यादों के दरिचों से
यादों के दरिचों से
यादों के दरिचों से अकसर
एक अक्स उभर आता है,
खामोश सा सुनता है,
फिर भी लगता है अल्फाजों को
ज़बान दे जाता है।
दर्द की घाटियों में डूबते उतरते
जब भी कोई नाम पुकारा है।
वीरानियों को चीरता ,
वो अक्स फिर लौट आता है,
जाने क्यों ये बेनाम सा रिश्ता सजाता है।
कांच के टुकड़ों की चुभन में भी,
लबों पे एक मुस्कान दे जाता है।
अक्स तुम्हारा आज भी
मुझे जिंदा होने का एहसास दे जाता है।

