती है कई मुंगफलियां
दोपहर की यादों में,
चुपके से किए ऊँगली के छेदों से।
एक रस्सी बँधी है मेरी
कुँए वाले खेत की मेड़ पर,
जहाँ खुरपी से कुरेद कर
कुछ यादें मिट्टी लगी गाजर
और मूली के साथ बाहर निकलती है।
एक रस्सी ले जाती है
नदी किनारे वाले खूंटे पर,
जहाँ पानी के संग बहती है
सुबह की कुछ यादें मेरे मन की
एक रस्सी ले जा कर शामिल कर देती है
गुड्डा- गुड़िया की बारात के बारातियों में।
एक याद की रस्सी
बेरिया के बेरों से उलझी है मेरी ,
जो कुछ कच्चे-पके बेरों का
खट्टा-मीठा स्वाद बन मुँह में घुलता है।
एक याद की रस्सी
सेठी मामा की दुकान से भी बँधी है मेरी,
जहाँ गेंहू और सरसों के तराजू
तौल से खुशी भर चीज़े बिकती थी।