वट नहीं, मैं दूब होना चाहता हूँ
वट नहीं, मैं दूब होना चाहता हूँ
वट नहीं
मैं दूब होना चाहता हूँ...
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रातभर संचित करी जो
अंजुरी में चाँदनी
अर्घ्य प्रातःकाल दूँगा सूर्य को
सीख जाऊँ काश कुछ जादूगरी
वंशियों में दूँ बदल रण तूर्य को
सिन्धु तट से प्यास प्यासी लौट आयी
अतः मीठा कूप होना चाहता हूँ
वट नहीं
मैं दूब होना चाहता हूँ.
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कह उठी शिशु के जनम को
देखकर अख्खड़ जवानी
अट्टहासों से बड़ी तेरी रुलायी
कैचियों की धार को देती चुनौती
तुच्छ सूई मौन जो करती सिलायी
पीर को अभिव्यक्ति देगा
हास्य से आशा कहाँ है
अश्रु का प्रतिरूप होना चाहता हूँ
वट नहीं
मैं दूब होना चाहता हूँ.
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बिन बताये सिर्फ बातों में लगाये
वस्त्र सारे कर चुकी तन से अलग वो
डाँटती पुचकारती बहला रही है
नग्नता को भूलकर वह हँस रहा है
माँ उसे उबटन लगा नहला रही है
और जो उस दृश्य की साक्षी रही
गुनगुनी सी धूप होना चाहता हूँ
वट नहीं
मैं दूब होना चाहता हूँ.
