बल्ब और अंधेरा
बल्ब और अंधेरा
बल्ब जिसने अंधेरे को निगला है,
अंधेरे पर इल्जाम था, सारी वारदातों का
सड़क पर हुए हादसों का
जो उसने करी ही नहीं थी।
अंधेरी सुनसान सड़क
जन्म देती है घटनाओं को।
सड़क गवाह थी सारे हादसों की
पर वो कुछ नहीं बोली ,
वो चाह कर भी कुछ नहीं
बोल सकती थी...
उसने सुना था चीखों को,
अंधेरे के बगल में बैठ कर देखा था,
डर से हवा होते हौसले को...।।
वो चीख कर सब अपनी - अपनी
गवाही देना चाहते थे
पिछली रात हुई घटना के लिए...
और, वक़्त दहाड़े मार कर
सिर्फ रोना चाहता था,
इंसानियत के मरने पर
अंधेरे के खत्म होने पर
जो एक भ्रम था, आगे सब
ठीक हो जाने का...
रौशनी से रास्ता भटके
पंक्षियों के लिए
जिनकी उड़ान ने अभी- अभी
दम तोड़ा था
या जो तोड़ने वाले थे...।
ना दोष सुनसान सड़क का था,
ना अंधेरे का जो इल्जामों के
कटघरे में थे ...
सहमी सड़क दो आँसू
बहाना चाहती थी
उस सूखी नदी के लिए ,
जो हादसों का शिकार हुई थी
जिसके खुशी और ग़म
के आँसू सूख गए थे
और अहसास बंजर...
अंधेरा चीख कर गुहार लगाता
अपनी बेगुनाही की...
पर बहरों की अदालत
में गूंगे बेजुबान थे
वो चाह कर भी कुछ
कह सुन नहीं सकते थे...
जलती बत्तियों ने
कितनों को रोका
गुनाह करने से, ये बात
कोई नहीं जानता
पर बल्ब को ही
आगे आना पड़ा
सारी उठती आवाज़ों
को दबाने के लिए ।
दिन रात का फेर
खत्म हो रहा था।
अब सुनसान सड़क
पर बत्तियाँ थी
जो सरकारी कोष
का भत्ता थी।
अंधेरा सिसक रहा था
सड़क ख़ामोश पसरी थी
ठीक वैसे ही जैसे
हर घटना के बाद
ताक़ते हुए कुछ,
सन्नाटे में मातम में डूबी हुई
आदी से अनादी तक...
और किनारे लगे पेड़
अपनी शाखों पर आते- जाते
पंक्षियों को देखते हुए
वो सब कुछ देर
उस पर ठहरते तो है
पर कभी कोई
उसका होता नहीं है
घटनाओं के क्रम में
घुटते हुए, वो
अपनी बूढ़ी आंखों में,
वक़्त के फैसले का
इंतज़ार लिए
निशब्द खड़े है।
रौशनी जीती या अंधेरे हारा ...
ये मामला वक़्त की अदालत में
सालों से बस तारीखों के घेरे में है।